अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी की कविता है –
काली-काली कू-कू करती,
जो है डाली-डाली फिरती!
कुछ अपनी हीं धुन में ऐंठी
छिपी हरे पत्तों में बैठी
जो पंचम सुर में गाती है
वह ही कोयल कहलाती है.
एक और कविता सुभद्राकुमारी चौहान जी की है –
देखो कोयल काली है पर,
मीठी है इसकी बोली,
इसने ही तो कूक कूक कर,
आमों में मिश्री घोली।
कवियों और लेखकों की कृपा है कि हम कोयल को काली समझते रहे हैं। यह जानते हैं कि कोयल काली होती है, कौव्वे जैसी लगती है। इतना कौव्वे जैसी है कि वह अपने अण्डे कौव्वे के घोंसले में देती है और मूर्ख कौव्वा उसे सेता-पालता है।
पर आज मेरे ज्ञान की ट्यूब लाइट, 68+ की उम्र में आ कर जली!
मैंं सवेरे अपने पोर्टिको में बैठ चाय पी रहा था। पास में पक्षियों को दाना और नमकीन डालता जा रहा था। आज का मेरा निरीक्षण था कि भोर में सबसे पहले रॉबिन उठती है। उसके पांच सात मिनट बाद सवेरे के धुंधलके में बुलबुल नजर आई। फिर गिलहरी और मैना। दूर मुनिया भी दीखने लगी। चरखियां तो लेट लतीफ हैं। सबसे बाद में नजर आईं। लेट आती हैं पर आ कर झगड़ा कर बाकी सब को दूर हटा कर डाले हुये दाने पर अधिकार जमा लेती हैं।
भोर के धुंधलके में कुछ पक्षियों की हलचल पेड़ों पर भी नजर आई। साफ नहीं हो रहा था कि कौन कौन पक्षी हैं, पर कुछ आवाजें समझ आ रही थीं – कोयल की और भुजंगा की। अचानक मेरे पोर्टिको के बाहर नांद, जिसमें कमल का पौधा लगा है और पक्षी जिसमें पानी पीने आते हैं; की मुंडेर पर दो पक्षी आ कर बैठे। पानी पीने आये थे। एक काला था। दूसरा चितकबरा। वह चितकबरा पक्षी हमने यदा कदा देखा है। काले वाले को मैं पहचान गया – वह कौव्वे के आकार का था, एक आवाज उसने निकाली और स्पष्ट हो गया कि वह कोयल थी। पर कोयल जल्दी ही पानी पी कर उड़ गयी। चितकबरा पक्षी ज्यादा ही प्यासा था। वह तीन चार मिनट तक वहां रहा और बार बार पानी में अपनी चोंच ले जाता, पानी पीता रहा। उसे न पहचानने के कारण मेरा कौतूहल बढ़ गया। पास जा कर चित्र ले नहीं सकता था – उससे वह उड़ जाता। कुर्सी पर बैठे बैठे मोबाइल से चित्र खींचा। और उसे क्रॉप कर पक्षी के धुंधले चित्र से नेट पर उसके बारे में सर्च किया।
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![](https://gyandutt.com/wp-content/uploads/2024/06/gdfs14june24-08-koel.jpg)
और जो जानकारी मिली, वह मेरे लिये गजब ही थी! विकिपीडिया के पेज से पता चला कि यह चितकबरा पक्षी एशियन कोयल है। मादा कोयल। जो काला पक्षी उड़ गया था, वह नर कोयल था। यह चितकबरी मादा कोयल ही कौव्वे के घोंसले में अंडा देती है। इसके बारे में विकीपीडिया पर लिखा है –
The female of the nominate race is brownish on the crown and has rufous streaks on the head. The back, rump and wing coverts are dark brown with white and buff spots. The underparts are whitish, but is heavily striped.
जीवन के उत्तरार्ध में आ कर स्पष्ट हुआ कि कोयल – एशियन कोयल जो चीन, भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में होती है; की मादा भूरी-चितकबरी होती है। प्रकृति को निहारने और कवितायें ठेलने वाले किसी भी कवि या कवियित्री ने उसे चितकबरा नहीं बताया! 😦
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बचपन में किसी भी कविता पुस्तक ने यह जानकारी नहीं दी। मैने अपने पड़ोसी, अपने साले साहब को इसका चित्र दिखा कर पूछा कि यह चितकबरा पक्षी कौन है? साले साहब – शैलेंद्र दुबे, गांव में ही रहते हैं। लगभग पूरी जिंदगी गांव में या गांव के सम्पर्क में काटी है उन्होने। चित्र देखते ही पूरे आत्मविश्वास से उन्होने कहा – तीतर है यह! …. शायद भारत के नब्बे फीसदी लोग इसे कोयल के रूप में नहीं पहचान पायेंगे!
