
मेरी पत्नी और मैं सड़क पर चल रहे थे। पास से एक छ-सात साल का बच्चा अपनी छोटी साइकल पर गुजरा। नये तरह की उसकी साइकल। नये तरह का कैरियर। टायर अधिक चौड़े। पीछे रिफ्लेक्टर का शो दार डिजाइन। आगे का डण्डा; सीधा तल के समान्तर नहीं, वरन तिरछा और ओवल क्रास-सेक्शन का। इस प्रकार का कि साइकल लड़कियां भी सरलता से चला सकें। यही साइकल नहीं; आजकल हमने विविध प्रकार की साइकलें देखी हैं। एक से एक लुभावनी।
मुझे अपने बचपन की याद हो आयी। मेरे पिताजी के पास एक साइकल थी – रेले ब्राण्ड की। उसपर वे लगभग २० किलोमीटर दूर अपने दफ्तर जाते थे। सवेरे साढ़े आठ बजे निकलते थे दफ्तर के लिये और वापस आते आते रात के साढ़े आठ बज जाते थे। साइकल मुझे रविवार के दिन ही नसीब होती थी। उस दिन कैंची मार कर साइकल चलाना सीखता था मैं। उसी तरह बड़े साइज की साइकल सीखी। फिर उछल कर पैर दूसरी ओर करना सीखा – जिससे सीट पर बैठा जा सके। बड़े साइज की साइकल होने से पैडल पर पैर पूरे नहीं आते थे। लिहाजा पैर न आने पर भी चलाने का अभ्यास किया।

गरीबी के भी दिन थे और भारत में अलग-अलग लोगों की आवश्यकता के अनुसार उत्पाद भी नहीं बनते थे। बच्चों के मार्केट को टैप करने का कोई अभियान नहीं था। जितनी भी इण्डस्ट्री थीं, वे जरूरत भर की चीजों को सप्लाई करने में ही हांफ रही थीं। ज्यादातर चीजों की ब्लैक हुआ करती थी। कृषि प्रधान देश होने पर भी हम पीएल ४८० का गेहूं खाते थे; और नेहरू जी की समाजवादी नीतियों की जै जैकार किया करते थे।
मुझे पहला ट्रंजिस्टर रेडियो बिट्स पिलानी में जाने के दूसरे वर्ष में मिला; जो मैने अपनी स्कॉलरशिप के पैसे में बचा कर भागीरथ प्लेस की किसी दुकान से लोकल ब्राण्ड का खरीदा था। उसके बाद ही बीबीसी सुनना प्रारम्भ किया। वह सुनना और दिनमान पढ़ने ने मेरे विश्व ज्ञान का वातायन खोला।
लम्बे समय तक किल्लत और तंगी का दौर देखा हमारी पीढ़ी ने। अत: अब बच्चों को नयी नयी प्रकार की साइकलें और नये नये गैजेट्स लिये देख कर लगता है कि कितना कुछ हम पहले मिस कर गये।
आज के बच्चे भी मिस करते होंगे जो हमने किया – देखा। अपने मुहल्ले की रामलीला के लिये कोई पात्र बनने को कितने चक्कर लगाये होगें उन मैनेजर जी के पास। यह अच्छा हुआ कि मैनेजर जी को हमारी शक्ल पसन्द नहीं आयी। स्कूल के डेस्क के उखड़े पटरे से बैट और कपड़े के गोले पर साइकल ट्यूब के छल्लों को चढ़ा कर बनाई गेंद से हम क्रिकेट खेलते थे। स्कूल में नया नया टेलीवीजन आया था। एक पीरियड टेलीवीजन का होता था, जिसमें सारे खिड़की-दरवाजे और लाइटें बंद कर सिनेमा की तरह टीवी दिखाया जाता था! किराने की दुकान वाला किराये पर किताबें भी दिया करता था। वह इधर उधर जाता था तो मैं उसकी दुकान दस पन्द्रह मिनट सम्भाल लिया करता था। लिहाजा सस्ते रेट पर “किस्सा-ए-रहमदिल डाकू” के सभी वाल्यूम मैने पढ़ डाले थे। उस उम्र में मेरे साथी अपनी कोर्स की किताबें मुश्किल से पढ़ते थे। हमारे बचपन में बहुत कुछ था और बहुत कुछ नहीं था। निम्न मध्यवर्गीय माहौल ने अभाव भी दिये और जद्दोजहद करने का जज्बा भी।
समय बदल गया है। भारत की तरक्की ने उत्पादों का अम्बार लगा दिया है। पैसे की किल्लत नहीं, अपनी क्रियेटिविटी की सीमायें तय करने लगी हैं जीवन के रंग। और उत्तरोत्तर यह परिवर्तन तेज हो रहा है।
कोई बच्चा अपनी नयी साइकल पर सामने से गुजर जाता है तो यह अहसास और गहराई से होने लगता है।
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वर दे वीणावादिनि वर दे! वसंत पंचमी शुभ हो! |
रविवार का लेख – एक और अंगुलिमाल
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साइकिल की सवारी तो हमने भी खूब की है। क्लास ८ से १२ तक साइकिल से ही स्कूल जाते थे। वाह वो भी क्या दिन थे।
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वाकई!!मै आपके मुकाबले तो आज की पीढ़ी का ही प्रतिनिधित्व करता हूं पर इन सब में से बहुत कुछ मैनें भी जीया है, अपनी सायकल गाथा तो दिनेश राय द्विवेदी जी की पोस्ट पर दो दिन पहले ही कमेंट में मैने लिखी थी!!
