साण्डा – धान की खेती

दस पंद्रह दिन से बारिश नहीं हुई थी। लोगों ने धान की खेती के जो मंसूबे बांधे थे वे धूमिल पड़ते जा रहे थे। सुग्गी, जो हमारा छोटा सा खेत आधे पर जोतती है, ने कहा कि बिना पानी के उसकी धान की नर्सरी भी सूख रही है। बाल्टी बाल्टी पानी दे कर उन पौधों को किसी तरह जिंदा रखा है। अगर जल्दी रोपाई नही की गयी तो फसल होगी ही नहीं। उसके लिये खेत में पानी डालना होगा। पुराना लपेटा पाइप खराब हो गया है। खेत तक ट्यूबवेल से पानी ले जाने के लिये नया पाइप खरीदना होगा। उसमें चार हजार रुपये का खर्चा है।

धान की रोपाई करता किसान परिवार

पाइप तो हमें ही खरीदना है, सुग्गी को नहीं। धान के लिये चार हजार का खर्च अखर रहा था। पाइप खरीद लेने पर उसके लिये पूरा गांव मांगने आने लगेगा; आखिर सब को इस समय खेत में पानी देने की जरूरत है। खरीदने की बजाय यह मंगनी का चलन खूब है। हमारे घर की कई चीजें लोग मांग कर ले जाते हैं और उसे इस्तेमाल भी बेदर्दी से करते हैं। इसके अलावा लौटाने की परम्परा है ही नहीं। वे उसे आगे किसी को बांट देते हैं और वह आगे और किसी को। आप को अपनी चीज याद रखनी होती है। अन्यथा अमुक को दी गयी चीज तमुक, घमुक, धमुक से होती हुई अंतत: गायब ही हो जाती है। हमारी कई चीजें इसी तरह गायब हुई हैं।

हम लपेटा पाइप खरीदने के उहापोह में ही थे, कि वरुण देव ने कृपा की। कल सवेरे तेज बारिश हुई और देर तक हुई। सब ओर पानी ही पानी हो गया। ताल तलैया पोखर भर कर ओवरफ्लो करने लगे। गांव की मुख्य सड़क, जो हाईवे से आसपास के आधा दर्जन गांवों को जोड़ती है; वह फिर जलमग्न हो गयी। गांव आवागमन से कट गया पर धान की खेती करने के लिये यह वरदान ही था।

गांव की मुख्य सड़क, जो हाईवे से आसपास के आधा दर्जन गांवों को जोड़ती है; वह फिर जलमग्न हो गयी।

कल रात की आवाज तो बहुत ही अलग थी। मेढ़क, जो बीच में शांत हो गये थे, फिर समवेत स्वरों में टर्राने लगे थे। रेंवा की आवाज उसमें अपना योगदान कर रही थी। मेघाअच्छादित आसमान होने से अंधेरा भी घना था। अंधेरा, पानी और रात की आवाज मेस्मराइज कर रहे थे। मन होता था कि बाहर निकल आसमान तले यूंही चुपचाप बैठे रहा जाये।

आज सवेरे आसमान खुला था। धूप भी निकली थी। सुग्गी का पूरा परिवार – सुग्गी-सुग्गा (उसका नाम राजू है) और उसके दो लड़के तथा धान की रोपाई में मदद के लिये दो-तीन बिरादरी वाले; सब आ गये थे। आज वह धान रोप कर छुट्टी पा जायेगी।

साण्डा के पूले – गठ्ठर बनाता सूबेदार

घर से साइकिल ले कर निकलने पर सूबेदार दिखा। वह बनारस में लॉण्ड्री चलाता है। वहां से कपड़े ला कर गांव में धोता है। उसके अलावा कुछ अधिया पर खेती भी करता होगा। अपनी धोबी बिरादरी में सम्पन्न है। इस बार प्रधानी के चुनाव में भी खड़ा हुआ था। सुबेदार कन्नौजिया साण्डा नर्सरी से निकाले धान के बेहन के पूले (गठ्ठर) बना रहा था। साथ में उसकी लड़की हाथ बटा रही होगी।

साण्डा नर्सरी होने के कारण बेहन के पौधे काफी बड़े और स्वस्थ थे। सूबेदार ने बताया कि अभी कुछ दिन और नर्सरी में रखना चाहिये था; पर बारिश होने और नहरा (नहर) में पानी आने से आज ही रोपाई की सोची है उसने।

