तीन दर्जन गोभी के पौधे आये थे। रामसेवक जी को खबर की गयी कि वे सवेरे अपने काम पर बनारस जाने के पहले उन पौधों को घर के किचन गार्डन वाले हिस्से में रोप दें।
सवेरे नौ बजे वाली पैसेंजर से रामसेवक अपने काम पर बनारस जाते हैं। वे वहां कई बंगलों में माली का काम करते हैं। इसलिये वे सात बजे हमारे घर आ गये पौधे रोपने के लिये। बड़ी दक्षता से उन्होने जमीन तैयार की। बारिश के बाद जमीन खोदने और बराबर करने में ज्यादा मेहनत नहीं थी। जल्दी ही वह काम हो गया। तब तक मेरी पत्नीजी उनके और मेरे लिये चाय-बिस्कुट ले आईं।

मैंने उनसे बात बात में पूछा – यह बनारस जा कर माली का काम उन्होने कैसे शुरू किया?
रामसेवक वह बताने के लिये काम रोक कर खड़े हो गये और चाय पीते पीते मुझे बताने लगे। वे शुरू से ही माली नहीं थे। वह काम उन्हें आता भी नहीं था। गांव में कालीन बुनकर थे पर बुनकर के काम में आमदनी नहीं थी। उससे आजिज आ कर उन्होने बनारस जा कर कोई काम तलाशने की सोची। यह सन 2005 का समय था। उस समय वे 37-38 साल उम्र के रहे होंगे।
काफी तलाशने पर भी तीन सौ रुपये दिहाड़ी का काम उन्हें मिला नहीं। मोती कॉटन मिल के तीन दिन चक्कर लगाये इस आशा में कि मालिक से मिल सकेंगे और कोई नौकरी मिल जायेगी। पर मालिक से मुलाकात ही नहीं हुई। तब वे मण्डुआडीह आये और वहां नर्सरियों से पौधे ले कर एक टोकरी में सिर पर उठा कर फेरी लगा बेचने लगे। उससे लोगों से जान पहचान हुई और उन पौधों को उनके घर पर रोपने का काम भी मिला। काम बढ़ने से टोकरी सिर पर ले कर चलने की बजाय एक साइकिल पर उन्होने पौधे ले कर बेचना शुरू किया। पौधों के बारे में जानकारी लेने के लिये वे नर्सरी में उनका विवरण उनकी पट्टियों पर पढ़ते और वहां के मालियों से जानकारी जुटाते। काम बढ़ा तो साइकिल की बजाय एक ठेले पर पौधे रख कर बेचना शुरू किया। धीरे धीरे उन्हें लोगों के बंगलों में माली का काम मिलने लगा। काम मिला तो उन्होंने माली के काम का और भी ज्ञान अर्जन किया।
अपने काम को वे पूरी निष्ठा और गम्भीरता से करते। किसी मालिक को कभी टोकने का मौका नहीं दिया उन्होने। लोगों के घरों में तो वैसे भी सीसीटीवी कैमरे लगे हैं। काम कितना हो रहा है उसकी जानकारी उन्हें वैसे ही मिल जाती है। उनके काम की गुणवत्ता के कारण उन्हें काम मिलता गया। आजकल वे पच्चीस हजार महीने की नियमित आमदनी पा जाते हैं। इसके अलावा उन्हें कभी कपड़े खरीदने की जरूरत नहीं हुई। तीज-त्यौहारों पर एम्प्लॉयर पर्याप्त दे देते हैं। त्यौहारी/बोनस भी काफी मिल जाता है। उनके छोटे लड़के की पढ़ाई में भी उन मालिकों ने बहुत मदद की थी। यह सब उनकी साख और कर्तव्यनिष्ठा का ही परिणाम है।
रामसेवक अपने काम से संतुष्ट हैं। और उसका श्रेय पूरी लगन और ईमानदारी से अपने काम करने की आदत को देते हैं। उनके अनुसार लोग अगर इसी तरह से काम करें, अपनी जानकारी और गुण बढ़ाते रहें और कभी जांगरचोरई न करें तो हर एक के लिये सम्मानजनक काम है और समाज मेंं इज्जत भी है।

यह सब बताते बताते रामसेवक ने पूरी दक्षता से आधे घण्टे में पौधे रोप दिये। उनको पानी भी दे दिया। मेरी पत्नीजी को सहेज भी दिया कि अगर चौबीस घण्टे में बारिश नहीं होती है तो पौधों को पानी डाल दें। काम खत्म कर वे अपने घर चले गये। वे मेरे पड़ोसी हैं।
साइकिल चला कर लौटते समय मैंने साढ़े आठ बजे देखा – वे तैयार हो कर रेलवे स्टेशन जा रहे थे। पैसेंजर का टाइम होने वाला था। बनारस जाने वाली पैसेंजर का।
दिन भर वहां काम कर वे शाम को वापस लौटेंगे। सेल्फ-मेड; कर्मठ रामसेवक बिंद!
One thought on “रामसेवक जी के उद्यम की कथा”