स्वामी जगदात्मानन्द ने कन्नड़ भाषा में युवकों को नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की तरफ आकर्षित करने को एक पुस्तक लिखी थी। उसका अन्य भाषाओं में अनुवाद छपा। उनकी इस पुस्तक “जीना सीखो” को अद्वैत आश्रम, कोलकाता ने छापा है। उस पुस्तक में एक प्रसंग एक ऐसे किशोर और ऐसे फादर का है जो हमें बताता है कि कैसे भी अपराधी को सुधरा जा सकता है।
यह पढ़ते हुये मुझे अंगुलिमाल और गौतम बुद्ध की याद हो आई। भगवान बुद्ध ने तो अपने मोहक व्यक्तित्व और एक संक्षिप्त वार्तालाप से ही अंगुलिमाल का हृदय परिवर्तन कर दिया था; पर फादर हम लोगों के अधिक नजदीकी रोल माडल बन सकते हैं।
आप कृपया स्वामी जगदात्मानन्द की पुस्तक के संशोधित अंश पढ़ें:
अमेरिका के फादर एडवर्ड जोसेफ फ्लेनगन (१८८६-१९४८) कैथोलिक प्ररम्परा के एक पुरोहित थे। उन्होने उन किशोर अपराधियों को सुधारने का बीड़ा उठाया जो संगठित अपराधियों के कुसंग में पड़कर हत्या, ऊटपाट, हिंसा तथा क्रूरता जैसे कार्यों में लिप्त हो जाते थे। उनके द्वारा स्थापित ’बालनगर’ में सभी जातियों तथा सम्प्रदायों के अनाथ बालक थे। … फादर फ्लेनगन का विश्वास था बच्चों को झिड़की, गाली या सजा के द्वारा नहीं, बल्कि उनके समक्ष एक अनुकरणीय आदर्श चरित्र प्रदर्शित करके ही उनका दिल जीत कर सुधारा जा सकता है। “बालनगर के फादर फ्लेनगन” नामक पुस्तक में वर्णित निम्न लिखित घटना से पता चलता है कि किस प्रकार उन्हें एक अत्यन्त हिन्सक और क्रूर किशोर को सुधारने में सफलता मिली थी।
एड्डी चार वर्ष की उम्र में ही अनाथ हो गया था। आठ वर्ष की अवस्था में वह एक अपराधी संगठन का नेता बनने की योग्यता हासिल कर चुका था।
यह विचित्र बात थी कि उसके दल में बाकी सभी अपराधी उससे उम्र में बड़े थे। यहां तक कि युवकों ने भी इस बालक को अपना नेता मान लिया था। एड्डी ने हत्यायें की थीं। एक चुराई पिस्तौल की सहायता से उसने अनेक होटलों को लूटा। अपनी शक्ति प्रदर्शन के लिये उसने अकेले ही बैंक को लूटा था। एक बार जब वह एक वृद्धा की हत्या करने के लिये गोली चलाने जा रहा था, तब उसे सुरक्षा बल के लोगों ने पकड़ लिया।
जब वह फादर फ्लेनगन के बालनगर में आया तो उसे पुलीस का जरा भी भय न था। वह जान बूझ कर बदमाशी करता, धौंस जमाता, लूट खसोट करता और अभद्र भाषा का प्रयोग करता। वह फादर फ्लेनगन जैसे व्यक्ति के लिये भी बुरे शब्दों का प्रयोग करता। हर चीज को घृणा की दृष्टि से देखता। …. बाल नगर में उसे आये छ महीने हो गये पर उसके चेहरे पर न तो कभी हंसी आयी और न कभी एक कतरा आंसू भी बहा। लोगों को लगता था कि उसमें नख से शिख तक विष ही विष भरा है।
एक रात सोते समय एड्डी कराह रहा था। फादर फ्लेनगन देखते ही समझ गये कि उसे तेज बुखार है। यद्यपि वे एड्डी के उपद्रवों से बहुत कष्ट उठा चुके थे, फिर भी पूरे स्नेह-यत्न से उन्होनें एड्डी की सेवा की। बीमारी से उठने के बाद भी फादर फ्लेनगन और सभी शिक्षक-सहपाठी एड्डी की ओर विशेष स्नेह और सद्भाव दिखाते रहे। वरिष्ठ लड़के उसे मनोरंजन के लिये सिनेमा ले जाते। उसके भोजन पर अतिरिक्त ध्यान दिया जाता। पर एड्डी के चेहरे पर मुस्कान का कोई चिन्ह दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
एक दिन एड्डी फादर फ्लेनगन के कार्यालय में सीधा पंहुच कर बोला – “तो आप लोग मुझे अच्छा लड़का बनाना चाहते हैं? क्या आपको लगता है कि आप सफल होंगे? अभी मैं मेट्रन को लात मार कर आ रहा हूं। इस पर आपको क्या कहना है?”
फ्लेनगन ने दृढ़ता पूर्वक उत्तर दिया – “मुझे अब भी पूरा विश्वास है कि तुम मूलत: एक अच्छे लड़के हो।“
“अभी मैने आपको क्या कहा? इसके बावजूद आप वही झूठ दोहराते जा रहे हैं। आप जानते हैं कि मैं एक अच्छा लड़का नहीं हूं। बारबार झूठ बोल कर आप अपने को झुठ्ठा प्रमाणित नहीं कर रहे?”
