
अमेरिका को गरियाना फैशन है.
आपके पेट में दर्द, कब्ज, बदहजमी है तो अमेरिका को गरियायें. मेकडॉनेल और फास्ट फूड उस की देन है, जिससे यह तकलीफ आपको झेलनी पड़ रही है.
आप विद्यार्थी हैं, परीक्षा में ठीक नहीं कर पा रहे हैं तो अमेरिका को गरियायें. इन्टर्नेट पर इतनी एक्सरेटेड साइट्स वहीं से आई हैं जो आपको भरमाये रहीं और पढने का मौका ही नहीं मिला.
आपका बजट बिगड़ रहा है. क्रेडिट कार्ड का मिनिमम पेमेन्ट भी मारे डाल रहा है – अमेरिका को गरियायें. ललचाने को इतनी तरह की चीजें वह बाजार में न लाया होता तो आपका बैलेंस बना रहता.
लोग स्वार्थी हो रहे हैं – उसके लिये बाजारवाद (यानी अमेरिका)जिम्मेदार है. मौसम बिगड़ रहा है – पर्यावरण दोहन के लिये अमेरिका को कोसें. सारी कमियां विश्ववाद और बाजार (यानी अमेरिका) पर मढ़ कर हम सामुहिक विलाप करें.
इसमें लेटेस्ट है – पत्रकार बेचारों को अखबार की बजाय चिठेरी (ब्लॉगिंग) का माध्यम भी अपनाना पड़ रहा है. अमेरिकी बाजारवाद के चलते अखबार का मालिक उनके मुंह पर पट्टी बांध देता है. जो वो कहे वही लिखना पड़ता है. लिहाजा चिठेरी करनी पड़ती है. अब हिन्दी चिठ्ठों में ऐसा कुछ नजर तो नही आया कि अखबार का मालिक उनके मुंह पर पट्टी चिपका दे. आपको ब्लॉगिंग करनी है तो करें – फ्री है यह. उसके लिये अखबार मालिक/बाजारवाद/अमेरिका को कोसना न जरूरी है, न जायज.
मजे की बात है कि अमेरिका को कोसा जा रहा है; ब्लॉगिंग जस्टीफाई करने को. और ब्लॉगिंग का प्लेटफार्म, फ्री स्पीच का मौका इन्टर्नेट ने दिया है – जो बहुत हद तक अमेरिका की देन है. आप अमेरिका को कोसें, वर्वर राव का महिमा मण्डन करें, टाटा को लतियायें – फ्री स्पीच का प्लेटफार्म है ही इसी के लिये. आप ऐसा करेंगे क्यों कि आप जानते है कि यह सब बिकता है. बाजार को कोसने में बाजार की ही तकनीक!
आइये हम सब मिल कर अमेरिका को गरियाये.
पोस्ट स्क्रिप्ट (जुलाई 4, 2020) – यह पुरानी पोस्ट है। तेरह साल पुरानी। मेरे वामपंथी रुंझान के मित्र ब्लॉगिंग में अमेरिका को हर गलत बात के लिये कोसते रहते थे। आज भी कोसते रहते हैं। वैसे उनका आभामण्डल एक दशक में धूसर हो गया है। पर मीडिया पर उनका अभी भी होल्ड है।
यह पोस्ट उन्ही के प्रत्युत्तर में थी। एक नये नये बने ब्लॉगर का जमे हुये महन्त वाम पंथी ब्लॉगरों को चुनौती जैसा।
अब यह सब लिखना बड़ा सामान्य लगता है। उस समय यह लिखने में बड़ी सनसनी होती थी। दिन भर मन में विचार उमड़ते घुमड़ते रहते थे।

सही लिखा है आपने। अमेरिका में चाहे सौ बुराई हों किन्तु बेचारा पंचिग बैग तो बहुत अच्छा है। आजकल विश्व में जो भी बुरा हो रहा है सब उसीके कारण हो रहा है और जो अच्छा हो रहा है उसके लिये तो हमारे सिवाय और कौन जिम्मेवार हो सकता है? घुघूती बासूती
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Kiya daava analahak ka,hua sardar aalam kaAgar charhta na shooli par,to woh Mansoor kyon hota.Allahabad Nirala ji tak aakar ruk jaata hai…..
