जिस जगह पर सलीके से सोता शराबी मिला था, लगभग उसी जगह पर वह मैले कुचैले कपड़े पहने, एक लाठी और एक गठरी लिये आदमी बैठा मिला। पहला काम मैंने किया कि उसका दूर से एक चित्र खींचा। साइकिल बिना रोके, सीट पर बैठे बैठे, अपने नोकिया फीचर फोन से।
वह चित्र छोटे 2 मेगापिक्सल कैमरे का है तो बादलों भरी सुबह की लाइट कम होने पर उतना साफ नहीं आता। इसलिये उसे मैं फोटोस्केचर से एडिट कर बाद में उभारता हूं। चित्र, चित्र कम पेण्टिंग ज्यादा बन जाता है।

पास आने पर भी वह व्यक्ति वहीं दिखता है। अब मेरे पास समय है। मैं रुक कर साइकिल की सीट पर बैठे बैठे अपने स्मार्टफोन से चित्र लेता हूं। फिर भी किसी फोटोग्राफी नियम का ध्यान दिये बिना। यह चित्र पहले से बेहतर है, पर मानकों पर खरा नहीं है।

फोटो त्वरित क्लिक करना मेरी मजबूरी है। आखिर मेरे लिये चित्र की गुणवत्ता नहीं, उसके द्वारा ब्लॉग सम्प्रेषण महत्वपूर्ण है। कोई सीन देख विचार मन में आते हैं और चित्र न लिया जाये तो वे गायब हो जाते हैं। चित्र लेना लगभग एक तरह की नोट-टेकिंग है।
और नोट टेकिंग की प्राथमिकता होने से मैं चित्र लेने की कला पर ध्यान नहीं दे पाता।
यही कारण है कि सधे हुये चित्र लेने का प्रयास मैंने बहुत कम किया है। और यही कारण है कि मैंने अपनी फोटोग्राफी परिष्कृत करने में पर्याप्त मेहनत नहीं की।
ब्लॉग के शुरुआती दौर में मेरे पास शब्द कम थे। अंगरेजी के शब्द ज्यादा जोड़ने पड़ते थे लेखन के पैबंद में। और उस गरीब लेखन की कमी चित्र के माध्यम से पूरी करने का प्रयास करता था। अब शब्द कुछ बेहतर हुये हैं सो चित्र पर निर्भरता कम हुई है। किसी विचार को बिना चित्र के संप्रेषित करने में उतनी झिकझिक नहीं होती। बार बार अंगरेजी-हिंदी की कामिल बुल्के की डिक्शनरी नहीं टटोलनी पड़ती।
पर लेखन/ब्लॉग की एक पैबंद वाली शैली बन गयी है। वह चले जा रही है!
किरीट सोलंकी मुझे ट्विटर पर डायरेक्ट मैसेज (डीएम) के माध्यम से फोटोग्राफी के गुर सिखाने का प्रयास करते हैं। मैं उन्हें मना नहीं करता। उनके चिड़ियों के चित्र देख कर मन होता है कि बेहतर कैमरा लिया जाये। पर उसकी बजाय खर्चे कहीं और हो जाते हैं।
फोटो के लिये मैं अपने सस्ते नोकिया फीचर फोन या मिड-रेंज वाले सेमसंग के स्मार्टफोन पर ही निर्भर रहता हूं।

उस मैले कुचैले, अर्धविक्षिप्त से लगते आदमी का चित्र लेते समय मैं रोशनी की दशा, फोकस, रूल ऑफ थर्ड … किसी पर ध्यान नहीं देता। ध्यान केवल चित्र शूटने पर रहता है। Shoot first, Edit afterwards. शूटो पहले, एडिटो बाद में।
मेरी एडिटिंग भी बढ़िया नहीं है। पर सब मिला कर काम चल जा रहा है। गड्डमड्ड तरीके से ‘मानसिक हलचल’ अभी भी जारी है।
वह अर्ध-विक्षिप्त सा आदमी एक बार मेरी ओर देखता है, मुझे नोटिस नहीं करता और फिर उंगलियों पर कुछ गिनने में लीन हो जाता है। उसका पूरा माहौल मुझे उसके ज्यादा पास जाने से रोकता है। झिझक उत्पन्न करता है – उसे अगर सीधे सीधे रिपल्सिव या अप्रिय न भी कहा जाये।
उस विक्षिप्त की चप्पल घिस गयी है। कपड़े मैले हैं और वह कई दिनों से नहाया नहीं लगता। एक बारगी मन होता है कि उसे चाय के लिये दस रुपये दे दूं। जब उसने मेरी ओर देखा तो उसकी आंखों में जरा भी याचना, कौतूहल या प्रश्न नहीं दिखा। अन्यथा मैं उसके कुछ और पास जाता और जरूर उसे दस रुपये देता। शायद ज्यादा भी।

पर वह सब नहीं होता। मैं आगे बढ़ जाता हूं। मानवता और करुणा का प्रवाह नहीं होता।
और यह ब्लॉग पोस्ट उस आदमी पर बनने की बजाय फोटो शूटिंग और एडिटिंग पर बन जाती है। 😦
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