अखबार लेने गया था सवेरे साढ़े छ बजे। अखबार वाले मंगल प्रसाद जी के घर के सामने सर्विस लेन पर एक व्यक्ति प्लेटफार्म पर बैठा अखबार पढ़ रहा था। दत्तचित्त। अपनी साइकिल कुछ पहले रोक उसका मैंने चित्र खींचा पर वह अखबार में इतना तन्मय था कि मुझे नोटिस नहीं किया।
अपना अखबार ले कर लौटा तब भी वह व्यक्ति वहीं उसी मुद्रा में था। उनकी साइकिल सामने खड़ी की हुई थी। लगता नहीं था कि उन्हें जाने की कोई जल्दी हो। और अखबार भी एक नहीं, दो थे उनके पास। सामान्य से अलग व्यक्ति लग रहे थे वह। मुझे लगा कि इनके चरित्र में कुछ नोट करने लायक मिल सकता है।

बातचीत की। वे सज्जन शिव जग यादव हैं। गगरांव गांव के। गगरांव इस महराजगंज कस्बे से करीब चार किमी पर है। शिव जग जी भदोही में वाचमैन हैं। साइकिल से वे पच्चीस किमी चला कर शाम को ड्यूटी पर जाते हैं और सवेरे लौटते हैं। जाते समय ही सब्जी खरीद लेते हैं। सवेरे आते समय दुकानें खुली नहीं रहतीं। सो रात में ही खरीददारी कर लेते हैं। सवेरे यहां महराजगंज से अखबार लेते वापस लौटते हैं। दो अखबार थे उनके पास – अमर उजाला और आज। आज किसी और का है। अमर उजाला उनका है।

काफी श्रम है उनकी जिंदगी में। रोज पचास किमी साइकिल चलाना ही बड़ा श्रम का काम है! उसके अलावा रात की ड्यूटी!
उनके परिवार में उनकी पत्नी हैं और एक बीस के आसपास का लड़का। लड़का अभी पढ़ रहा है। दूध के लिये एक भैंस है। ज्यादा पाल नहीं सकते – उसे चूनी-चोकर देने के लिये खर्च करने की स्थिति में नहीं हैं। पर उनका अपना घर का दूध का काम चल जाता है। खेती किसानी नहीं है। परिवार उनकी नौकरी पर निर्भर है।
अपनी पढ़ाई के बारे में बताया कि आठवीं पास हैं। आठवीं पास, वाचमैन की नौकरी और अन्य कोई ग्रामीण आधार न होने पर भी दत्त चित्त अखबार पढ़ना – शिव जग जी में कुछ खासियत तो है! अन्यथा यहां ग्रेज्युयेट भी खटिया तोड़ते अलसाते रहते हैं। मोबाइल पर वीडियो देखते और गेम खेलते हैं। अखबार-किताब तो छूते ही नहीं। और दूसरी बड़ी बात कि एक वाचमैन अन्य गुणों-दुर्गुणों पर खर्च करने की बजाय दो-ढाई सौ महीना अखबार पर खर्च कर रहा है। … हिंदी अखबार शिव जग यादव जी जैसों की बदौलत आगे भी चलते रहेंगे, भले ही प्रिण्ट और टीवी मीडिया; सोशल मीडिया के प्रभाव में जर्जर हो रहा हो!
शिव जग के बारे में जान कर उनके प्रति सामान्य से ज्यादा इज्जत का भाव मेरे मन में आया। चलते समय मैंने उनसे हाथ मिलाया।

लोग सड़क किनारे अखबार पढ़ते शिव जग यादव को बिना नोटिस किये निकल जा सकते हैं। मुझे उनमें कथा नजर आती है। अपने बारे मेंं यह सोचना भी अच्छा लगा मुझे सवेरे सवेरे। मैं मेग्ज्टर पर सालाना 2000रुपये खर्च करता हूं। कल लगा था कि अखबार का प्रिण्ट संस्करण खरीदने की बजाय मनचाहे अखबार और पत्रिकायें लैपटॉप पर ही देखूंगा। कल सोमवार से यह प्रिण्ट वाला अखबार लेना बंद करूंगा। पर तब शिव जग जैसे चरित्र कैसे मिलेंगे? …
शिव जग यादव नहीं मिलेंगे तो कोई और मिलेंगे ही। साइकिल से सवेरे के भ्रमण से कोई न कोई चरित्र (मैं उन्हें मोबाइल कैमरे में फंसी मछली की संज्ञा देता हूं) फसेंगे ही। साइकिलहे का ब्लॉग विपन्न नहीं हो सकता! 😆
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