गंगा किनारे वह व्यक्ति स्नान कर अपने कपड़े पहन रहा था। करार से उतर उनके पास जा कर चित्र लेने की मशक्कत नहीं की मैने। दूर से ही मोबाइल क्लिक किया। वे तुलसी को सस्वर पढ़ रहे थे – मन जाहि राखे मिलहिं सो बर सहज सुंदर सांवरो… वह खत्म कर उन्होने रुद्राष्टकम पाठ प्रारम्भ किया – नमामीशमीशान निर्वाण रूपम… आवाज उनकी स्पष्ट और बुलंद थी। करीब पचीस पचास मीटर दूर से भी मैं स्पष्ट सुन पा रहा था।
प्रभावशाली लगे वे सज्जन।
पास आ कर अपनी साइकिल सम्भालने लगे तब उनसे बात हुई। एक पखवाड़ा हुआ है नियमित गंगा स्नान करते हुये। उमरहाँ में घर है उनका। करीब चार-पांच किलोमीटर दूर।


दर्जन भर लोगों को जानता हूं गंगा स्नान को नित्य आते हुये। उनमें ये सज्जन भी जुड़ गये। नाम बताया – राकेश मिश्र। ज्यादा बातचीत नहीं हुई। मैने उनके पूछने पर अपना घर का पता बताया। मेरा नाम तो गांवदेहात का मनई जानता नहीं, परिचय में बताया कि बगल में शैलेंद्र का घर है। शैलेंद्र मेरे साले साहब हैं। भाजपा के नेता हैं। रिटायर्ड नौकरशाह की कोई पूछ नहीं, नेता तो आजीवन नेता ही होता है और उसके इलाके में तो उनकी पूछ ही पूछ है। इसलिये रिहायशी परिचय देने में शैलेंद्र का संदर्भ देना ही होता है।
आज वह बताने का ही परिणाम था कि वे सज्जन मेरे घर पर आ गये। उन्होने समाचार भी दिया कि गंगा जी में पानी आज बढ़ा हुआ दिखा। मटमैला भी होने लगा है गंगाजल और कुछ जलकुम्भी भी आ रही है। पीछे कहीं बारिश हुई है।
राकेश जी ने कहा कि अगले दो महीने वे नित्य गंगास्नान स्थगित कर रहे हैं। गंगाजल की प्रवृत्ति बदल जाने के कारण। बरसात खत्म हो जाने के बाद पुन: नियमित होंगे।
घर आने पर मेरी पत्नीजी ने उन्हें चाय पिलाई। चाय के साथ नमकीन रखी थी। राकेश जी ने कहा कि परसों उन्होने बनारस जा कर अपना एक दांत निकलवाया है। इसलिये वे केवल चाय ही पियेंगे, कुछ भी खाने में अभी तकलीफ है।

