ज्ञानदत्त बड़े परेशान हैं. उस क्षण को कोस रहे हैं, जब संजय कुमार ने उनसे कहा था कि उन्होने “हलचल” वाला ब्लॉग खोज लिया है और टिप्पणी कैसे की जाये? ज्ञानदत्त जी को लग रहा है कि सही रिस्पॉंस होना चाहिये था – “बन्धु, कल राजधानी एक्सप्रेस 20 मिनट टुटुहूंटूं स्टेशन पर खड़ी रही थी ब्रेक बाइण्डिंग में. उसकी जांच–वांच कायदे से कराओ. काम–धाम देखो. ब्लॉग और टिप्पणी का चक्कर छोड़ दो.”
पर जैसा होता है; विनाशकाले विपरीत बुद्धि:! अब देखो ट्रांसलिटरेशन औजार भी इसी मौके के लिये ब्लॉग पर चस्पाँ किया था. संजय ने क्या मस्त टिप्पणी कर दी. बात वहां भी खतम हो जाती. पर मति मरती है तो कम थोड़ी मरती है. पूरी तरह से मरती है. अगले दिन ज्ञानदत्त महोदय ने स्वत: स्फूर्त संजय के गुण गान में पोस्ट बनाई–छापी.
संजय छा गये. ज्ञानदत्त की ब्लॉग जगत में रेल–मोनोपोली ध्वस्त होने के कगार पर आ गयी. और बुरा हो नीरज रोहिल्ला का, जिन्होने स्पष्ट शब्दों में इसकी मांग भी कर डाली. खुद तो सात समन्दर पार बैठे हैं – यहां ज्ञानदत के छोटे से गांव की मिल्कियत पर भी कुदृष्टि गड़ाये हैं.
अरे समझ में तो उसी दिन आ जाना चाहिये था, जिस दिन संजय को अपने ब्लॉग पर गुणगान हेतु चुना. यह तो मालूम था कि संजय रागदरबारी की समझ रखने वाले “गंजहे” हैं और गंजहा किसी भी दशा में किसी से उन्नीस नहीं होता! वैसे भी उनका दफ़्तर सूबेदारगंज जा रहा है, जिसमे नाम में ही “गंज” है. अब, जब संजय की लखनवी अन्दाज की दूकान की “शम्मा हर रंग में जलेगी सहर होने तक”, तब ज्ञानदत्त के पास जल भुन कर राख होने के सिवाय क्या बचेगा?
अरुण, संजय बेंगानी, सत्येन्द्र श्रीवास्तव, प्रेमेन्द्र, शिव, आलोक (ब्रह्माण्ड) पुराणिक, श्रीश, संजीत, रचना और प्रियंकर – सब ने संजय कुमार को मात्र एक मस्त टिप्पणी के बल पर हाथों हाथ लिया. किसी ने यह नहीं कहा: “बन्धु क्या करोगे ब्लॉगरी कर के. वैसे भी वेकेंसियां टिप्पणी करने वालों की हैं. ब्लॉगर बनना बेकार है.”
देर रात को समीर लाल और दर्द हिन्दुस्तानी और दर्द दे गये. उन्होने संजय के लिये और भी जोश दिलाऊ टिप्पणियाँ कर दी. संजय कुमार ने इण्टरकॉम पर कहा है कि वे ब्लॉग डिजाइन के लिये अब ज्ञानदत्तजी के पास आने ही वाले हैं. अपना ब्लॉग चमकदार और धासूं बनाना चाहते हैं. यानी ज्ञानदत्त अपनी मोनोपोली खुद सलाह दे कर खत्म करें! ज्ञानदत्त वर्तमान युग के कालिदास हैं – जिस डाल पर बैठे हैं, वही काट रहे हैं.
और दर्द हिन्दुस्तानी को देखें – संजय को सलाह दे रहे हैं कि अपना इंजन बिना पटरी के न चलाना. मार्डन रखना. यह भी जले पर नमक है. ज्ञानदत्त के पुराने स्टीम इंजन वाला लोगो; जो बिना पटरी के मटकता चलता है; जिसने रवि रतलामी और ममताजी को मोहित कर लिया था; को एक झटके में दर्द हिन्दुस्तानी जी ने कण्डम कर दिया. ठीक है – पुराने को भूलने और नये माडल को सराहने की दुनिया है!
फुरसतिया सुकुल की नामवर सिंह छाप ईर्ष्या का मर्म समझ में आ रहा है ज्ञानदत्त को. फुरसतिया तो पॉलिश्ड ब्लॉगर हैं. नन्द के आंगन से कंटिया, कंटिया से पतंग, पतंग से इण्टरनेट और वहां से दफ्तर तक का प्रपंच रच अपनी ईर्ष्या को हाइटेक जामा पहनाने में सफल रहे. टिप्पणीकार भी ही–ही–ही – फी–फी–फी कर बढ़िया टिपेर गये उनकी पोस्ट पर. पर 7 महीने के ब्लॉगर ज्ञानदत्त को तो वह भाव मिलने से रहा; और न ही वे इतना हाई बैण्डविड्थ का लेखन भी कर पायेंगे – पौराणिक युग से इण्टरनेटीय युग तक वाया हिन्दी साहित्य!
पर भैया, जो हो गया सो हो गया. अब संजय कुमार के ब्लॉग का इंतजार किया जाये! मोनोपोली गयी सो गयी.