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अभय जी, लगता है अंतत: हम में प्रगाढ़ मैत्री होना तय है (unless you think that as scribe you are of much superior lot).आज सवेरे नींद चार बजे खुल गयी थी. कुछ विचित्र ही था कि कम्प्यूटर खोल सीधे आपके ब्लॉग पर गया. और आपको जो टीज़र लिखा, उसमें मुश्किल से १०-१५ मिनट लगा. फिर झपकी भी आई, उसके बाद अपना ब्लॉग भी लिखा. दिन मेरा भी व्यस्त था. पर प्रमोद जी को जवाब देने का समय मैने चुरा ही लिया.प्रमोद जी सिर फुटौव्वल नहीं करना चाहते थे. आप दंगल की बात कर रहे हैं. इसी लिये मैं सोचता हूं कि हमारी मैत्री तय है. मैत्री का प्रारम्भ बहुधा intense conflict in thoughts से होता है.आप और आपका लेखन मुझे बहुत प्रिय है (and believe me there is no game being played by me in saying so). वैचारिक मतभेद अगर व्यक्तिगत आक्षेप से परे हो तो विचारों तथा मैत्री को उर्वरता प्रदान करता है. मैं आपके वैचारिक स्तर पर आपसे रूबरू होने की प्रतीक्षा करूंगा.
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पिछले कमेंट में नज़रांदाज़ को नज़रअंदाज़ पढ़ें..
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लगता है आज आपकी छुट्टी है.. अच्छी बात है..लेकिन मैं थोड़ा व्यस्त हूँ.. आपके साथ दंगल किया जायेगा.. थोड़ा गम खायें..आप इलाहाबादी हैं ..हम ने भी इलाहाबाद में, निराला के इलाहाबाद में शिक्षा ली है.. कोई ताल ठोंके तो पीछे थोड़ी हटेंगे..छोटे को तो नज़रांदाज़ भी कर दें पर बड़ों की उपेक्षा करना ठीक नहीं.. आपकी शंकाओं का निवारण विस्तार से होगा..
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प्रिय प्रमोद जी,अंगरेज को गरियायें जरूर. पर आज के अंगरेज को इसलिये नहीं कि ’तुम्हारे परदादा नें भारत को रौंदा था’. सही बात पर अमेरिका को भी कोसा जाये. अगर वो भारत पर कब्जे की कोशिश करे तो अंतिम सांस तक उससे भी लड़ा जाये. पर अमेरिका को गरियाने की खूंटी न माना जाये – कि जो मर्जी सो टांग दें उसपर.अमेरिका मेरा सगा नहीं है. वरन सगे तो आप हैं अज़दक जी – आपके लेखन का फैन रहा हूं मैं.
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आदरणीय ज्ञानदत्त जी, इस विषय पर आपके साथ सिर फुटव्वल की इच्छा नहीं है। बस यहां इतना याद दिलाना चाहूंगा कि इस देश में आधुनिक शिक्षा और राष्ट्रवाद की धारणा अंग्रेजों की बदौलत आई, तो क्या इसी वजह से भारतवासी मुंह पर पट्टी बांध लेते कि चूंकि अंगरेजन की दया से हमने राष्ट्रवाद समझा है, भइय्या काहे उनको देश से बाहर खदेड़ने का कष्ट दें?
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America hai hi aisa ki hum use gaali dein.Aakhir gaali usi ko dee jaati hai, jo use sunkar gaali dene waalon ke khilaaf isi liye kuchh nahin kahta kyonki usne ‘freedom of speech’ ko badhaawa de rakha hai.Himmat hai kisi ki jo Iran ko gaali de.Himmat hai kisi ki jo Pakistan ko gaali de.Abhi haal hi mein Pakistan mein hi kuchh logon ne ‘sarkar’ ko gaali dee to unka kya hua, ye hum sab ne dekha.Wahan bhi ‘freedom of speech’ hai, lekin uspar ‘sarkar’ ka kabza hai.Vishwa ki saari samasyawon ke liye America hi to jimmedar hai.Nepal aur Bharat mein maowaadiyon ki kartoot, Badhta bazaarwaad, baaki deshon ki ‘sanskriti’ ka vinash aur na jaane kya-kya. Hamare apne desh mein kitne hi log hain jo sabere bistar se uthate hi shuru ho jaate hain.Kisi din hazma kharaab ho jaata hai to turant unhein yaad aata hai ki shaayad aaj America ko gaali dena bhool gaye.Phir kya! Turant gaali dekar apna hazma theek kar lete hain.Waise bhi gaali dene mein aur doosaron ki aalochana karne se shareer mein protein aur vitamin ki kami door ho jaati hai aur aadmi ka swasth achchha rahta hai.Aapka kahna ek dum theek hai.Humein roj neeyam se chaar baar subah aur chaar baar shaam ko America ko gaali dena hi padega.Hamare apne bhale ke liye. Munna
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पाण्डेय जी, हम तो पाकिस्तान को गरियानें में विश्वास रखतें हैं। मेरे घर पर आज पानी नहीं आ रहा और जानते हैं क्यों? पाकिस्तान की वजह से :-)वैसे विचार अतिसुन्दर हैं। वैसे मैं आपकी इस बात से सहमत नहीं हूं कि ब्लॉग्गिं अमेरिका की देन है। इसमें सभी देशों का योगदान है। खासकर यूरोपीय देश अमेरिका से पीछे नहीं रहे।
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बहुत खूब लिखा है पाण्डेयजी।
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