मैं मडैयाँ डेयरी से दूध खरीद कर निकला तो बाहर उन सज्जन को नाली की मुंडेर पर बैठे अखबार पढ़ते पाया। अखबार भी शायद डेयरी वालों का होगा। उनका दूध का बर्तन/बाल्टा लाइन में लगा होगा और वे अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुये अखबार पढ़ ले रहे थे।

मैने पूछा – कितनी देर हो गयी इंतजार करते?
बताया करीब पच्चीस मिनट। समय से आ जायें – जल्दी से जल्दी – तो पांच मिनट में भी काम हो जाता है। कभी कभी आधा-एक घण्टा भी इंतजार करना होता है। वे कोठराँ से आते हैं। इस जगह से चार किमी दूर। वहां पास में भी कलेक्शन सेण्टर हैं। बनास डेयरी का।
“इतना दूर चल कर यहां क्यों आते हैं? पास के सेण्टर पर क्यों नहीं जाते?” – मैने पूछा।

“उस जगह पर फैट गलत सलत बताता है। कई बार मशीन खराब होती है या खराब बता देता है। तब फैट ज्यादा भी हो तो भी तीन परसेण्ट (गाय का दूध) के भाव से खरीदता है। पैसा देने में भी हीला हवाली करता है। कहता है कि बैंक से पैसा आयेगा, तब देगा। इसलिये यहां आना और इंतजार करना अखरता नहीं।” – उन्होने बताया।
नाम बताया उमाशंकर यादव। गूगल मैप के हिसाब से उनका गांव पांच किमी दूर है। आजकल हर दो किमी पर डेयरी कलेक्शन केंद्र खुल गये हैं। फिर भी वे इतना दूर आते हैं। यहां की सर्विस से सन्तुष्ट प्रतीत होते हैं – “उस डेयरी पर कांटा भी सही नहीं था। वहां के कांटे पर दूध सात-साढ़े सात किलो बताता था, यहां आठ किलो से ऊपर ही रहता है।”
मैने सोचा था कि इन कलेक्शन सेण्टरों से दुग्ध क्रांति जैसा कुछ होगा; पर गांवदेहात में भ्रष्टाचार, खराब सेवा और किसान-ग्वाले का शोषण गहरे से घुसा हुआ है। वह किसी भी अच्छे कदम में पलीता लगाता है।
पांच दस किमी दूर से किसान-दुग्धउत्पादक इस मडैयाँ डेयरी के कलेक्शन सेण्टर पर आ रहे हैं तो यहां भीड़ लगती है। यहां का इंफ्रास्ट्रक्चर भी सीमित है। अजय पटेल, पिण्टू और सुभाष की कुशलता की भी शारीरिक सीमायें हैं। सही समाधान तो इमानदार डेयरी कलेक्शन सेण्टरों में वृद्धि ही है।

दूध का कलेक्शन एक मुद्दा है। भ्रष्टाचरण हर ओर पसरा नजार आता है। राशन बांटने वाला कोटेदार, राशन सप्लाई दफ्तर वाला कर्मचारी-अधिकारी, अमूल दूध वितरण की एजेंसी, ईंट भट्ठा वालों द्वारा उपजाऊ गांगेय पट्टी की मिट्टी का जेसीबी से उत्खनन और उनसे उगाही करने वाला तहसील का अधिकारी-कर्मचारी, गंगा की बालू का अवैध खनन — सब ओर भ्रष्टाचार दीखता है। उसे देखने के लिये कोई विशेष आंखें नहीं चाहियें। साइकिल ले कर सब ओर देखते निकलना वह स्पष्ट कर देता है।
मैने सोचा था कि इन कलेक्शन सेण्टरों से दुग्ध क्रांति जैसा कुछ होगा; पर गांवदेहात में भ्रष्टाचार, खराब सेवा और किसान-ग्वाले का शोषण गहरे से घुसा हुआ है। वह किसी भी अच्छे कदम में पलीता लगाता है।
उमाकांत यादव जी से दो तीन मिनट की बातचीत मुझे भीषण डिस्टोपियन भाव से ग्रस्त कर देती है। आम आदमी का कोई धरणी-धोरी नहीं है। सरकारें आती-जाती हैं। शिलिर शिलिर परिवर्तन होते हैं। रामराज्य कभी आयेगा? शायद नहीं या शायद मेरी जिंदगी गुजर जाये उसके इंतजार में।