फाइबर ऑप्टिक्स की चोरी


यूपोरियन (UPorean – उत्तरप्रदेशीय) परिवेश में अगर संखिया (विष) भी सार्वजनिक स्थल पर हो तो चुरा लिया जायेगा। ऑप्टिक फाइबर केबल की कौन कहे।

Fibreoptic
ऑप्टिक फाइबर केबल

रेल पटरियों के साथ साथ फाइबर ऑप्टिक्स की केबल्स का जाल बिछा है। मेरे अपने सिस्टम – उत्तर-मध्य रेलवे मेँ निम्न खण्डों पर फाइबर ऑप्टिक्स की 24-फाइबर की केबल पटरी के साथ साथ बिछी है:

  • मुगलसराय-इलाहाबाद-कानपुर-अलीगढ़-खुर्जा-गाजियाबाद खण्ड
  • बीना-झांसी-ग्वालियर-आगरा-मथुरा-पलवल खण्ड
  • इलाहाबाद-मानिकपुर-सतना खण्ड
  • आगरा-बयाना खण्ड

यह जमीन में 1.2 मीटर की ट्रेंच में डाल कर बिछाई गई है। इसके चौबीस फाइबर में से चार रेलवे अपनी संचार और सिगनल की आवश्यकताओं के लिये प्रयोग करती है। शेष 20 फाइबर को रेलटेल कर्पोरेशन (यह लिंक की गई साइट इत्ती बेकार है जितनी सरकारी साइट हो सकती है!) कमर्शियल तरीके इस्तेमाल करता है। वह या तो पूरा फाइबर किराये पर देता होगा या फिर फाइबर में उपलब्ध संचार की बैण्डविड्थ बेचता होगा। सेलफोन कम्पनियां यह ऑप्टीकल-फाइबर-केबल (ओएफसी) सुविधा किराये पर लेती होंगी।

इस ऑप्टीकल-फाइबर-केबल (ओएफसी) की चोरी भी होती है। केवल 50-80 रुपये मीटर की यह केबल चुराने के लिये 1.2 मीटर गहरी खाई खोद कर केबल चुरानी पड़ती होगी। मार्केट में बेचने पर कौड़ी भी नहीं मिलती उसकी। फिर भी चोरी की जाती है! महीने में तीन चार केस हो जाते हैं। चोर शायद ताम्बे के तार के लालच में चुराते हैं। उनके हाथ कुछ नहीं लगता, पर हमारे संचार/सिगनल का बाजा बज जाता है। सिगनल फेल होने पर गाड़ियां रुकती हैं। संचार फेल होने पर रेलवे कण्ट्रोल तंत्र गड़बड़ाता है! रेलटेल के किरायेदारों पर कितना फर्क पड़ता होगा – उसका पता नहीं।

Gyan1171-002
श्री आनन्द कुमार

हमारे मुख्य सिगनल और टेलीकम्यूनिकेशन अभियंता (सी.एस.टी.ई) महोदय – श्री आनन्द कुमार [1] ने बताया कि चोरी होने पर यह एक किलोमीटर की रेंज तक में लोकजाइज करना आसान है कि किस स्थान पर चोरी हुई है। पर ठीक करने के लिये टीम सड़क मार्ग से जाती है। लगभग बारह मीटर लम्बाई की खाई में डली केबल निकाल पर नई केबल बिछाई जाती है और दोनो सिरे बाकी केबल से स्प्लाइस कर जोड़े जाते हैं। तब जा कर संचार प्रारम्भ हो पाता है। यह प्रक्रिया पांच-छ घण्टे का समय लेती है। इसके अलावा, ओ.एफ.सी. में जोड़ पड़ने के कारण उसकी जिन्दगी कम हो जाती है, सो अलग!

