
इस ब्लॉगजगत में कई लोगों को हैली कॉमेट की तरह चमकते और फिर फेड-आउट होते देखा है। और फेड आउट में एक दो जर्क हो सकते हैं पर फिर मौन आ ही जाता है। कुछ ऐसे कि टूथपेस्ट की ट्यूब अंतत: खाली हो जाये!
अपने से मैं पूंछता हूं – मिस्टर ज्ञानदत्त, तुम्हारी ट्यूब भी खलिया रही है क्या? और जवाब सही साट नहीं मिलता। अलमारी में इत्ती किताबें; टीप कर ठेला जाये तो भी लम्बे समय तक खोटी चवन्नी चलाई जा सकती है। फिर रेलवे का काम धाम; मोबाइल का कैमरा, पंकज अवधिया/गोपालकृष्ण विश्वनाथ/रीता पाण्डेय, आस-पड़ोस, भरतलाल, रोज के अखबार-मैगजीनें और खुराफात में सोचता दिमाग। ये सब ब्लॉग पर नहीं जायेगा तो कहां ठिलायेगा?
पत्नीजी शायद इसी से आशंकित हैं कि ब्लॉग पर ठेलना बंद करने पर अन्तत: घर की बातों में फिन्न निकालने लगूंगा। इस लिये वे रोज प्रेरित करती हैं कि लिखो। पर रोज रोज लिखना भी बोरियत बन रहा है जी!
लगता है ट्यूब खाली हो रही है। और दुनियां में सबसे कठिन काम है – एक खाली ट्यूब में फिर से पेस्ट भर देना! आपको आता है क्या?! दिस क्वैश्चन इज ओपन टू ऑल लिख्खाड़ ब्लॉगर्स ऑफ हिन्दी (यह प्रश्न हिन्दी के सभी लिख्खाड़ ब्लॉगर्स के लिये खुल्ला है)!


अभी जीतेन्द्र चौधरी अपने ब्लॉग पर बतौर ब्लॉगर अपनी चौथी वर्षगांठ अनाउन्स कर गये हैं।
तत्पश्चात अनूप शुक्ल भी अपने चार साला संस्मरण दे गये हैं। वे लोग बतायें कि उनकी ट्यूब फुल कैसे भरी है और बीच-बीच में अपनी ट्यूब उन्होंने कैसे भरी/भरवाई?!
खैर, मेरे बारे में खुश होने वाले अभी न खुश हो लें कि इस बन्दे की ट्यूब खल्लास हुयी – बहुत चांय-चांय करता था। हो सकता है कि मेरा सवाल ही गलत हो ट्यूब खाली होने और भरने के बारे में – ब्लॉगिंग रचनात्मकता की ट्यूब से एनॉलॉजी (सादृश्य, अनुरूपता) ही गलत हो। पर फिलहाल तो यह मन में बात आ रही है जो मैं यथावत आपके समक्ष रख रहा हूं।
500 से ज्यादा पोस्टें लिखना एक जिद के तहद था कि तथाकथित विद्वानों के बीच इस विधा में रह कर देख लिया जाये। वह विद्वता तो अंतत छल निकली। पर इस प्रक्रिया में अनेक अच्छे लोगों से परिचय हुआ। अच्छे और रचनात्मक – भले ही उनमें से कोई सतत पंगेबाजी का आवरण ही क्यों न पहने हो! मैं कोई नाम लेने और कोई छोड़ने की बात नहीं करना चाहता। सब बहुत अच्छे है – वे सब जो सयास इण्टेलेक्चुअल पोज़ नहीं करते!
हां; निस्वार्थ और मुक्त-हस्त टिप्पणी करने वाले दो सज्जनों के नाम अवश्य लेना चाहूंगा। श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ – मेरे पिलानी के सीनियर (और मेरी पोस्ट में अपने सप्लीमेण्ट्री लेखन से योग देने वाले); और ड़ा. अमर कुमार – मुझे कुछ ज्यादा ही सम्मान देने वाले!

कोसी पर बहुत लोग बहुत प्रकार से लिख रहे हैं। बहुत कोसा भी जा रहा है सरकार की अक्षमता को। पर सदियों से कोसी अपना रास्ता बदलती रही है। इस बार कस कर पलटी है। कहां है इस पलट को नाथने का तरीका? कहां है वह क्रियेटिविटी? सरकारों-देशों की राजनीति में बिलाई है? जितना खर्चा राहत सहायता में होता है या पर्यावरण के हर्जाने में जाता है, उसी में काम बन सकता है अगर रचनात्मकता हो।
कोसी के शाप का दुख मिटाया जा सकता है इनोवेशन (innovation) से।
(चित्र विकीपेडिया से)
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लेखन की ट्यूब रीचार्जेबल होती है, कुछ दिन बेशक खाली रहे पर जल्द ही दिमाग रीचार्ज कर देता है।बाकी आपकी ट्यूब को ब्रॉंडेड है जी, क्वालिटी के साथ-साथ क्वांटिटी भी बराबर।
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ज्ञान जी अभिवादनरेल परिवार का सदस्य हूँ,इस लिए आपसे कुछ ज़्यादा लगाव था है और रहेगा,वैसे मेरा रेलवे से कोई रोजगारी नाता कतई नहीं,स्टेशन मास्टर का बेटा एस सी एम् का भाई जिसने रोड साइड स्टेशनों पर कमसिनी बिताई ,खैर ये बात तो बाद में होतीं रहेंगी मुझे तो आपकी इस पोस्ट में लग रहा है आप भी “विषय चुक”जाने की बात कह रहें हैं मान्यवर कुछ भी अन्तिम कदापि नहीं , बाबा नागार्जुन के बाद कविता के खात्मे का ऐलान कराने वाले रोजिन्ना अपनी दहलान में बैठ कर कविताई करते नज़र आ रहे हैं आप लेखन को पेस्ट ट्यूब क्यों कह गए मुझे लगता है आज आप मूड में नहीं थे सादर आपका गिरीश बिल्लोरे मुकुल
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अपन तो फटे टायर में पेन्चर लगा लगा के पिछले दस साल से घिसे जा रहे हैं जी, अभी बर्नआऊट नहीं हुआ है, जब होगा तब की तब देखेंगे, अभी से काहे चिन्ता करें! 🙂
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बिल्कुल निश्चिंत रहें आपकी ट्यूब कभी खाली नही होगी और कभी कभार थोडी बहुत गडबडी हुई भी तो भाभीजी हैं न……..हाँ, जब कभी लेखन उबाऊ लगने लगे ,एक रूटीन सा लगने लगे तो बेहतर है कि कुछ दिन के लिए इस से विरत हो रहा जाए.देखियेगा कुछ ही समय बाद एक नई ताजगी और स्फूर्ति के साथ फ़िर से लेखन में वही आनंद आने लगेगा और अनायास बिना प्रयास ही कई विषय नयनाभिराम हो उठेंगे जिनपर बहुत कुछ लिखा जा सके..अपना ब्लाग होने का यही तो फायदा है कि अपनी मर्जी से सबकुछ करो.
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