सरकारी अफसर की साहित्य साधना

श्रीलाल शुक्ल सरीखे महान तो इक्का-दुक्का होते हैं.
ढेरों अफसर हैं जो अपनी प्रभुता का लाभ ले कर – छोटे दायरे में ही सही – साहित्यकार होने की चिप्पी लगवा लेते हैं. सौ-सवासौ पेजों की एक दो किताबें छपवा लेते हैं. सरकारी प्रायोजन से (इसमें राजभाषा खण्ड की महती भूमिका रहती है) कवि सम्मेलन और गोष्ठी आयोजित करा श्रीफल-शॉल लेते फोटो भी खिचवा लेते हैं अपनी. फोटो और उसकी रपट प्रायोजित त्रैमासिक विभागीय पत्रिका में छ्प जाती है.
अभी, जितनों को जानता हूं, वे ब्लॉग-व्लॉग बनाने के अभियान में नहीं पिले हैं. मेरे विचार से अभी इसमें मेहनत ज्यादा है, मुनाफा कम. शायद जानकारी का भी टोटा है. जब नारद के चिठेरे १०-१२ हजार पार हो जायेंगे, तब साहब का स्टेनो/सुपरवाइजर उनका ब्लॉग बना कर चमकाने लगेगा. नया भरती हुआ कम्प्यूटर जानने वाला लडका उनके ब्लॉग में चार चांद लगायेगा. साहब तो केवल प्रजा-वर्ग में शान से अपना ब्लॉग दिखायेंगे; जैसे वे अभी अपनी ताजा कविता या पुस्तक दिखाते हैं.
मैं रेलवे में ढेरों साहित्यकार-अफसरों को देख चुका हूं. इनकी पुस्तकें तो १-२ पन्ने से ज्यादा नहीं पढ़ पाया. कुछ मेरे पास अब भी हैं. पत्नी नाक-भौं सिकोड़ती है – “पढ़ना नहीं है तो काहे कबाड़ जमा कर रखा है”. इन अफसरों के प्रभा मंण्डल में शहर के अच्छे साहित्य के हस्ताक्षर, पत्रकार और बुद्धिजीवी आते हैं. बम्बई में तो ऐसे लोगों के आसपास फिल्म वाले भी दीखते थे. इस प्रभा मण्डल पर बहुत कुछ खर्च करना हो, ऐसा भी नहीं है. भीड़ के महीने में एक दो गाडियों में रिजर्वेशन दिला देना, स्टेशन मैनेजर के वी.आई.पी. कमरे में एक कप चाय के साथ ट्रेन के इन्तजार में बैठने का इन्तजाम करा देना जैसे टिलिर-पिलिर काम करने पड़ते हैं. पत्रकारों को तो उनके बनिया मालिकों ने विज्ञापन कबाड़ने का कोटा भी सौप रखा है. अत: टेण्डर नोटिस या ” जहर खुरानों से सावधान” छाप कुछ विज्ञापन दिलवा देने पड़ते हैं. कभी-कभी प्रेस रिलीज से हटकर आन-आफ द रिकार्ड सूचना दे देनी होती है, बस. साहित्यकारों की कुछ पुस्तकें सरकारी खरीद में जोड़नी होती हैं. इसी तरह की छोटी रेवडीयां बांटने से काम चल जाता है.
ऐसे अफसर ज्यादातर विभागीय काम में दक्ष नहीं होते. पर जुगाडू़ बहुत होते हैं. इनका जनसम्पर्क सशक्त होता है. लिहाजा उन्नति भी अच्छी करते हैं. केवल यह जरूर होता है कि इनसे साहिय/समाज/परिवेश को लाभ नहीं होता.
साहित्य में श्रृजक हैं, ईमानदार लेखक हैं, कलम के मजदूर भी हैं. कलम लेकिन जोंक में भी तब्दील हो जाती है – यही मैं कहना चाहता हूं.

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

2 thoughts on “सरकारी अफसर की साहित्य साधना

  1. आपकी बात सही है। सरकारी अफ़सर अगर रसूख वाला हुआ और उसे जरा सा भी साहित्यिक रुझान हुआ तो लोग उसे महान बना के ही छोड़ते हैं।

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