चलते–चलते: बहुत देर बाद नीरज जी (खपोली, बम्बई वाले) की ज्ञानदत्त जी को सुकून देती टिप्पणी मिली संजय कुमार पर लिखी पोस्ट पर. टिप्पणी बहुत मस्त है; पर इतनी लेट है कि संजय कुमार तो इसपर गौर करने से रहे!
जरा टिप्पणी देखें:
संजय कुमार जी
देख रहे हैं की बहुत से लोग आप को ब्लॉग लेखन के लिए उत्साहित कर रहे हैं लेकिन हम उनमें से नहीं है हम कहते हैं की आप तिपिआते रहो ब्ल्गों पर लेकिन ख़ुद इस क्षेत्र मैं न कूदो. कारण? अरे भाई सुने नहीं हैं क्या आप की “किंग मेकर कैन नोट बी अ किंग“
इन सारे महाराजा अकबर जैसे ब्लोगियों को आप सा बीरबल भी तो चाहिए. वरना तो ये कुछ भी लिख जायेंगे.
एइसे ब्लॉग लिखने के प्रलोभन हम को हमारे “सो काल्ड ” शुभचिंतकों ने कई बार हमें दिया लेकिन हम अपने इरादों से विचलित नहीं हुए. अरे भाई जो मज़ा किसी के घर बंधी भैंस का दूध चुरा कर पीने मैं है वो भला और कहाँ? ब्लॉग लिखने वाला दिमाग लगता रहे हम तो अपना कमेंट लिखा और फ्री हो जाते हैं .
आप और हम गलती से तकनिकी क्षेत्र से हैं ,लोहे से दो दो हाथ करते हुए ३५ वर्ष हो गए लेकिन न लोहा हमारा कुछ बिगाड़ पाया और न लोहे का कुछ हम तो फ़िर ये ब्लॉग लिखने को कहने वाले आप का और हमारा क्या बिगाड़ पाएंगे ? नहीं ?? अगर आप फिर भी ब्लॉग लिखना चाहें तो भला हम आप को रोकने वाले हैं कौन? लिखो हम तब ये कहेंगे की ” चढ़ जा बेटा सूली पर राम भली करेंगे ” हालांकि इतिहास गवाह है की राम ने कभी किसी सूली पे चढे का भला नहीं किया है .नीरज

ज्ञान दत्त जी की मोनोपोली को कोई खतरा नहीं है. उनके धीर गम्भीर चिंतन मनन और लेखन के सामने हमारी टुक टुक बाजी की क्या बिसात.वैसे भी नौसिखिये के आगमन से उनकी पदवी वेतेरन की हो जाती है.एसी का यात्री केबिन में मखी भी नहीं घुसने देता. बर्थ पर ऐसे लेटता है मनो दादाजी वसीयत में उसीके नाम लिख गए हों.गुरुवर second क्लास में आकर देखिये. अट्ठारह आदमी बैठते हैं एक बर्थ पर. उसके बाद भी उन्नीसवां ६ इंच कोहनी के पीछे सारा शरीर धकेल देता है. और अगला अपनी अनातोमी सिकोड़ कर एडजस्ट भी कर लेता है.फिर उन्नीसवां वहीँ बैठ कर बगल वाले का अखबार भी पढ़ डालता है. वैसे नीरज जी की बात में दम है. जो मज़ा बाहर से समर्थन देने में है वोह सरकार चलाने में कहाँ.महाभारत के समय से संजय का रोल कमेंटेटर का रहा है. कौरव मरें या पांडव हमको तो निर्विकार भव से बस कमेंट मारना है.आज के पोस्ट में पांडेयजी ने वजनी समस्या उठा दी है. गुरुवर आप तो लगे रहें. वज़न बढ़ता है तो कद भी तो बढ़ता है.आपका बिना पटरी का इंजन मस्त चलता है. उसको देख के पता चलता है की चलने में कितनी मेहनत लगती है. आज के इंजन तो effortlessly चलते हैं. मज़ा नहीं आता.आशा है की second क्लास में ही सही,आप हमारी कोहनी भी लिए चलेंगे बाकी शरीर की जिम्मेदारी हमारी.आगे कवि के शब्दों मेंमेरा गीत आज मेरे साथ गुनगुनाओ तुमतुमको गुनगुनाता देख मैं भी गुन्गुनऊँगा मेरा हाथ थाम लो और रास्ता दिखाओ तुम रोज़ रोज़ राह पूंछ्ने तो मैं न आऊंगा.कोहनी के पीछे छिपा संजय कुमार
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वाह खूब मस्त लिखा, मजा आ गया तिस पर अनूप जी की टिप्पणी ने आइसिंग ऑन द केक का काम कर दिया।आप चिंता न करो जी आपकी ज्ञानबीड़ी की लत संजय जी की —- बीड़ी से नहीं छूटेगी।वैसे फुरसतिया जी ने सही कहा यह चिट्ठाकारी तो निन्यानवे का फेर है, जो न फंसा वही सुखी। जो फंस गया वो बेचारा टिप्पणियों और ब्लॉग को हिट करने के चक्कर में दुबला हुआ जाता है।
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‘आप स्टीम इंजन हैं और रहेंगे क्यों की आप हेरिटेज की श्रेणी के हैं जिसकी सवारी के लिए पहले जो लोग चवन्नी नहीं खर्चते थे आज डॉलर देने को तैयार हैं .’नीरज जी से सहमत हूँ। पर–पर हेरिटेज इंजन को भी पटरी तो चाहिये ही ना। :-)
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