गांव में ही फर्नीचर की दुकान खोली है सुमित ने। उनके अनुसार आठ महीना हो गया। मैने बाहर निकलना कम कर दिया है, इसलिये गांव की हलचल पता ही नहीं चलती, वर्ना किराना, चाय, मोबाइल आदि की दुकान से अलग कुछ व्यवसाय प्रारम्भ हो तो पता तो चलना ही चाहिये। यह भी कहा जा सकता है कि उम्र बढ़ने के साथ अपनी खोल में ज्यादा घुसा रहने लगा हूं मैं। बहरहाल सुमित से मिला, जानपहचान हुई और उनकी दुकान देखी – अच्छी लगी दुकान। सुमित भी अच्छे लगे।
मेरी स्टडी चेयर टूट गई थी। कुरसी लिये करीब तीन दशक हो गये। इसस ज्यादा और क्या चलती? फिर भी उसका फ्रेम लोहे के पाइप का है। उसकी सीट और कवर बदलना था, जो सुमित ने करवा दिया। मैने प्लास्टिक/फाइबर की दो और मजबूत कुर्सियां भी उनकी दुकान से खरीदीं। बनारस से वे कुर्सियां सुमित ने मंगवा कर दीं। बहुत कम मार्जिन में सुमित ने मुहैय्या कराईं। उन्होने मुझे कहा कि उनका ध्येय मुझसे मुनाफा कमाना नहीं, सौहार्द-सम्बंध बनाना है। वे अपने ध्येय में सफल हो रहे हैं। मैं कोशिश कर रहा हूं कि सुमित के बारे में लिखूं।

खुद के बल पर खड़े हुये हैं सुमित। पास के गांव रघुनाथपुर के रहने वाले हैं। हाई स्कूल किसी तरह पास किया। आगे पढ़ने की बजाय कुछ काम करने का मन शुरू से था इसलिये स्कूल की पढ़ाई की जगह मन की ही सुनी। कुछ काम करने की सोची। तब एक सज्जन के यहां कार पेंटिंग का काम सीखने लगे। सीखने के दौरान पगार लेने की बजाय सिखाने वाले को (गुरुदक्षिणा की तर्ज पर) देने की भावना मन में थी। पर वे सज्जन समझ जल्दी ही समझ गये कि यह लड़का अगर सीख गया तो इलाके में उनका प्रतिद्वंद्वी हो जायेगा। वहां आगे नहीं सीख पाये तो एक प्रिंटिंग प्रेस में काम किया। फिर सन 2011 में दिल्ली गये।
दिल्ली में मेट्रो रेलवे की एक कंस्ट्रक्शन कम्पनी में श्रमिक के रूप में काम किया। अपनी मेहनत और लगन से हेल्पर से मशीन ऑपरेटर और सुपरवाइजर तक बने। पर छ हजार महीने की नौकरी छोड़ कर पहाड़गंज की एक सोफा बनाने वाली कम्पनी में काम सीखने – करने लगे। वहां छ महीने में पगार 300 रुपया सप्ताह से बढ़ कर 150 रुपया प्रतिदिन की हो गई। “हफ्ते में तीन सौ रुपया क्या होता है? मैं फुटपाथ पर रहता था और मेरा सामान – जो भी था – इधर उधर रखा रहता था। काम से शाम को वापस आने पर रोज यह आशंका रहती थी कि सामान वहीं मिलेगा या नहीं!” – सुमित ने मुझे बताया। पर नया काम सीखने की ललक थी और अपने को खुद के बूते बनाना था, इसलिये सुमित ने वह काम सीखना/करना जारी रखा। और उस जगह को छोड़ा भी तो फोन कर सूचित किया। “आमने सामने की बातचीत में छोड़ना बहुत मुश्किल होता।” उसके बाद ढाई साल जमुना विहार की एक फर्म में काम किया। वहां काम भी किया और अपना हुनर भी निखारा।
“उसके बाद मैं बनारस आया। एक मुस्लिम के यहां काम किया। उसका मुस्लिम नाम तो कुछ और था पर लोगों को बताने के लिये वह राजू था। साल भर वहां रहा पर वह कारखाना बंद हो गया तो रामनगर पड़ाव के एक चौरसिया जी के यहां काम किया। फिर गेलेक्सी अस्पताल के पीछे विश्वकर्मा जी के यहां। मैने अपनी मेहनत और पगार से ज्यादा काम करने की अपनी आदत से तरक्की की।” – सुमित ने बताया कि वह यह सब पहली बार किसी को बता रहे हैं। पहले किसी ने पूछा ही नहीं।… विश्वकर्मा जी को किसी पुराने मामले में जेल हो गई थी। उनकी जेल के दौरान उनका काम भी सम्भाला।
“कई जगहें बदलीं अंकल जी। सब अनुभव स्कूल की लाइफ जैसे हो रहे थे। जैसे बच्चे का एक स्कूल से दूसरे में एडमीशन होता है तो पुराने दोस्त छूट जाते हैं। कुछ बने भी रहने हैं पर कहीं ज्यादा नये बनते हैं – वैसा ही कुछ हर बदलाव पर मेरे साथ होता गया।”
उसके बाद गांव वापस आ कर यहीं काम शुरू किया। लोहरा-क-पुरवा के समीप फर्नीचर की दुकान खोली। दुकान चली।
सुमित की बड़ी माँ ने बात बात में सुमित को कहा कि अगर कमाई हो रही है तो मेन सड़क पर बिस्सा दो बिस्सा जमीन खरीद कर दिखाओ। यहां विक्रमपुर कलां में पाल बेचने वाले थे जमीन। सुमित ने खरीद ली और दुकान नेशनल हाईवे पर स्थानांतरित कर ली। एक कारपेंटरी का व्यवसाय करने वाले द्वारा चालीस लाख की जमीन खरीदना और उसमें फर्नीचर के दुकान का असबाब इकठ्ठा करना गहन उद्यमिता है। सुमित अपने बल पर सफल हुये हैं और उत्तरोत्तर और भी सफल होना ही चाहिये। “अंकल जी, बड़ी मां ने जो कहा था, उसे मैने जब कर दिखाया तो संतोष हुआ कि उनकी बात मैने पूरी कर दी”।
मैने सुमित से एक छोटी स्टडी टेबल बनवाई है और मेरी पत्नीजी ने एक शो-केस। छोटे नग हैं ये फर्नीचर के। पर उनको बनाने में नफासत है। मेरी पत्नीजी की आंखें चमक गई हैं। सुमित अगर उनके मनमाफिक प्रयोग कर डालें; उनके बगीचे के लिये कुछ चिड़ियों के लिये लटकाने वाले घर बनवा दें, कुछ फर्नीचर बनवा दें, एक खाती मुहैय्या करवा दें जो घर के लकड़ी के काम की मरम्मत कर दे… कई विचार रीता पाण्डेय के मन में उठते हैं।

