मैं मुठ्ठीगंज में दाल के आढ़तिये की गद्दी पर गया था - अरहर की पचास किलो दाल लाने के लिये। दाल कोई और ला सकता था, पर मात्र जिज्ञासा के चलते मैं लाने गया।
सामने दुकान के कमरे में दो तख्ते बिछे थे। उनपर गद्दे और सफेद चादरें थीं। दो मुनीम जी वाली डेस्कें रखी थीं गद्दों पर। आढ़तिया जी बैठे थे और तीन चार लोग और थे। किसी को कोई अफरातफरी नहीं। अलसाया सा भाव।
मैने देखा कि कोई लैपटॉप या कम्प्यूटर नहीं था। किसी प्रकार से यह नहीं लगता था कि ये सज्जन कमॉडिटी एक्स्चेंज से ऑन-लाइन जुड़े हैं। एन.सी.डी.ई.एक्स या एम.सी.एक्स का नाम भी न सुना था उन्होंने। कोई लैण्ड-लाइन फोन भी न दिखा। तब मैने पूछा – आप बिजनेस कैसे करते हैं? कोई फोन-वोन नहीं दिख रहा है।
बड़े खुश मिजाज सज्जन थे वे। अपनी जेब से उन्होंने एक सस्ते मॉडल का मोबाइल फोन निकाला। उसका डिस्प्ले भी कलर नहीं लग रहा था। निश्चय ही वे उसका प्रयोग मात्र फोन के लिये करते रहे होंगे। कोई एसएमएस या इण्टरनेट नहीं। बोलने लगे कि इससे सहूलियत है। हमेशा काम चलता रहता है। पिछली बार रांची गये थे रिश्तेदारी में, तब भी इस मोबाइल के जरीये कारोबार चलता रहा।
मैने बात आगे बढ़ाई – अच्छा, जब हर स्थान और समय पर कारोबार की कनेक्टिविटी है तो बिजनेस भी बढ़ा होगा?
उन सज्जन ने कुछ समय लिया उत्तर देने में। बोले – इससे कम्पीटीशन बहुत बढ़ गया है। पहले पोस्टकार्ड आने पर बिजनेस होता था। हफ्ता-दस दिन लगते थे। लैण्डलाइन फोन चले तो काम नहीं करते थे। हम लोग टेलीग्राम पर काम करते थे। अब तो हर समय की कनेक्टिविटी हो गयी है। ग्राहक आर्डर में मोबाइल फोन की सहूलियत के चलते कई बार बदलाव करता है सौदे के अंतिम क्रियान्वयन के पहले।
कम्पीटीशन – प्रतिस्पर्धा! बहुत सही बताया उन सज्जन ने। प्रतिस्पर्धा कर्मठ व्यक्ति को आगे बढ़ाती है। तकनीकी विकास यह फैक्टर ला रहा है बिजनेस और समाज में। यह प्रतिस्पर्धा उत्तरोत्तर स्वस्थ (नैतिक नियमों के अन्तर्गत) होती जाये, तो विकास तय है।
वे तो दाल के आढ़तिये हैं। दाल के बिजनेस का केन्द्र नागपुर है। लिहाजा वहां के सम्पर्क में रहते हैं। उससे ज्यादा कमॉडिटी एक्सचेंज में सिर घुसाना शायद व्यर्थ का सूचना संग्रह होता हो। अपने काम भर की जानकारी थी उन्हें, और पर्याप्त थी – जैसा उनका आत्मविश्वास दर्शित कर रहा था। उनके पास पंद्रह मिनट व्यतीत कर उनके व्यवसाय के प्रति भी राग उत्पन्न हो गया। कितना बढ़िया काम है? आपका क्या ख्याल है?
आढ़त की गद्दी पर बैठ काम करते श्री जयशंकर “प्रसाद” बनने के चांसेज बनते हैं। पर क्या बतायें, “कामायनी” तो लिखी जा चुकी!

बात तो आपकी सही है, तकनीक काम आसान करती है, आसान होने से अधिक लोग काम में आते हैं, बेहतर काम करते हैं और इससे प्रतिस्पर्धा बढ़े ही बढ़े है! आपके आढ़तियेजी को भी कोई अधिक ज्ञान देगा और उनको आवश्यकता महसूस होगी तो वे और अधिक तकनीक का सहारा लेंगे! :)
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सही कहा उन्होंने। बढ़िया काम करते हैं और मस्त जीते हैं। अगर कमोडिटी एक्सचेंजों के चक्कर में पड़ते तो पैसा कमाते या गंवाते, अलग मामला है- सुख चैन जरूर खो बैठते सेठ जी।
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तो आढ़्ती बननें के गुण आपनें सीख ही लिए हैं। भाव-ताव का भी अन्दाजा हो ही गया है। व्यापार भी आपको फायदेमंद लग रहा है। तो धन्धा शुरु करनें में देर क्यों कर रहे हैं? पहला ग्राहक बननें के लिए मै तैयार हूँ। अरविन्द जी को बताये रेट पर १०० कि० भिजवा दीजिए। डिलिवरी पर नकद भुगतान का वादा। होम ड़िलिवरी चार्जेस अतिरिक्त अदा किये जाँएगे। कोई अड़्चन हो तो ०९४५०३४०२९३ पर सम्पर्क कर सकते हैं।
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आप हमारे दर तक आ कर लौट गए और हम अपनी दूकान ही ताकते रह गए :(दाल मंदी मेरे घर से २०० मीटर दूर है अगर पुनः पधारें तो नुक्कड़ के चाय वाले को स्पेशल चाय का पहले से आडर कर रखेंगे -वीनस केसरी 9235407119
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हम , भाततीयोँ के लिये, अरहर की दाल और कान्मायनी दोनोँ ही जीवन मेँ रस लाने के लिये उपयुक्त हैँ – लावण्या
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क्या बतायें, “कामायनी” तो लिखी जा चुकी!यह भी खूब रही :)
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बहुत पहले, दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद के सामने की कोरोनेशन बिल्डिंग में, आढ़तियों को काम करते देखा था तो सर घूम गया था. आपका आढ़तिया तो बिलकुल उसका उलट निकला.
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आढ़त की गद्दी पर बैठ काम करते श्री जयशंकर “प्रसाद” बनने के चांसेज बनते हैं। पर क्या बतायें, “कामायनी” तो लिखी जा चुकी! mere liye to yahi pankti poori post hai..ye pankti aakhir mein bhi sonchne par majboor karti hai waise hi jaise ekta kapoor ke serials ke episode khatm hote hain :) just joking ji..
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कमॉडिटी एक्सचेंज तो सट्टा बाज़ार है माल नहीं है सौदे हो रहे कृतिम कमी दिखाकर कीमत बड़ाई जाती है . सट्टे वाज़ मज़े मार रहे है और बेचारा किसान मर रहा है . उसे तो लागत भी नहीं मिल पाती .
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हम भी सूरत में थे तो एक बार साडी मार्केट में गये …..उस दिन लगा हर व्यक्ति का दाना पानी तय है… ओर कम्पीटीशन से काहे घबराना .
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