अशोक सवेरे काम पर आया पर कष्ट में था। टेढ़े हो कर चल रहा था। मेरी पत्नीजी ने कारण पूछा तो बोला – पलई पिरात बा।
पसलियों में दर्द है। कारण कुछ भी हो सकता है। सर्दी लग जाना या अण्ट-शंट खाना। रात में सर्दी में सोने का पोश्चर भी गलत हो सकता है। मेरी पत्नीजी ने उसे तुरंत सलाहें देना शुरू किया। अजवाइन फांके। काढ़ा लिया या नहीं? “रात में ठण्ड में छुछुआत रहा होबे (रात में सर्दी में इधर उधर घूम रहे होगे)”। ज्यादा दर्द हो रहा है तो जरूरी काम निपटा कर घर जाओ और आराम करो।
सहानुभूति मिलने से अशोक कुछ और झूल गया। वह हमारा वाहन चालक है, पर घर के फुटकर काम भी निपटाता है। चारपाई खींच कर धूप में रखना और अनाज सुखाना; ओवरहेड टंकी में पानी देख कर पानी भरना; आटा पिसवाना; दीवार घड़ी का सेल या फ्यूज बल्ब बदलना आदि। ये छोटे छोटे काम गिनती में नहीं आते पर जैसे बनिया की दुकान से सामान की बजाय घेलुआ ज्यादा महत्वपूर्ण है, अशोक के ये काम उसके वाहन चलाने से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। अन्यथा हमारी कार चलती ही कितना है? साल भर में मुश्किल से पांच सात हजार किलोमीटर।
पिछले आठ साल में अशोक तीन बार हमारा साथ छोड़ कर जा चुका है और तीनों बार जब वापस आया तो हमने बिना किसी हील-हुज्जत के, उसे रख लिया है। उसका बच्चा बीमार हुआ तो दो बार उसका इलाज भी हमने कराया। एक बार तो बच्चा चार दिन अस्पताल में भरती रहा और हमें काफी खर्च करना पड़ा।
अशोक गांवदेहात की नब्ज पहचानने में वह महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। गांव की जिंदगी में हमारे लिये अशोक महत्वपूर्ण है और अशोक के लिये हम। उसकी प्रतीक्षा रहती है इसलिये नहीं कि मुझे कहीं जाना होता है; वरन इसलिये आसपास की खबर वह बखूबी देता है। और गांव के ‘अखबार’ का एडिटोरियल कण्टेण्ट भी स्तरीय बनाता है। उसके विश्लेषण भले ही देसी हों, वे आपको एक अलग कोण से जगहों, घटनाओं और लोगों को दिखाते हैं। और वह पूछने पर बोलता है। हर किसी बात में टांग नहीं घुसाता।
खैर, पसलियों के दर्द पर लौटा जाये। अशोक ने डाक्टर को भी दिखाया था। अपनी बात के सत्यापन के लिये उसने जेब से एक दवाई भी दिखाई जो डाक्टर ने दी थी। डाक्टर ने सूई लगाने की सलाह भी दी थी। उसपर वह विचार कर रहा है कि लगवाई जाये या नहीं। लगवाने का मतलब ज्यादा खर्च।
उसके बताया कि चार पांच दिन पहले भी दर्द हुआ था। तब “लात छुआये रहा” वह। लात छुआना क्या है? मुझे बताया गया कि यह देसी टोटका है। पसलियों में दर्द आम है। और दर्द भी तीखा होता है। गांवदेहात में लोग उस व्यक्ति से पैर का पसलियों पर स्पर्श करवाते हैं, जो उल्टा पैदा हुआ हो। अर्थात प्रसव में जिसका पैर पहले बाहर आया हो। ऐसे व्यक्ति निश्चय ही विरले हैं। और उनकी मांग होती है पसलियों के दर्द में।
“लात छुआया था तो आराम था। तीन दिन ठीक चला। अब एक बार फिर जाना होगा लात छुआने। लगता है पिछली बार पूरे तौर पर लात नहीं छुआई थी उसने।”
शायद पसलियों का दर्द कुछ समय बाद शरीर को आराम मिलने से स्वत: ठीक हो जाता हो। आखिर शरीर का सेल्फ करेक्टिंग मेकेनिज्म भी जबरदस्त चीज है। उसे गांव देहात में लात छुआने के टोटके से जोड़ दिया गया है।
