मुन्ना पांडे बस ड्राइवर हैं। मेरे साले साहब – पिंकू पंडित (विकास दुबे) की बस चलाते हैं। आजमगढ़ से नागपुर जाने वाली बस उनकी रोज़मर्रा की दुनिया है—दोपहर दो बजे निकलती है और अगले दिन सुबह सात बजे नागपुर पहुँचती है। चौबीस घंटे से कुछ कम का यह समय उनके लिये असाधारण नहीं, बल्कि एक जाना-पहचाना, नियमित सा क्रम है, बहुत कुछ वैसा जैसे बिना प्रयास मैं साइकिल चलाता हूं!
उनकी उम्र साठ के करीब है। शरीर मानक से भारी है, वैसे वे बोले की पहले से वजन कुछ कम किया है। यूं चेहरे पर शिकायत की रेखाएँ नहीं हैं। सर्दियों में ऊनी टोपी और गले में गमछा—यही उनका शृंगार है। वे अपनी उम्र से लड़ते नहीं, उसे स्वीकार करते हुए आगे बढ़ते दीख रहे हैं।
मुन्ना पांडे के घर-परिवार की स्थिति सामान्य है। दो बेटे हैं—बड़ा इंटर कॉलेज में पढ़ाने का काम करता है, छोटा बसों से जुड़ा हुआ है। संविदा के आधार पर सरकारी बस पर लगा है – देर सवेर परमानेंट नौकरी हो ही जायेगी उत्तर प्रदेश परिवहन विभाग में। बेटी की शादी हो चुकी है। मुन्ना पांडे इन बातों को किसी उपलब्धि की तरह नहीं गिनाते, बस इत्मीनान से बताते हैं। जैसे कह रहे हों—ज़िंदगी ने जो दिया, उसे सहेज-सम्हाल लिया गया है।
मैं उन्हें सुनता हूँ और बरबस अपने साठवें साल की ओर लौट जाता हूँ। तब मेरे पास समय की कमी नहीं थी, पर धैर्य की थी। मैं लगातार यह जाँचता रहता था कि क्या सब कुछ ठीक चल रहा है, क्या कुछ और बेहतर किया जा सकता था। यह जांचने की प्रवृत्ति लगभग चौबीसों घंटे मुझे असंतुष्ट और अप्रसन्न बनाती रहती थी। मुन्ना पांडे यह जाँच नहीं करते। वे चलती चीज़ों को चलने देते हैं।
मुझ जैसे लोग, जीवन को उपलब्धियों से मापना सीख लेते हैं, पर अनुभूति से मापना भूल जाते हैं। इस कोण से मुन्ना मुझसे कहीं बेहतर हैं। कहीं ज्यादा सफल और कहीं ज्यादा प्रसन्न। मुख्य तो यह है कि मुन्ना पांडे शायद बेहतरी, सफलता या प्रसन्नता को बहुत प्रयास कर जांचते भी न होंगे!
मुन्ना पांडे जीवन को मैनेज नहीं करते, वे उसे निभाते हैं। और उस कोण से मुझसे कहीं बेहतर हैं।
मैनेजमेंट में नियंत्रण का भ्रम होता है, निभाने में स्वीकृति का साहस। शायद यही फर्क है जो मन को हल्का या भारी बनाता है। यह बात किताबों में नहीं, ऐसे लोगों में दिखती है। भला हो पिंकू पंडित का कि मैं उनके घर सवेरे कउड़ा पर चाय के अनुष्ठान में शामिल हुआ।

