यह पास का कस्बा – महराजगंज कैसे पनपा? कैसे इसका बाजार इस आकार में आया? यहां रहने वाले पहले के लोग कहां गये? बाजार ने कौन से लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया। यातायात के साधन बाजार को किस तरह विकसित करते गये? … ये सवाल मेरे मन में आजकल उठ रहे हैं।

मेरे बचपन में (मेजा तहसील, प्रयागराज के मेरे गांव में) एक, दो दुकाने हुआ करती थीं। फत्ते की और बिसुनाथ की। ज्यादातर वे पैसे के बदले नहीं, अनाज के बदले सामान देती थीं। बच्चों के रूप में हमें तो बताशा, गट्टा, लेमनचूस की ही याद है। आजी (या नानी) एक भंउकी (बांस या सरपत से बनी टोकनी) में अनाज देती थीं और उसके बदले ये सामान ले आया करते थे। बार्टर सिस्टम।
ज्यादा समय नहीं हुआ उसको। करीब पचास साल। गांव की एक या दो दुकानें और कस्बे का बाजार – उनमें कोई लिंक रहा होगा। कस्बे की दुकान गांव की दुकान को फीड करती रही होगी। वैसे कस्बे में भी बहुत विस्तृत बाजार नहीं हुआ करता था। गांव में आत्मनिर्भरता का स्तर बहुत अधिक था। पैसा भी नहीं था और जरूरतें भी सीमित थीं।
अब भी गांव में दुकाने हैं पर ज्यादातर ग्रामीण कस्बे की ओर चले जाते हैं। सड़कें ठीक हो गयी हैं और वाहन भी बेहतर हो गये हैं। पहले इक्का या बैलगाड़ी हुआ करती थी। किसी रईस के पास घोड़ा होता था। बैलगाड़ी सड़कों के गड्ढों में फंस जाया करती थीं और उनके चक्के निकालने के लिये मशक्कत करनी होती थी। बाद में साइकिल आयीं – उन्होने वैसी ही क्रान्ति की, जैसी 70-80 के दशक में शहरों में लूना ने स्त्रियों की आजादी को ले कर की। विवाह में दहेज में मिलने लगा साइकिल, ट्रान्जिस्टर और घड़ी। इसने रहन सहन भी बदला और बाजार का स्वरूप भी। कस्बाई बाजार सुदृढ़ हुये। गांव से कस्बाई पंहुच ज्यादा सुलभ हो गयी। पहले गांव से कस्बे को जाने का मतलब एक दिन का पूरा प्रॉजेक्ट था; अब दिन में कई फेरे लगाना आसान हो गया। बाजार मैं सामान भी बहुत बढ़ गये। अर्थव्यवस्था पुष्ट हुई और बाजार मजबूत होने लगे।

अब कस्बे का बाजार देखता हूं तो बहुत कुछ शहरी बाजार सा लगता है। ज्यादातर चीजें ब्राण्डेड हैं। उत्तरप्रदेश की नहीं, अन्य प्रांतों और महानगरों की बनी। स्थानीय कारीगरों की बनी वस्तुयें शहरी बाजार के अनुपात में कस्बाई बाजार में ज्यादा हैं। पर कस्बे में भी, स्थानीय कारीगरों का सामान धीरे धीरे शहरी उत्पाद से रिप्लेस होता जा रहा है।

आज महराजगंज बाजार के किनारे एक छोटी – करीब बारह साल की लड़की को अमरूद की परात लिये बैठे देखा मैने। अमरूद कहीं आसपास के बाग बगीचे के होंगे। लड़की शायद खुद तोड़ कर लाई हो। अच्छा लगा कि यह कस्बाई बाजार एक छोटी लड़की को भी जीविका कमाने की सहूलियत दे रहा है। वह सड़क पर एन्क्रोच कर रही है। पर उस अतिक्रमण को यहां कोई बहुत नोटिस नहीं करता या खराब नहीं मानता। दिन में, जब बेचने वाले और ग्राहक बहुत बढ़ जाते हैं तो बाजार के बीचोंबीच सड़क पर चलना कठिन होता है। बहुत घिचिर पिचिर होती है। मछली बाजार जैसा शोर और भीड़।
कस्बे का बाजार का नक्शा बड़ा सीधा सादा है। नेशनल हाई वे के एक ओर चौरी की ओर जाती सड़क पर दोनों ओर दुकाने हैं। सड़क चौड़ी है, पर उसपर पेवमेण्ट पर अतिक्रमण करती दुकानें या दुकानों के एक्स्टेंशन सड़क को दिल के मरीज की धमनियों जैसा संकरा बना देते हैं। दिल के मरीज की तरह बाजार हांफता है – पर मरेगा नहीं, यह पक्का है।