फ्लेनगन को लगा कि एड्डी का जीवन एक महत्वपूर्ण मोड़ पर आ गया है। उन्होने एड्डी से पूछा – “बताओ तो एक अच्छे लड़के की क्या पहचान है? यही न कि वह अपने से बड़े का कहना मानता है?”
एड्डी ने हां में सिर हिलाया।
फ्लेनगन ने कहा – “तो वही तो तुम करते रहे हो। परन्तु एड्डी, यहां से पहले तुम्हे अच्छे और भले शिक्षक नहीं मिले। आवारा लोग तुम्हारे मार्ग दर्शक थे। और तुमने उन्ही का कहना माना। तुमने उनका अनुसरण किया और तुम सोचने लगे कि तुम सचमुच बुरे हो। परन्तु तुम अच्छे शिक्षकों का अनुसरण करो तो तुम भी अच्छे बन जाओगे।“
इन शब्दों ने एड्डी के मर्मस्थल का स्पर्श किया। क्षण भर वह मौन सोचता रहा। वह मेज के दूसरी ओर खड़े फादर फ्लेनगन के पास गया। फ्लेनगन ने उसे अपने आलिंगन में भर लिया। एड्डी की आंखों से आंसू फूट कर उसके कपोलों को भिगोने लगे।
दस वर्ष बाद एड्डी उच्च श्रेणी में पास हो कर ग्रेज्यूयेट हो गया। सेना में भर्ती हो कर उसने युद्ध में भाग लिया। उसे विशिष्टता के लिये कई पुरस्कार मिले। अपने मित्र – परिचितों से भी उसे स्नेह – सम्मान मिला। अब वह सबकी नजरों में एक विश्वस्त और ईमानदार व्यक्ति बन चुका था।
ऊपर जो मैने प्रस्तुत किया है; उसमें मुझे दो बातें स्पष्ट होती हैं। एक तो अपना लेखन – फेटीग (writing fatigue )। जो यदा कदा असर करता है – इस समय कर रहा है। और दूसरा यह कि ब्लॉग पर वैल्यू एडीशन के बारे में सोच किसी नतीजे पर पँहुचना जरूरी है। मानवीय मूल्यों को अण्डरस्कोर करना शायद लास्टिंग वैल्यू प्रदान करता है।
पर क्या यह ब्लॉग भी बहुत समय तक रहने वाला है? कौन जाने?!
और, बाबा आमटे को श्रद्धांजलि।
दिल्ली में रेल भवन में सभागार में विभिन्न पुरानी रेलवे के मोनोग्राम के चित्र टंगे हैं। तीन एक साथ टंगे मोनोग्रामों के चित्र का अवलोकन करें। ये साउथ इण्डियन रेलवे, ईस्टर्न रेलवे और साउथ ईस्टर्न रेलवे के मोनोग्राम है। इनमें हाथी, स्टीम इन्जन और बाघ के चित्र हैं। बीच वाले मोनो पर वर्ष लिखा है – १८८४.


ज्ञान जी , “जीना सीखो” से लिया ये अंश उत्साह वर्धक लगा \आप इसी तर लिखते रहिये —
LikeLike
कभी-कभी ऐसा होता है और बाक़ी तो आलोक जी ने कह ही दिया है।
LikeLike
आज इतवार को दुकान खुल गई, गुड है जी।बाबा आमटे का निधन देश की ही नही बल्कि मानवता की एक अपूरणीय क्षति है!
LikeLike
विविधता काफी हद तक लेखन से होने वाली थकान को दूर कर सकती है पर मै इसके लिये तरसते रहता हूँ क्योकि हर्बल के दायरे से बाहर नही निकल पाता हूँ। :)
LikeLike
vyast jiivan kii uthha-patak me aksar dharya kho jaataa hai…is tarah ke prerak prasang kuchh pal aatm munthan ke liye bhi prerit kartey hain…dhanyawaad . ALOK JI ka diyaa sutr bhii munbhaayaa….shukriyaa
LikeLike
सत्य वचन महाराज।लेखन की थकान वाली बात सही है। पर ऐसे प्रेरक प्रसंग रखिये। ये बहुत काम देते हैं। कोई एक बात भी दिमाग में अटकी रह जाये, तो जिदगी बदल जाती है। पहले मैं बहुत छोटी छोटी बातों पर झल्लाता था। बहुत छोटी छोटी बातों पर। एक दिन कहीं पढ़ा-if small things disturb u and make u react, it only tells about the size of your self esteem.गहरी बात थी। अब नहीं ना झल्लाता, सेल्फ इस्टीम का साइज बड़ा करने की कोशिश की।आपके पास इतनी किताबें हैं, इनके अंश ही पढ़वाते रहिये, ब्लाग जमा रहेगा।वैसे फाइनली आपकी मर्जी है। ब्लागिंग स्व को खोज हो, मन की मौज हो, मन करे तो हफ्ते में,मन करे तो रोज हो।
LikeLike
जब भी आप को लेखन फेटीग घेरे आप पठन में चले जाइए। आज की पोस्ट पर अद्वैत का उल्लेख है। यह वेदान्त का मुख्य सिद्धान्त है। आप उपनिषदों के शंकरभाष्य क्यों नहीं पढ़ डालते हैं। लेखन फटीक गायब हो जाएगी।
LikeLike