धान के बीज एक छोटे खेत में डाले जाते हैं और लगभग बीस दिन में पौधे एक बित्ता लम्बे हो जाते हैं। कुछ किसान सीधे इसी पौध को खेत में रोपते हैं। उस रोपाई में तीन चार पौधे एक साथ रोपने होते हैं। चार पौधे करीब चार चार-छ इंच की दूरी पर लगाने होते हैं। पर अगर बीस दिन के बाद इसी नर्सरी से निकाल पर एक दुगनी बड़े क्षेत्रफल की नर्सरी में पौधे लगाये जायें तो अगले बीस दिन में पौधे लगभग एक फुट लम्बे और स्वस्थ हो जाते हैं। फिर उन पौधों को खेत में रोपा जाता है। तब एक एक पौधा लगभग 9 इंच की दूरी पर रोपा जाता है। इस बीस बीस चालीस दिन की नर्सरी की तकनीक को साण्डा कहा जाता है।

कुछ किसान बीस दिन की नर्सरी वाली खेती करते हैं और कुछ साण्डा वाली। साण्डा तैयार करने में अधिक गणना, अधिक प्लानिंग और अधिक श्रम लगता है, पर उससे बीज कम लगते हैं और पैदावार भी ज्यादा होती है। इसके अलावा किसानों ने मुझे बताया कि साण्डा की पैदावार का धान ज्यादा स्वस्थ होता है; चावल के दाने बड़े होते हौं और धान की कुटाई में चावल टूटता बहुत कम है। पर साण्डा वाली खेती मेहनत मांगती है। उस खेत को पानी की जरूरत भी ज्यादा होती है। सामान्यत: निचली या ताल वाले खेतों में साण्डा खेती की जाती है।

साण्डा के पौधे

मैंने सूबेदार से पूछा कि वो कहां लगायेंगे साण्डा वाले पौधे। उन्होने जो खेत बताया वह नहर के पास था और नीचे की जमीन होने के कारण जलमग्न भी था। … निश्चय ही सूबेदार की धान की फसल अच्छी होगी।

मैल्कम ग्लेडवेल की पुस्तक आउटलायर में एक अध्याय धान की खेती वाले इलाकों में रहने वालों की गणित विषय में दक्षता की बात कही गयी है। चीन और भारत के विद्यार्थी तभी मैथ्स में यूरोपीय और अमेरिकन देशों के विद्यार्थियों से बीस साबित होते हैं। भारत में धान की खेती का लम्बा इतिहास रहा है। गोरखपुर के पास तराई के क्षेत्र लहुरादेवा में तो नौ हजार साल पहले धान की खेती का प्रमाण पुरातत्व वालों ने स्थापित किया है।

साण्डा – धान की खेती का पॉडकास्ट

जब मैंने मैल्कम ग्लेडवेल की उस पुस्तक में पढ़ा था तो आशय इतना स्पष्ट नहीं हुआ था। पर यहां धान की खेती, उसकी नर्सरी बनाना, उसका साण्डा बेहन तैयार करना। खेत के क्षेत्रफल का आकलन कर नर्सरी, साण्डा और अंतिम रोपाई का इलाका तय करना – यह सब सूझबूझ और गणना से ही सम्भव है। मक्का-ज्वार-बाजरा या गेंहू जैसी खेती जैसा नहीं है कि खेत में बीज बिखेर दिये; एक दो बार पानी दिया, निराई की और फसल काटी। धान अनुशासन और उसपर भी साण्डा अनुशासन देखना बहुत रोचक है।

आपको अपने बच्चे को गणित में दक्ष बनाना हो तो उसे साण्डा धान की खेती की दीक्षा देनी चाहिये। 😆


साण्डा अजीब सा नाम है। मुझे याद आता है कि मेरे उड़िया मित्र बीजू पट्टनायक के लिये साण्डा सम्बोधन किया करते थे। बीजू वास्तव में राजनीति में दबंग से – सांड़ की तरह। सांड़ से बना साण्डा। पर धान के इस बेहन तैयार करने की तकनीक को कैसे साण्डा कहा जाने लगा? यह मुझे किसी ने स्पष्ट नहीं किया।


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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

6 thoughts on “साण्डा – धान की खेती

  1. अंग्रेजी में एक पुस्तक है “A Competitive Book on Agriculture’। इसके लेखक हैं नेम राज सान्डा। गूगल महाराज से यह जानकारी मिली। सम्भव है सान्डा नाम की उत्पत्ति का श्रोत यहीं से है। Just a guess.

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  2. यह विधि बच्चों को बचपन और युवावस्था दोनों में ही ध्यान देने जैसा है तभी वह मजबूत वयस्क बनता है। साण्डा शब्द का उद्भव समझ नहीं आया? कोई शब्द सूत्रकार ढूढ़िये।

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    1. मैंने भी साण्डा नाम की उत्पत्ति के बारे में लोगों से पूछा पर कोई बता नहीं पाया.

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  3. हमारी तरफ धन की खेती नहीं होती सो इस बारे में बहुत कम मालूम है. सांडा का तो नाम भी नहीं सुना था. इस रोचक जानकारी के लिए धन्यवाद!

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