निश्चय ही यह निरर्थक चोरी रेलवे के लिये बेकार की सिरदर्दी है। मेरा तो मानना है कि रेलवे को अखबार में चोरों की सहूलियत के लिये विज्ञापन देने चाहियें कि “कृपया ऑप्टीकल फाइबर केबल की चोरी न करें, इसकी मार्केट वैल्यू खाई खोदने की लागत से कहीं कम है! ”

पर मुझे नहीं लगता कि रेलवे मेरी बात मानेगी। मालगाड़ी परिचालन के अलावा वह किसी बात में मेरी नहीं सुनती! :)

Optical Fibre


[1]  श्री आनन्द कुमार रुड़की विश्वविद्यालय से इलेक्ट्रानिक्स इंजीनियरिंग पढ़े हैं। उनके व्यक्तित्व को देख मुझे लगता है कि वे अगर रेलवे में न आते तो टॉप क्लास अकादमीशियन होते। पर जो होना होता है, वही तो होता है!

हम भी तो मालगाड़ी के डिब्बे ही गिन रहे हैं! :-(


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

58 thoughts on “फाइबर ऑप्टिक्स की चोरी

  1. @राहुल जी-कोई पता ठिकाना नहीं, अभी भी एक्सप्लेनेशन काल करने की पूरी सम्भावनायें हैं. सरकार के नौकर होकर सरकार पर ऐसा आरोप.
    जल्दी ही आनन्द जी भी ब्लाग लिखते हुये मिल सकते हैं, यदि पाण्डेय जी उन्हें प्रेरित करने में सफल हुये तो.
    पाण्डेय जी ऐसे विद्यालय का रूप लेते जा रहे हैं जहां के छात्र निरन्तर विद्यालय का नाम रोशन कर रहे हों हजार-वाट की हैलोजन रोशनी से..

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    1. मैं तो यही कहूंगा कि सरकारी कर्मचारी के रूप में मर्यादा बनाये रखनी चाहिये और अपनी सीमाओं को सतत तोलते भी रहना चाहिये जिससे अभिव्यक्ति में अण्डरप्ले न हो!

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  2. लैला मजनू का गाना दिया जा सकता है, इसके लिये

    ये फाइबर की तारें, तेरे काम की नहीं, तेरे काम की नहीं।
    कैसे सुनाऊँ, हाल जिगर रेल-चाल का,
    इंजन खड़ा हुआ है, बन के बेहाल सा,
    …..

    शेष कवि की कल्पना, सेवायें फ्री में दे सकते हैं, यूपोरियन संदर्भों में।

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    1. वाह! फाइबर ऑप्टिक्स पर लिखते समय अन्दाज न था कि टिप्पणी में कविता मिलेगी! :)

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  3. चोरों को समझाने की बात पर आपका ही कापीराईट होना चाहिए भाई जी ! वाकई बड़ा सफल होगा यह एड ….आजकल चोर बहुत समझदार है बस टेक्नालोजी में ही थोडा पीछे हैं !
    शुभकामनाएं!

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    1. मेरे विचार में समझदारी के मामले में हिन्दी ब्लॉगर समझदारतम हैं! :)

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  4. चोरो को सलाह है जो मिट्टी खोदे उसे ट्रेक्टर ट्राली मे भर के ले जाये कम से कम ३०० रु. तो मिलेन्गे :-)
    यही तो युपोरियन की विशेषता है … मुफ़्त ऎ माल दिल ऎ बेरहम

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    1. शुक्र है यह ब्लॉग चोर नहीं पढ़ते, अन्यथा आपका बताया आइडिया काम में न लाने लगें! :)

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  5. जहां तक मुझे याद आता है संखिया का उपयोग गेहूँ या चावल के बोरों के भीतर रखने के लिये किया जाता है ताकि उनमें घुन न लगे। अब जहां इस तरह की उपयोगी चीज होगी सो वह तो उड़ा ही ली जाएगी :)

    btw कोई ऐसा संखिया बनाना चाहिये जिसे कि देश के राजनीतिक, आर्थिक और तमाम सिस्टम्स के भीतर रख दिया जाय और वहां भी घुन लगने से बचे तो मजा आ जाए :-)