सुग्गी ने बताया है कि हमारे माली जी (रामसेवक) भी उल्टा पैदा हुये थे। मेरी पत्नीजी ने कहा कि अशोक कहीं और जाने की बजाय रामसेवक जी की लात ही खा ले! यूं रामसेवक इस तरह की टोटका वाली दवाई पर शायद यकीन नहीं करते। वे बहुत नो-नॉनसेंस आदमी हैं। अपने काम से काम रखने वाले।
वैसे भी, लगता है अशोक की श्रद्धा उसके पुराने लात-मारक में ही है; भले ही वह व्यक्ति दलित बस्ती का है! :lol:
इसके पहले अशोक दांतों के दर्द से निजात के लिये कीड़ा झड़वाने की बात कर चुका है। जब सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था नदारद हो तो ऐसे टोटकों का ही वर्चस्व होता है। बगल में फलाने की माई के पास बच्चे ले कर आने वालों की सबेरे भीड़ लगने लगती है। बच्चा बीमार रहता है तो नजर झड़वाई जाती है। दूध नहीं पीता या उल्टी कर देता है, खाना नहीं पचता – इस सब का इलाज झड़वाना है। बच्चे ही नहीं वयस्क भी भोजन न पचने पर झड़ाई की शरण लेते पाये जाते हैं।
कोई भी मसल्स स्पैज्म हो – चिलक हो या नस खिंचने से तीखा दर्द – उसके लिये लात खाना या छुआना इलाज है। गले या पीठ के दर्द में भी लात छुआई जाती है। नाभि के पास के दर्द के लिये खटिया के पाये पर नाभि दबा कर रखी जाती है। उसके बाद मुंह में कुछ डाल कर उठा जाता है। कंधे और गले के दर्द में मूसल के बीच के भाग पर गर्दन रख कर लेटा जाता है। इन कृत्यों का तो हो सकता है कोई वैज्ञानिक कारण हो; पर उल्टा पैदा हुये व्यक्ति की लात खाना या छुआना तो विशुद्ध टोटका है!

उस लात-मारक ने अशोक को दोपहर में खाली पेट आने का अप्वाइण्टमेण्ट दिया है। यह बता कर अशोक चला गया और शाम को नहीं आया। अब जब आयेगा तब पूछा जायेगा कि लात खाने का कोई सार्थक परिणाम हुआ या झोलाछाप डाक्टर साहब की सूई लगवाने से आराम मिला!
अगले दिन, आज, अशोक आया। एक हड्डी का आदमी है और कमर झुका कर चल रहा था। दयनीय भी लग रहा था और कार्टून भी। उसने बताया कि आराम मिला है पर ज्यादा नहीं। पेट में सूजन है। डाक्टर ने सूई लगाने को कहा है। उसके लिये आज जायेगा।
आज रविवार है। रामसेवक जी के आने का दिन भी है। वे क्यारी में काम कर रहे थे जब अशोक आया। पत्नीजी ने अशोक को और उन्हें चाय दी। अशोक को नारियल छीलने को काम बताया। नारियल छिलने की विशेषज्ञता अशोक की ही है।
रामसेवक और अशोक एक कोने पर धूप में बैठ चाय पी रहे थे। मैने सुना; रामसेवक अशोक से कह रहे थे – एक हफ्ते कायदे से दवाई करो। सब ठीक हो जायेगा।
टोटका स्कूल ऑफ थॉट के मुरीद पूरे गांव वाले हों, वैसा नहीं है।


आपकी इस पोस्ट से ये प्लेसिबो इफ़ेक्ट वाली स्टडी याद आ गई:
“…A study led by Kaptchuk and published in Science Translational Medicine explored this by testing how people reacted to migraine pain medication. One group took a migraine drug labeled with the drug’s name, another took a placebo labeled “placebo,” and a third group took nothing. The researchers discovered that the placebo was 50% as effective as the real drug to reduce pain after a migraine attack.”
https://www.health.harvard.edu/mental-health/the-power-of-the-placebo-effect
शायद यही वजह है टोना-टोटका से लोगों को आराम मिलने के पीछे: प्लेसिबो इफ़ेक्ट
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निश्चय ही प्लेसीबो ही है! :-)
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रोचक।
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