पत्नीजी अपने घर के जरीये अपना हस्ताक्षर बतौर नौदौलतिया नहीं करना चाहतीं; वह करना बूते का भी नहीं है। पर इतना जरूर चाहती हैं कि उनका घर सुंदर और सुरुचिपूर्ण लगे। घर का अपना व्यक्तित्व हो – अपना हस्ताक्षर। सुमित उसको निखारने के लिये सही मौके पर मिले लग रहे हैं। सुमित की दुकान में कारीगरी के नमूने रीता पाण्डेय ने देखे हैं। गांव में उतने अच्छे फर्नीचर की कल्पना उन्होने नहीं की थी। वे काफी प्रभावित हैं सुमित की उद्यमिता से।
तीस साल के सुमित के पास अपनी जिंदगी के बारे में बहुत कुछ कहने को है। एक खुद के पैरों पर अपनी मेहनत के बूते पर खड़े होने वाले के जीवन में कथायें तो जरूर ही होती हैं। पर उनमें से कितना लिखा जा सकता है, यह तो समय ही बतायेगा। मेरे बारे में अपने दादा जी (पत्नी के दादा जी, लालचंद तिवारी) के साथ बातचीत में सुमित ने कहा – “वे (मेरे बारे में) जरूर जमीन से उठ कर बड़े हुये होंगे। नहीं तो किसी में उसके बारे में जानने की इतनी रुचि कोई और नहीं ले सकता”।

सुमित ने मुझे एक छोटी चौकी बना कर दी है। मेरे मन माफिक। उसका प्रयोग मैं बिस्तर पर बैठ लिखने-पढ़ने के लिये करता हूं। उसके पैसे नहीं लिये। “यह आप मेरी ओर से उपहार मानिये”। ऐसी एक चौकी मुझे रेलवे के एक कारीगर ने बना कर दी थी और मैं आज पच्चीस साल बाद भी उसे याद करता हूं। सुमित को भी मैं जीवन पर्यंत याद करूंगा। व्यक्ति की जिस चीज में आसक्ति हो और कोई वह उपहार स्वरूप दे दे तो उस व्यक्ति को कभी भूलता नहीं वह।
लकीर से हट कर जमीन से उठ कर काम करने वाले मिले सुमित मुझे। सुमित पाण्डेय। इस इलाके में बाभन और कोई काम करते मिले हैं पर कारपेंटरी-कारीगरी सीखने और उसे अपना (सफल) उद्यम बनाने वाले सुमित अकेले दिखे मुझे।
शाम के समय रामचरितमानस उस चौकी पर रख कर पढ़ता हूं, सस्वर। और बरबस सुमित की याद हो आती है।

आपका लिखने का तरीका बहुत अच्छा लगा हमें ऐसे ही आप कहानीया लिखते रहिएगा
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जय हो!
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Dear sir, where this Furniture shop is situated? please write the address.
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The shop is near my village at Katka Railway Station (38kms from Varanasi towards Allahabad).
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