<<< पुराने कपड़ों से रजाई बनाने वाले >>>
घर के बगल की महुआरी में आये हैं पुराने कपड़े से रजाई-गद्दे बनाने वाले। तीन दिन से डेरा किया है। मेरी पत्नीजी की सहायिका अरुणा अपने इक्कीस किलो पुराने कपड़ों से तीन रजाइयां बनवा लाई है। उसने हमें बताया तो हम (पत्नीजी और मैं) देखने गये।
महुआरी में एक पुराने महुआ के पेड़ के नीचे दरी बिछा कर अपना उपकरण जमा रखा है मोहम्मद ताहिर ने। उन्होने बताया कि वे हैं तो दरभंगा, बिहार के; पर पुराने कपड़ों से ‘ऊन’ बनाने और उससे रजाई गद्दा बनाने का काम श्रीनगर, कश्मीर में करते थे। ताहिर की भाषा में कश्मीरी पुट है यद्यपि वे स्प्रिंग को सपरिंग नहीं उच्चारित करते।
वे दो लोग हैं। ताहिर यहां महुआरी में बैठे हैं और दूसरा आदमी महराजगंज गया है। वह सेट-अप जमाने की वैकल्पिक जगह तलाशने गया है। अगर इस महुआरी में काम ज्यादा न मिला तो वे कहीं और जमायेंगे अपना तामझाम।
ताहिर के सेट-अप में एक डीजल इंजन से चलती मशीन है। उसमें पुराने कपड़े काट छांट कर फीड किये जाते हैं और दूसरी ओर एक कपड़े के चेम्बर में मशीन द्वारा बना ‘ऊन’ इकट्ठा होता है। उस ऊन को निकाल कर उससे रजाई गद्दे की तगाई ताहिर हाथ से करते हैं। सिस्टम साधारण है, पर भारत की गरीब जनता के लिये यह वरदान हो सकता है। पुराने कमीज, पैंट, लूगड़े, धोती, लुंगी आदि से रजाई बन जाती है। कपड़े से ऊन बन जाता है तो ऊन को स्टफ कर कई चीजें बनाई जा सकती हैं।
दस किलो पुराने कपड़ों से करीब सात आठ किलो फीड बनती है। कुछ कपड़ा – जैसे बटन और मोटी सिलाई का भाग ताहिर काट कर अलग करते हैं। उस हिस्से से ऊन नहीं बनता। सात किलो सही कपड़े से एक बड़ी रजाई बन सकती है। अरुणा इक्कीस किलो कपड़े ले कर गई थी और तीन रजाइयां बनीं – चार पांच किलो ऊन से एक रजाई बनी होगी।
एक किलो कपड़े पर पचास रुपये का मेहनताना चार्ज करते हैं ताहिर। इसमें ऊन बनाना और रजाई-गद्दे के तगाई शामिल है। अरुणा ने इग्यारह सौ दिये थे तीन रजाइयां बनवाने में। इक्कीस किलो पुराने कपड़े और इग्यारह सौ रुपये में तीन रजाइयां – सौदा अच्छा ही मानती है वह।
रजाई की गरमाहट तो निर्भर करती है कि रुई या ऊन में कितनी हवा है। जो ऊन ताहिर ने हमें दिखाई, उससे तो लगता है कि अच्छी क्वालिटी की रजाई या गद्दा बनेगा उससे।
#गांवदेहात के मिनिमलिज्म के साथ यह रजाई बनाने की मशीन बहुत फिट लगती है। गांवदेहात में कोई चीज बरबाद नहीं की जाती। उसका जितना कस निकाला जा सके निकाला जाता है। आसपास के लोगों को पता चले तो बहुत से लोग पंहुचेंगे ताहिर के पास। वैसे भी, इस समय कड़ाके की सर्दी पड़ रही है। धूप नजर ही नहीं आती। दोपहरी में भी ठंडी सुर्रा हवा चल रही है। सबको रजाई की ही याद आती है। मौके पर आये हैं रजाई बनाने वाले ताहिर जी।
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अगले दिन फिर गया महुआरी में। मुहम्मद ताहिर के जोड़ीदार मिले मुहम्मद शमशाद। शमशाद ने और जानकारी दी। उनके जैसी मशीन ले कर अंचल में दो दर्जन समूह घूम रहे हैं। दो नेपाल में हैं, पांच आजमगढ़ में, यहां आसपास भी हैं – महराजगंज, ममहर, जलालपुर, गिर्दबड़गांव…
शमशाद ने कहा कि वे सब एक ह्वाट्सएप्प ग्रुप में जुड़े हैं। आपस में बातचीत भी होती है। इस इलाके से कहीं और जाना होगा तो सब मिल कर तय करते हैं। सभी की मशीनें एक साथ लदती हैं ट्रक में और एक नये इलाके, एक नये प्रांत को निकल देते हैं।
एक मशीन लाख सवा लाख की पड़ती है। मेरे ख्याल से खर्चा मशीन का ज्यादा नहींं; पुराने कपड़े का सदुपयोग और उसे #गांवदेहात तक ले जाने का विचार बहुत काम का है। बहुमूल्य।
तीन औरतें बातचीत करने आई थीं वहां। मोलतोल कर बोल कर गईं कि कल सवेरे तीन चार रजाइयां बनवाने आयेंगी। वे यह आश्वस्त होना चाहती थीं कि शमशाद और ताहिर अभी कुछ दिन यहां ठहरेंगे।
मैं सोचता हूं कि कल फिर जा कर शमशाद-ताहिर का मोबाइल नम्बर ले लूं और अगले पांच छ महीने उनकी घुमंतू जिंदगी को ट्रैक कर लिखने का प्रयास करूं! मजेदर होगा वह!






