मड़ैयाँ डेयरी का एक चरित्र

पारा चालीस के पार चल ही रहा है। दो तीन दिन से तो चव्वालीस से पार है। परसों छियालीस था। घर में स्टेशनरी साइकिल झाड़-पोंछ कर तैयार की गयी है। कोशिश की जायेगी कि कमरे में ही साइकिल चलाई जाये और घर के अंदर ही पैदल चला जाये।

उर्दू मुझे नहीं आती, पर उसकी टांग तोड़ कर लिखा जाये तो गर्मी बाहर-ए-नाबर्दाश्त है। बाहर निकलते ही झुलसने लगता है शरीर।

अशोक – वाहन चालक – को कहा है कि देर से आने की बजाय आठ बजे तक आ जाये। उसके साथ कार में जाता हूं दूध लेने। कार का खर्चा जोड़ लिया जाये तो दूध नब्बे रुपये किलो पड़ेगा। पर नब्बे रुपया देखें या शरीर का आराम?

जो कोई लोग या चरित्र मिलते हैं, वे डेयरी पर ही मिलते हैं। एक आदमी वहां दूध देने नहीं आया है। पूछने आया है कि भैंस के एक किलो दूध से कितना खोआ बन सकता है। वह यहां से दूध खरीद कर खोआ बनाना चाहता है। उसके सवाल करने पर वहां उपस्थित सभी लोग सोशल मीडिया के विद्वानों की तरह विद्वता ठेलने लगते हैं।

एक बम्बईया रिटर्न्ड अपनी बम्बईया लहजे की देहाती में ज्ञान बांटते हैं – हमारे बम्बई का दूध अच्छा होता है। एक किलो में कुछ नहीं तो एक सौ अस्सी ग्राम खोआ बनता है। टॉप क्लास खोआ।

गांव के भदोहिया भुच्च लोग खोआ की मात्रा एक पाव तक खींच ले जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं – तू लण्ठ हयअ। गाई क दूध क खोआ बनवअ। (तुम मूर्ख हो, गाय के दूध का खोआ बनाओ)। … जितने मुंह उतनी बातें।

वह आदमी मुझे दूध ले कर निकलने पर सड़क पर खड़ा दिखता है। उसने दूध नहीं लिया। वह अभी भी अनिश्चय में है। मैं सड़क पार उसे फैट कंटेंट और एसएनएफ के आंकड़े, खोये में कुछ आद्रता की मात्रा आदि के अनुसार बताने की कोशिश करता हूं। पर टेक्नीकल टर्म उसके पल्ले नहीं पड़ती। मुझे लगता है कि उसने खोआ बनाने का विचार त्याग दिया है।

साधारण सा आदमी। उसकी सफेद कमीज साफ नहीं है। बांई ओर की जेब फटी है और उसे सिलने के लिये जो धागा उसने या उसकी पत्नी ने इस्तेमाल किया है, वह सफेद नहीं किसी और रंग का है। उसके बाल बेतरतीब हैं और उसकी साइकिल भी कम से कम पंद्रह साल पुरानी होगी।

साधारण सा आदमी। उसकी सफेद कमीज साफ नहीं है। बांई ओर की जेब फटी है और उसे सिलने के लिये जो धागा उसने या उसकी पत्नी ने इस्तेमाल किया है, वह सफेद नहीं किसी और रंग का है। उसके बाल बेतरतीब हैं।

सड़क पर खड़ा वह आदमी, अब मुझे लगा कि मेरी इंतजार में ही खड़ा था। वह मुझे अपना नाम बताता है। यह भी बताता है कि पास के गांव का है – तितराही का। वह मुझे जानता है। थोड़ा रुक कर वह जोड़ता है – “मैं जानता हूं; और लोग भी जानते हैं कि आप बड़े अच्छे और सीधे आदमी हैं।”

मुझे अच्छा लगता है एक अपरिचित के मुंह से यह सुनना। पर मैं तय नहीं कर पाता कि कैसे और क्या प्रतिक्रिया करूं। बस, यही कहता हूं – अच्छा चलता हूं। महराजगंज बाजार भी जाना है। कुछ सामान ले कर घर लौटना है।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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