विदर्भ: मैं विक्तोर फ्रेंकल पर लौटना चाहूंगा


आठ महीने से अधिक हुये मैने विक्तोर फ्रेंकल के बारे में पोस्ट लिखी थी: विक्तोर फ्रेंकल का आशावाद और जीवन के अर्थ की खोज अब जब विदर्भ की आत्महत्याओं नें मन व्यथित किया है, तब इस पोस्ट की पुन: याद आ रही है। विदर्भ की समस्या वैसी ही जटिल है जसे नात्सी कंसंट्रेशन कैम्प कीContinue reading “विदर्भ: मैं विक्तोर फ्रेंकल पर लौटना चाहूंगा”

विदर्भ की आत्महत्याओं का तोड़ (वाकई?)


मुझे झेंप आती है कि मेरे पास विदर्भ की समस्या का कोई, बेकार सा ही सही, समाधान नहीं है। वैसे बहुत विद्वता पूर्ण कहने-लिखने वालों के पास भी नहीं है। सरकार के पास तो नहियंई है। वह तो मात्र कर्ज माफी का पेड़ लगा कर वोट के फल तोड़ना चाहती है। हमारे साथी अधिकारी श्रीयुतContinue reading “विदर्भ की आत्महत्याओं का तोड़ (वाकई?)”

बिजनेस अखबारों की मायूसी


भारत की अर्थव्यवस्था अचानक नाजुक हो जाती है। अचानक पता चलता है कि ढ़ांचागत उद्योग डावांडोल हैं। कच्चे तेल में आग लग रही है। रियाल्टी सेक्टर का गुब्बारा फूट रहा है। यह सब जानने के लिये आपको रिप वान विंकल की तरह २० साल सोना नहीं पड़ता। अखबार २० दिन में ऐसी पल्टीमार खबरें देनेContinue reading “बिजनेस अखबारों की मायूसी”

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