काली कोयल, जिसे स्त्रीलिंग का सम्बोधन भारतीय साहित्य में मिलता है, वह असल में नर कोयल है। मादा कोयल तो यह भूरी, चितकबरी पक्षी है। बेचारी! इसका उल्लेख किसी ने न किया। साहित्यकारों का ऑब्जर्वेशन और सौंदर्यबोध अजीब ही है। वे अगर सही सही देखते-लिखते तो आज मेरे जैसा व्यक्ति कोयल को पहचान पाता।
काफी देर बैठ और पानी पी कर वह चितकबरी मादा उड़ी तो उसने जो आवाज निकाली, उससे संशय नहीं रहा कि वह कोयल ही है। विकिपीडिया के पेज पर नर और मादा एशियन कोयल की आवाज भी उपलब्ध है। वे आवाजें वही थीं जो हमने सुनी और जो हम रोज सुनते भी हैं। जो आवाज हम कोयल की आवाज, ‘कुहू कुहू’ ध्वनि के रूप में चीन्हते हैं वह असल में नर कोयल की आवाज है।
घोंसले की व्यवस्था शायद मूलत: नर की ड्यूटी में आता है। यह काला कामचोर नर अपना घोंसला नहीं बनाता। कौव्वे के अंडे नीचे गिरा देता है और चितकबरी मादा को कौव्वे के घोंसले में अंडा देने को कहता है। खैर, मैं कोई ओरिन्थॉलॉजिस्ट हूं नहीं, इसलिये पक्के तौर पर कुछ कह नहीं सकता। अटकल भर लगा सकता हूं!
![](https://gyandutt.com/wp-content/uploads/2024/06/koel-1.jpg)
आज लगा कि हमें भारतीय पक्षियों पर एक अच्छी किताब अंतत खरीद ही लेनी चाहिये। एक अच्छा बायनाक्यूलर भी होना ही चाहिये। प्रकृति के समीप रहते हुये ये बेसिक औजार जरूरी हैं।
पाठक बता सकते हैं कि वे कोयल को चितकबरे रूप में जानते हैं या नहीं?
इतनी मिसइन्फोर्मेशन हिंदी साहित्य में भी है ये आज पता चला। हमारा समाज पितृ प्रधान ऐसे ही नहीं कहा जाता, हमारे साहित्य ने तो तो मादा कोयल के अस्तित्व को ही नकार दिया है। धन्यवाद आपको इस नए ज्ञान को साझा करने के लिए।
R
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मिस-इनफार्मेशन नहीं, साहित्यकार आर्मचेयर साहित्यकार हैं। अज्ञेय जी ने खंजन पर एक कविता लिखने वाले कवि से कहा – आप सामने जो पक्षी है, उसे पहचानते हैं? उन कवि ने अनभिज्ञता जताई। तब अज्ञेय जी ने कहा – यही खंजन है जिसपर आपने इतनी ‘सुंदर’ कविता लिखी है।
लोगों को प्रकृति का भान ही नहीं है! 😀
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मादा कोयल के रूप रंग का भान तो नहीं था लेकिन ये अवश्य पता था कि आवाज मीठी नर की ही होती है।
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जी हां। इसी प्रकार सुंदरता और मनमोहक नृत्य कौशल का उपहार भी केवल (नर) मोर को ही प्राप्त हुआ है। नर के विपरीत मादा (मोरनी) की कूक भी थोड़ी कर्कश होती है।
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भाई जी हम तो काली कोयल से ही परिचित हैं। हो सकता है इस वाली ने मछली के बाद दूध पी कर यह रंग धारण कर लिया हो। रंग कोई भी रहे कूक की मिठास का तो कोई सानी ही नहीं है। रंग रूप तो तीतर से मिलता है, पर तीतर का डील डौल बड़ा होता है। फिर आपने उसकी आवाज़ भी सुनी है, तो कुल मिला कर हम सब के ज्ञान में वृद्धि हुई है।
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जी, आवाज सुनने के बाद ही पोस्ट लिखी!
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नमस्कार ,
दूसरी कक्षा में स्कूल के मैदान में वृक्ष के नीचे बैठकर पढ़ने का फायदा यह था की ये फर्क बचपन में ही ज्ञात हो गया था। वैसे मेरे आठ साल के पुत्र भी यह चीज़ अबकी वैकेशन में गांव जाके नानाजी से सीखे और कोयल व तीतर को पहचानना सीखे। कोयल द्वारा अंडे गिराना भी गांव में काफी बार अपनी आम्रकुंज में देख है। नर कोयल कौए से झगड़ा करके ध्यान भटकता रहता है और मादा अंडे नीचे गिराती है।
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जानकारी के लिये धन्यवाद!
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