मैं कहां रहता हूं?


अपने पड़ोस के भैंसों के तबेले को देखता हूं। और मुझे अनुभूति होती है कि मैं एक गांव में हूं। फिर मैं बजबजाती नालियों, प्लास्टिक के कचरे, संकरी गलियों और लोटते सूअरों को देखता हूं तो लगता है कि एक धारावी जैसे स्लम में रहता हूं। जब गंगा के कछार से शिवकुटी मन्दिर पर नजरContinue reading “मैं कहां रहता हूं?”

रेलगाड़ी का इन्तजार


मेरी जिन्दगी रेलगाड़ियों के प्रबन्धन में लगी है। ओढ़ना-बिछौना रेल मय है। ऐसे में गुजरती ट्रेन से स्वाभाविक ऊब होनी चाहिये। पर वैसा है नहीं। कोई भी गाड़ी गुजरे – बरबस उसकी ओर नजर जाती है। डिब्बों की संख्या गिनने लगते हैं। ट्रेन सभी के आकर्षण का केन्द्र है – जब से बनी, तब से।Continue reading “रेलगाड़ी का इन्तजार”

रेत के शिवलिंग


दारागंज के पण्डा के दुसमन फिर दिखे। सद्यस्नात। गंगा के जल से गीली बालू निकाल कर अण्डाकार पिण्ड बना ऊर्ध्व खड़े कर रहे थे तट पर बनाये एक घेरे में। मैने पूछा क्या है तो बोले पांच शिवलिंग बना रहे हैं। फोटो लेने लगा तो कहने लगे अभी पांच बना लूं तब लीजियेगा। बनाने में खैरContinue reading “रेत के शिवलिंग”

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