    वैसे संखिया को नज़दीक से सूँघने पर गंन्धाता बहूत है। सिस्टम में इसे जहां कहीं रखा जायगा अपने आस पास के लोगों को परेशान किये रहेगा और संभवत: उसी के चलते घुन भी न लगने पाये :)

    चोरों के लिये लिखा विज्ञापन मस्त लगा।

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    1. मुझे बताया गया था कि नशेड़ी थोडी थोडी मात्रा में संखिया खाते हैं – पता नहीं सही है या नहीं?

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  6. विष भी चोरी हो जाएगा. बिल्कुल होगा.
    पर जो होना होता है वही तो होता है. बिल्कुल ठीक.
    और अखबार का विज्ञापन आईडिया तो मस्ट मस्त है पर कहीं बढ़ा न दे चोरी. यूपोरियन भाई लोग कहेंगे जरूर कोई बात है रेलवे ऐसे नहीं कह रही है . चलो निकल के देखा जाय.
    मुझे याद आ रहा है. बलिया में मुझसे एक भाई साब ने कहा ऐसे नोट दिखाओगे तो यहीं टपका देंगे तुम्हे. मैंने कहा ५०० ही तो है. बोले ५० रुपये का कारतूस आता है १०० के नोट के लिए भी मार दिया तो ५० तो फायदा हुआ ही उसको :)

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    1. हाहाहा! क्या अर्थशास्त्र है! :)
      इस सन्दर्भ में गिरिजेश राव की मेल में टपकाई टिप्पणी है –
      @ यूपोरियन (UPorean – उत्तरप्रदेशीय) परिवेश में अगर संखिया (विष) भी सार्वजनिक स्थल पर हो तो चुरा लिया जायेगा

      इसे थोड़ा आगे बढ़ायें – यूपोरियन को फोकट में मिले तो जहर भी खा ले।
      ———-
      और जिस तरीके से भण्डारे में लोग टूट पड़ते हैं, उससे तो यही लगता है! :)

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  7. “कृपया ऑप्टीकल फाइबर केबल की चोरी न करें, इसकी मार्केट वैल्यू खाई खोदने की लागत से कहीं कम है! ”
    आगे कभी चोर लोग भी अपने लिये न्यूनतम वेतन के हिसाब से सरकार से हर्जाने का दावा न करने लगें। कहें- आप चोरी के प्रयास का मुकदमा बेशक चलाइये हम पर जब सजा होगी भुगत लेंगे लेकिन अभी तो हमारा मेहनत के पैसे का भुगतान कीजिये हमें। :)

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    1. और मेहनत का भुगतान करने पर टप्प से वह चोर भाई सरकारी नौकरी मांगने लगेगा! :)

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  8. ”इत्ती बेकार है जितनी सरकारी साइट हो सकती है!” सरकारी आदमी द्वारा यह सरेआम लिख सकने की छूट शायद भारतीय लोकतंत्र में ही संभव है.

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    1. सरकारी साइट्स में बनाने और अपडेट करने में दक्षता नजर नहीं आती। शायद हम इण्टरनेट पर उपस्थिति के बारे में सचेत नहीं हैं। अन्यथा टेलीकम्यूनिकेशंस जैसे क्षेत्र के कमर्शियल ऑर्गेनाइजेशन की साइट पर उसके अधिकारियों के चित्र की जगह गवाक्ष लगे हों और कई पन्ने डेवलप ही न किये गये हों – मसलन न्यूज लैटर का पन्ना बना हो पर ब्लैंक हो!!
      और आप मुझसे ब्लॉग पर सरकारी अर्धशासकीय पत्र की शुष्क भाषा में सम्प्रेषण की अपेक्षा तो नहीं करते न! :)

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