शीला मास्टरानी अध्यापिका नहीं है। वह गांव की दलित बस्ती की महिला है। उसका पति कुशल बुनकर है। बुनकरों का प्रमुख। उसे शायद मास्टर कहा जाता हो और उसके कारण शीला को मास्टरानी का सम्बोधन मिल गया है। वैसे भी, शीला में आत्मविश्वास झलकता है।
शीला मेरी बिटिया के खेत की अधियरा है। बिटिया यहां नहीं रहती इसलिये मेरी पत्नीजी खेती का प्रबंधन देखती हैं। प्रबंधन के नाम पर कुछ खास नहीं करना होता। मौके पर यही पता करना होता है कि गेंहू या धान की फसल कितनी हुई और आधे के आधार पर कितनी फसल बिटिया की बनी। वह बताने ही शीला साल में दो-चार बार मेरी पत्नीजी से मिलती है।
कल गेहूं की फसल के बारे में बताने वह सवेरे आई थी। उस समय हम सवेरे की चाय पी रहे थे। शीला के लिये चाय बनाने को रखी गयी। इस बीच मैने उससे कालीन बुनकरी के बारे में पूछा।
शीला का पति, रमापति,’बाहर’ काम करता था। एक दशक पहले गांव वापस आ गया। महानगर ने उसे शायद व्यवसाय-वृत्ति सिखाई हो। उसके पहले यहां गांव में कालीन बुनकर का काम वह जान और कर चुका था। दोनो गुणों के योग से उसने घर पर ही गलीचे बुनने की चार खड्डियां लगाईं। उनपर सात लोग नियमित काम करते हैं। रमापति कारपेट व्यवसाइयों से कच्चे माल को लाने और बुने हुये गलीचे देने का प्रबंधन करता है। उसके अलावा वह बाबूसराय के कारपेट व्यवसायी के यहां काम भी करता है। अपनी मोटर साइकिल पर व्यवसायी के कारखाने आता-जाता है। खड्डी लगाने के जो आमदनी के आंकड़े मुझे शीला ने बताये, उसके अनुसार महीने में तीन सप्ताह के लगभग काम करने वाले कारीगर/मजदूर को 5-6 हजार रुपया महीना मिल जाता होगा। शीला और रमापति की घर के बुनाई केंद्र प्रबंधन से आमदनी 12-14 हजार प्रति माह होनी चाहिये। यह कंजरवेटिव आकलन है।
शीला ने बताया कि खड्डी बिठवाने में उसकी एक लाख के आसपास की पूंजी लगी है। इसमें कैपीटल और रनिंग दोनो प्रकार के व्यय शामिल हैं।
एक लाख की पूंजी, उद्यमिता और लगन – उस सब के बल पर शीला-रमापति दम्पति अपना परिवार पाल रहा है और सात अन्य लोगों को गांव में काम मुहैय्या करा रहा है। जितनी आमदनी वे कारीगर/मजदूर यहां गांव में पा रहे हैं, उससे दुगनी पगार अगर महानगर में मिलती तो ही पासंग में बैठती। रमापति का लोगों की जिंदगी में, उनके रोजगार में योगदान निश्चय ही बहुत ही सराहनीय है।
मैने शीला से कहा कि उनके घर पर उनकी खड्डियां देखना चाहूंगा। मैं सात – दस लोगों को नियमित कारोबार देने के लिये मैं एक दो लाख पूंजी लगाने की सोच सकता हूं। पर मुझमें वह उद्यमिता नहीं है। मैं केवल रमापति-शीला जैसे लोगों के बारे में लिख भर सकता हूं!

गांवदेहात में दो-चार प्रतिशत लोग रमापति-शीला जैसे हों तो रोजगार की समस्या का निदान हो जाये। उनके लिये पूंजी की उपलब्धता तो सरकार देख ही सकती है।
शीला मास्टरानी की बातचीत में अदब, सजगता और आत्मविश्वास सब है। वह गांवदेहात में कम ही नजर आता है। मुझे उसके चित्र की आवश्यकता थी, उसके बारे में लिखने के लिये। चित्र खींचने के लिये मेरी पत्नीजी आगे आईं। चित्र खिंचवाने में शीला में, आमतौर पर जो झिझक ग्रामीण महिलाओं में होती है, नहीं थी। उसका आत्मविश्वास मुझे अच्छा लगा।


लिखा खूब…
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धन्यवाद जी!
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😊
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पढ़ कर बहुत अच्छा लगा .
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आप निश्चित रूप से थोड़ी मदद तो कर ही सकते हैं इस दंपत्ति के माध्यम से.
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