यह रीता पाण्डेय की पारिवारिक पोस्ट है। इसका टाइपिंग भर मेरा है। अनूप शुक्ल जी को स्पष्ट करता हूं कि इसमें मेरा टाइपिंग और चित्र संयोजन के अलावा कोई योगदान नहीं है। :-)
ज्ञान की पोस्ट “महेश चन्द्र जी से मुलाकात” में पंकज अवधिया जी टिप्पणी में कहते हैं कि महेश जी अगर निश्छल मन से कुछ लिख देंगे तो मुश्किल में पड़ जायेंगे। पता नहीं मुश्किल में पड़ेंगे या नहीं; पर यह टिप्पणी ऐसे लोगों की निश्छलता की यादें मेरे मन में ला गयी।
निश्चय ही ये साधक और ज्ञानीजन निश्छल और सरल होते हैं। इनका ज्ञान हमें आतंकित नहीं करता। मुझे रतलाम में श्री अरविन्द आश्रम में होने वाले स्वाध्याय शिविर याद हो आये। इस आश्रम में सन १९९० में श्री अरविन्द के देहांश की समाधि स्थापना की गयी थी। देहांश स्थापना के बाद से वहां प्रतिवर्ष स्वाध्याय शिविर ५ से ९ दिसम्बर को आयोजित होता है।
««« प्रारम्भिक वर्षों में ड़ा. हीरालाल माहेश्वरी श्री अरविन्द के किसी लेखन पर अपने व्याख्यान देते और स्वाध्याय का संचालन करते थे। डा. माहेश्वरी अत्यन्त कुशल वक्ता, आकर्षक व्यक्तित्व और बड़े विद्वान थे। वे पॉण्डिच्चेरी के आश्रम में बहुत वरिष्ठ साधक थे। स्वाध्याय के समय उनका प्रवचन और उन्मुक्त ठहाका पूरे परिसर में गूंजता था। वातावरण कभी बोझिल नहीं होता था। (चित्र – ड़ा. माहेश्वरी क्षेत्रीय प्रशिक्षण संस्थान, उदयपुर में प्रशिक्षुओं को सम्बोधित करते हुये।)
माहेश्वरी जी ने स्वाध्याय के दौरान कभी यह बताया था कि किस तरह श्री मां पाण्डिच्चेरी आश्रम की देखभाल करती थीं। वे दिन भर आश्रम में घूमती रहती थीं। छोटी छोटी बातों को समझाती थीं। वे रसोईं घर में खास तौर पर वहां जाती थीं, जहां बर्तन धोये जाते थे। श्री मां लोगों को थाली-चम्मच पोंछना सिखाती थीं। श्री मां ने अपनी देखरेख में बर्तन धोने के टैंक बनवाये। उनके बनाये सिस्टम में साबुन पानी, गरम पानी और ठण्डे पानी से गुजरता बर्तन चमचमाता हुआ निकलता था। माहेश्वरी जी कहते थे कि लोगों को यह आश्चर्य होता था कि इतनी उच्च साधिका छोटी-छोटी बातों पर इतना ध्यान देती है।
बाद में माहेश्वरी जी एक बार हमारे पास उदयपुर आये थे। हमारे घर में दो दिन रुके थे। नहाने के बाद वे अपना कपड़ा स्वयम धो लेते थे। धोने के बाद मैने उनसे कपड़े मांगे – लाइये मैं धूप में फैला देती हूं। उन्होंने कहा – आओ मैं तुम्हें धोती फैलाना सिखाता हूं। उन्होंने बड़ी नफासत से धोती फैलाई। वे मुझे बताते भी जा रहे थे। मैं उन्हें अपलक देख और सुन रही थी – दर्शन शास्त्र में डाक्टरेट, सरदार पटेल विश्वविद्यालय मे श्री अरविन्दो चेयर को सुशोभित करने वाले, महान साधक कितनी सरलता और विस्तार से मुझे धोती फैलाना सिखा रहे थे!