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जब रेडियो का अलग ब्लाग हो सकता है तो साइकल से जुडे अनुभवो का क्यो नही? आपने पहल की है अब शुरुआत मे देरी कैसी?
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क्या कहें…एक ही दर्द है ..कि हमें साइकिल चलानी नहीं आती…
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आपके जितना बासी तो मैं नहीं हूँ, पर साइकिल मुझे भी मिली थी, दस साल की उम्र में, हीरो जेट। और उन दिनों वास्तव में पुस्तकालयों और किताबों की दुकानों में बहुत समय बीतता था।
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मुझे १० पास करने के उपलक्ष मे पहली साईकिल मिली थी और उसने मेरा पांच साल साथ दिया.. बहुत खट्टी मिठी यादे आपने याद दिला दी चलिये इसी पर होगी अब पुरानी यादो की तीसरी कडी..:)
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तो आप भी गृह विरही हैं -अत्तीत जीवी !!अछा लगा .
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ज्ञान जी मुझे भी सायकिल सीखने वाले अपने दिन याद आ गये । कैंची सायकिल चलाना । चार आने प्रति घंटे की दर से घंटे भर के लिए छोटी सायकिल किराए पर लेना और सीखना । लेकिन फिर ये भी याद आया कि कॉलेज के दिनों में आकाशवाणी के युववाणी कार्यक्रम से कमाए गए पैसों से मैंने अपनी फैशनेबिल स्ट्रीटकैट सायकिल खरीदी थी और मजे मजे से शहर भर का चक्कर लगाता था । आज पैसों की किल्लत कुछ यूं है कि बच्चे सोचते हैं मेरे पास महंगा वीडियोगेम नहीं है मतलब हम ज्यादा ग़रीब हैं । मेरे पास बड़ी कार नहीं है मतलब हम ज्यादा गरीब हैं । ये पॉपकॉर्न गरीबी वाला समय है सर जी । हमारे समय का बचपन अब कभी नहीं आएगा ।
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हमारे बचपन, किशोरावस्था के दिन अभावों के बीच सीखने और सारी दुनियां को जान लेने की ललक और वे अनुभव हमारे बच्चों ने सब कुछ मिस किया है। सोचता हूँ ब्लॉगिंग वह माध्यम है जिस से हम अपने उस इतिहास से कुछ अनुभव नयी पीढ़ी के लिए परोस दें।
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साइकिल का तो सीन ही बदल लिया है जी। अब साइकिल या तो छोटे बच्चे चलाते हैं या फिर सुबह सुबह अखबार डालने वाले हाकर या फिर स्कूटर या बाइक अफोर्ड करने में असमर्थ लोग। मैंने पुरानी फिल्मों में देखा है, कि हीरो भी साइकिल पर चला करता था। हीरोइनें भी साइकिलों के बहाने में एक दो गीत ठोंक देती थीं। पड़ोसन फिल्म में सायराबानू का विकट साइकिल गीत हिट रहा था-मैं चली, मैं चली, प्यार की गली। अब कोई बालिका प्यार की गली में साइकिल से नहीं जाती, साइकिल वाले के पास नहीं जाती। ज्यादा पुरानी बात नहीं है एम काम तक तो मैं भी साइकिल पर जाता था। अब अपने कालेज को देखता हूं। करीब एक हजार बालक बालिकाएं हैं, पर एक भी साइकिल ना है। बीबीसी अब भी सुनते हैं या नही। मैं तो नेट से सुनता हूं।
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