उनकी उम्र है बासठ साल। पांच बेटे हैं। सबसे बड़ा वापी में किसी ट्रांसपोर्टर के यहां काम करता है। उसकी पत्नी-परिवार भी साथ रहता है। बाकी लड़के भी कामधाम में लगे हैं। बाहर रहते हैं। गांव आते जाते रहते हैं। यहां एक बीघा जमीन है। उसमें परिवार का गुजारा नहीं हो सकता।
मैने कहा – गांवदेहात में जमीन कितनी भी हो, किसानी के बल पर किसी का गुजारा होते नहीं देखा मैने। यह अच्छा है कि कामधाम के लिये वे सब बाहर निकले हैंं। यहां रहते तो भी उन्हें कृषि के अलावा कुछ करना ही होता।”
राकेश जी खुद भी जिंदगी बिताने के कामधाम में किसानी के अलावा ही किये। पहले उन्होने नौकरी की। हिंडाल्को में भी तीन साल काम किया। उसके बाद सन 1981 से उन्होने कपड़ा थोक में खरीद कर फेरी लगा कर काम किया। दस बीस किलोमीटर चल कर सामान बेचना उनकी दिनचर्या रही। महराजगंज के बनिया बजाजा वालों से अच्छा परिचय रहा। उनसे थोक में ले कर घर घर बेचते रहे। यहां उमरहाँ से चंदौली तक भी साइकिल से सामान ले कर जाते थे और वहां आसपास पैदल बेचा करते थे। फेरी के कारण बहुत से लोगों से मिलना हुआ। बहुत परिचय हुआ। कुछ तो अभी भी फोन कर हालचाल पूछते हैं और कपड़ा ले कर आने के लिये कहते हैं। पर यह काम सन 2020 आते आते बंद कर दिया। अब वे घर पर ही रहते थें।
मैने उनसे पूछा कि क्या वे अपनी चालीस साल की फेरी वाली जिंदगी के संस्मरण बता सकते हैं?उन्होने विशेष रुचि नहीं दिखाई। “चालीस साल से यही समझ आया कि लोगों के साथ अच्छे से व्यवहार करना चाहिये और किसी का कभी बुरा नहीं सोचना-करना चाहिये।” – राकेश जी ने कहा।
पांच बच्चों का परिवार नित्य फेरी लगाने से पालना और अपनी सरलता बनाये रखना – कितनी गहरी बात है। बहुत से लोग उससे घिस कर टूट चुके होते। राकेश गंगास्नान, आस्था चैनल सुनना और रामायण-महाभारत सुनना-पढ़ना जारी रखे हैं – यह उनके संस्कार और गंगा किनारे की माटी का ही प्रभाव है, शायद।
साधारण सा वेश – लुंगी की तरह पहनी सफेद धोती, गले में गमछा और कमीज, माथे पर छोटा सा तिलक। उनकी साइकिल भी पुरानी सी है। जिंदगी मितव्ययी ही होगी राकेश जी की। वे भी रिटायर हैं और मैं भी। पर मेरे द्वंद्व, मेरी सुविधाओं के बावजूद कहीं ज्यादा होंगे। मेरी जिंदगी कहीं ज्यादा असंतुष्ट होगी। सब कुछ बाहरी दशा पर नहीं, मन के संतोष-असंतोष पर निर्भर करता है। राकेश के पास वह ज्यादा होगा। चालीस साल फेरी लगा कर जीवनयापन करने वाले सज्जन से सरलता और व्यवहार सीखा जा सकता है।
चलते चलते उन्होने मुझसे पूछा – आपके पास सुरती-तमाकू होगा? चाय के साथ दो प्रकार की नमकीन मेरी पत्नीजी ने आवाभगत के लिये रखी थी। पर राकेश जी को तलब मात्र सुरती की थी। एक छोटी सी चीज हमारे घर में नहीं।
राकेश जी को छोड़ने के लिये मैं घर के गेट तक गया। उनके जाते हुये मन में विचार आया कि घर में किसी के आने पर उन्हें चाय परोसी जाये तो (लौंग-इलायची भले हो न हो) साथ में तश्तरी में एक चुनौटी और सुरती होनी ही चाहिये। क्या ख्याल है आपका?


समृद्ध आजीविका के उपरांत जीवन का अंतिम सोपान अशांत ही रहता है। कम से कम मेरे साथ तो ऐसा ही हुआ है। अभावों में रह कर आवश्यकताएं बहुत न्यून हो जाती हैं। थोड़े में ही काम चल जाता है, चाहे धन हो या सुविधाएं।
सुरती, चूने का विचार त्याग दें। कल को बीड़ी सिगरेट की व्यवस्था करनी पड़ सकती है। फिर जिस कुकर्म से आप दूर हैं, उसे दूसरे को क्यों परोसना?
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प्रसन्नता अपनी जरूरतें कम करने में निहित है। आप सही कहते हैं।
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X पर रणवीर सिंह जी की टिप्पणी –
आपके लिखने की शैली ऐसी है मानो हम सब आपके बहाली में बैठकर ये पूरा वृतांत देख रहे हों। और अंत में खैनी के बारे में लिखा वो परम सत्य बहुत कम लोगो को पता है कि कैसे चाय नमकीन माँगने में संकोच करने वाले बंधु खैनी और बीड़ी सहजता से माँग लेते है।
https://x.com/Ranveer186/status/1808740506467274874
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