पाण्डिच्चेरी में मैं एक बार श्री माधव पण्डित जी से मिली थी। वे श्री मां के अत्यन्त नजदीक थे। उनकी एक पुस्तक के बारे में ज्ञान ने इस ब्लॉग पर लिखा भी है। उन्होनें भी छोटी छोटी बातें बड़े संयम से बताई हैं – किसी को उधार नहीं देना चाहिये, क्योंकि आप तगादा करेंगे तो उसे अप्रिय लगेगा और शत्रुता भी हो सकती है। अगर आप समर्थ हैं तो उपहार में दे दीजिये। नेकी कर दरिया में डाल का रस्ता अपनायें।
मैं रतलाम के श्री अरविन्द आश्रम में पण्डित छोटे नारायण शर्मा जी से भी मिली थी। वे आश्रम के कार्यों को ऊडीसा में विस्तार दे रहे थे। रतलाम में उनका ढ़ाई घण्टे का व्याख्यान “कुरुक्षेत्र में कृष्ण की भूमिका” पर था। हम पूरी गम्भीरता से डायरी-कलम ले कर बैठे थे। पर व्याख्यान प्रारम्भ होने पर डायरी-कलम अलग छूट गयी। हम सभी ठहाकों के साथ उन्हें सुनने लगे। इतने गम्भीर विषय पर इतनी सरलता से उन्होंने कहा कि आत्मसात करने में शायद ही कोई कठिनाई हुई हो किसी को।
रतलाम आश्रम के संस्थापक श्री स्वयमप्रकाश उपाध्याय जी ने जब श्री छोटेनारायण शर्मा जी से मेरा परिचय कराया तो छोटे नारायण जी ने मुझे कहा – “स्कूल के बच्चों के बीच मुझे बहुत आनन्द आया। आपका बेटा बहुत तीव्र बुद्धि का है। उसने दो-एक प्रश्न मुझसे किये थे।”
हैं मैने छूटते ही कहा – “सर, वह बहुत लापरवाह है। अपना सामान बहुत अस्त व्यस्त रखता है।” उन्होने मुझसे पूछा – “इस संसार में सबसे व्यवस्थित कौन हुआ है?” फिर स्वयम ही उत्तर दिया – “रावण। भला रावण से ज्यादा व्यवस्थित कौन हो सकता है? वह विद्वान था। चक्रवर्ती सम्राट था। महान धनुर्धर था। ज्योतिषाचार्य था। संगीत विशारद था। और वानर-भालू पेड़ों-जंगलों पर पलने वाले और असभ्य जाति। पर श्री राम ने उनकी सेना बना रावण की चतुरंगिनी सेना से टक्कर ली। सभ्यता और असभ्यता की परिभाषा हमारी छुद्र बुद्धि से नहीं बनती। ईश्वर अपने कार्यों के लिये किसे कैसे चुनते हैं – यह हम नहीं जानते। आखिर कृष्ण अर्जुन से कहते ही हैं कि काम तो मैं किसी से भी कैसे भी करा लूंगा। तेरे समक्ष तो अवसर है – निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन!”
ये विद्वान लोग अपने पाण्डित्य से आतंकित नहीं करते थे वरन अपनी सरलता से अकर्षित करते थे।
– रीता पाण्डेय
उक्त वर्णित साधकों की कुछ पुस्तकों का चित्र –

सशक्त लेखन के लिये आभार। दिनेश जी की बातो से भी सहमत हूँ। अब सप्ताह मे तीन दिन ज्ञान जी को बिना पढे गुजारने होंगे।
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भाभीश्री को नमस्कार !यह लेख पढ कर मैं एकदम से ग्वालियर के दिनों एवं वहां कई आश्रमों में मैं जो समय बिताया करता था उनकी याद एकदम ताजी हो गई!लेख के लिये शुक्रिया !!
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“ये विद्वान लोग अपने पाण्डित्य से आतंकित नहीं करते थे वरन अपनी सरलता से अकर्षित करते थे।” बहुत सुंदर पोस्ट लगी…सरलता में जो आनंद है वो बिना सरल हुए नहीं जाना जा सकता…पाण्डित्य अगर व्यक्ति को निर्मल नहीं बनाता तो फ़िर वो काहे का पाण्डित्य है वो फ़िर पाखंड है….नीरज
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मुझे इस पोस्ट में सबसे अच्छा जो लगा वो पांडिचेरी की चर्चा.. अगली बार पांडिचेरी आने पर मुझे जरूर याद किजीयेगा.. क्योंकि आप चेन्नई को छूये बगैर पांडिचेरी नहीं जा सकती हैं.. :)
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भाभी जी को इंस्क्रिप्ट सिखा दें, दो हफ़्ते प्रतिदिन बीस मिनट। पर्याप्त है।
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” ये विद्वान लोग अपने पाण्डित्य से आतंकित नहीं करते थे वरन अपनी सरलता से आकर्षित करते थे।”सारगर्भित.
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बहुत अच्छी बातें बतालईं आपने रीता भाभी जी धन्यवाद !
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uchit baat kahhi aapney…dena utna hi chahiye jise dekar bhulayaa jaa sakey ..deney ke baad mun me dukh kaa bhaav nahi upajnaa chahiye …post acchi lagi
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‘ईश्वर अपने कार्यों के लिये किसे कैसे चुनते हैं – यह हम नहीं जानते’ जैसे टाईप करने के लिये :-)
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रीता भाभी की पोस्टें देख अच्छा लग रहा है और जान ने को भी नया मिल रहा है। आप का उन के लिए टाइप कर्म करना भी अच्छा लग रहा है। लेकिन हम आप की पोस्टों से वंचित हो रहे हैं। लगता है आप भी मेरी तरह व्यस्त हैं इन दिनों और अपनी चिट्ठाकारी के लिए समय नहीं निकाल पा रहे हैं?
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