सवेरे आठ बजे थे, कोहरा छंटने की जुगत में था। पिंकू पंडित अपने ट्रेवल कम्पनी के सहकर्मियों के साथ अलाव जला कर गपशप कर रहे थे। उन पांच छ लोगों में जो कुर्सी मेरे लिये खाली की गई, उसके बगल में ही थे मुन्ना पांडे। मैं उन्हें नहीं जानता था, पर उन्होने बताया कि वे बहुधा मुझे अपने गांव से साइकिल पर गुजरते देखते हैं।
उनसे बात करते हुए मुझे यह भी महसूस हुआ कि वे भविष्य को लेकर बहुत दूर तक नहीं सोचते। अगले साल, अगले दस साल, या “रिटायरमेंट के बाद क्या”—ये प्रश्न उनके शब्दकोश में नहीं हैं। वे बस इतना चाहते हैं कि आज का दिन ठीक से कट जाए, रात की नींद पूरी हो जाए, और सुबह बस सही समय पर चल पड़े।
मैंने उनका मोबाइल नंबर भी ले लिया है। कोई विशेष कारण नहीं—बस इसलिए कि यह संपर्क बना रहे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे बात करते रहना अच्छा लगता है, भले ही बात का कोई एजेंडा न हो। शायद आने वाले दिनों में उनसे फिर बातचीत होगी—कभी यूँ ही, कभी किसी बहाने। कभी शायद पिंकू के कउड़ा पर चाय के दौरान।
कभी-कभी मन करता है कि एक दिन उनकी बस में बैठूँ। आज़मगढ़ से नागपुर की राउंड ट्रिप लगा कर आऊं।
यह ट्रिप हो – न कोई यात्रा-वृत्तांत लिखने के लिये, न किसी अनुभव को “कंटेंट” में बदलने के लिये। बिना नोट्स लिये, बिना निष्कर्ष निकाले। बस नागपुर तक का सफ़र— किसी साधारण सीट पर बैठकर। खिड़की से बदलते परिदृश्य देखता हुआ, और अपने भीतर चल रही तुलना की आदत को थोड़ी देर के लिये स्थगित करता हुआ।

हो सकता है उस यात्रा में मुझे कोई नई सीख न मिले। और यूं, रेलवे की जिंदगी में पूरा देश घूम आने के बाद नया क्या मिलेगा? पर शायद उस यात्रा से यह समझ गहरी हो जाए कि ज़िंदगी को हर समय सुधारने की ज़रूरत नहीं होती—कभी-कभी उसे बस देखने की ज़रूरत होती है। जैसे मुन्ना पांडे देखते हैं—बिना जल्दबाज़ी, बिना शिकायत के।
संभव है कि नागपुर पहुँचते-पहुँचते मैं यह तय कर पाऊँ कि कौन ज़्यादा संतुलित जीवन जी रहा है—
मुन्ना पांडे या मैं। मैं आईने में खुद को निहारता हूं। पर शायद मैं खुद को नहीं, मुन्ना पांडे सरीखे को देखना चाहता हूं।

एक बार तो नागपुर पढ़कर लगा महराष्ट्र वाले नागपुर की बात चल रही है लेकिन शायद यह उत्तर प्रदेश में है। मुन्ना पांडेय जी से मिलकर अच्छा लगा। आपने उनसे मिलवाया आपका आभार। बाकी नागपुर तक का सफर कर लीजिएगा। ऐसे अनुभव तो लेरे रहने चाहिए।
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हो आइए एक बार आजमगढ़ से नागपुर रूट की यात्रा पूरी कर – अच्छा ही लगेगा – समीर लाल
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😊 🙏
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Hi,Main Hindi content writer hoon.Original content likhta hoon.Sample ready hai.Please DM. 9235989275
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नियति में विश्वास, अतः समर्पण। जीवन जीने का यह सर्वोत्तम सिद्धांत है। इसके लिए वांछित सद्बुद्धि प्राप्ति अति दुर्लभ है। मुन्ना पांडे हम सब (कम से कम ) मुझ से तो बहुत श्रेष्ठ हैं। मन चीता हो गया तो कोई बात ही नहीं, नहीं हुआ तो हरि इच्छा शिरोधार्य!! इससे ऊपर हमारी बिसात नहीं।
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