क्या वास्तव में नहीं मरेगा? कल और आज फ़्लिपकार्ट और अमेजन के बड़े विज्ञापन देखे। उनके करोड़ों ग्राहक हैं और लाखों विक्रेता। महराजगंज बाजार में 3-4 सौ से ज्यादा विक्रेता नहीं होंगे – छोटे, बड़े, ठेला, फेरी, पटरी, गुमटी सब मिला कर। यानी ऑनलाइन साइट्स हजारों कस्बों से बड़ी हैं। हर एक छोटा-बड़ा आदमी स्मार्टफोन ले कर घूम रहा है। बाजार तो उसके मोबाइल में समा जा रहा है। कस्बे का बाजार रहेगा? किस तरह से रहेगा?
मेरे मन में सवाल उठा कि यह कस्बाई बाजार आज से 50-100 साल पहले कैसा था?
महराजगंज बाजार में इक्का दुक्का मेरे मित्र हैं। माणिक सेठ, जिनकी दुकान शुरू में ही पड़ती है और जो काफ़ी टेक-सेवी हैं – फेसबुक, ट्विटर पर हैं और पेटीएम, गूगल गो के वेलेट अकाउण्ट मेण्टेन करते हैं; से मैने पूछा – पहले कैसा था यह बाजार?

“मेरे दादाजी यहां बाबातपुर के पास से आये थे। तब यहां चार गल्ला, एक कपड़ा और एक सुनार की दुकान हुआ करती थी। जीटी रोड से काफी हट कर थीं। ज्यादातर व्यवसाय केजा (बार्टर) आधारित था। पैसा बहुत कम चलन में था। दादाजी 3-4सौ का सामान ले कर दक्षिण (मिर्जापुर के आगे – रॉबर्ट्सगन्ज/सोनभद्र) जाया करते थे। ट्रेन से या किसी बस से। इक्का-दुक्का बसें चलती थीं। वहां साप्ताहिक हाट में अपना सामान बेच कर औरबदले में सामान या गल्ला ले कर लौटते थे। जहां हमारी दुकान है – वहां मुसलमानों (अंसारी, कुरैशी या इसी तरह की अन्य बिरादरी वाले) या खटिकों की बस्ती थी। 150 रुपये में जमीन खरीदी थी दादाजी ने दुकान के लिये। सन 1975 में यह दुकान खुली। अब आप मेरी दुकान – बाला जनरल स्टोर को गूगल सर्च कर पा सकते हैं।” – माणिक ने मुझे बताया।
माणिक सेठ ने प्रारम्भिक जानकारी बहुत दी मुझे। यह महराजगंज बाजार पहले था ही नहीं। दो गांवों – हुसैनीपुर और कंसापुर की जमीन पर बसा है। पहले केवल महराजगंज का डाकखाना हुआ करता था। डाकखाने की ओर शिव मन्दिर और पोखर है। वह किसी मारवाड़ी ने 1955 में बनवाया था।
“महराजगंज के पहले प्रधान थे कोई भोलानाथ पांडे। अब उनका परिवार यहां नहीं बचा। उन्होने शुरू कराया था भरतमिलाप की झांकी (लाग)। उसके बाद एक नाम आता है भगेलू प्रधान (चंद्रभान) का। आगे जा कर राजकुमार सेठ से मिल सकते हैं आप पहले की जानकारी के लिये। वृद्ध हैं। फुर्सत में बैठे रहते हैं। आराम से बतियायेंगे और इतिहास बतायेंगे…”
हमारे फैमिली-ज्योतिषी श्री कमलेश त्रिपाठी मुझे कहते हैं कि आगे के समय में मेरे लिये बहुत गतिविधि है, बहुत व्यस्तता रहेगी। शायद स्थान भी बदले। गांव की बजाय शहर या किसी अन्य जगह रहना पड़े।
मैं सोचता हूं कि विशुद्ध रिटायर्ड लाइफ जीता हुआ मैं गांव-देहात भर में ही रहूंगा। पर त्रिपाठी जी का कहना है कि फलाना-फलाना ग्रह-चाल मुझे यहां चुपचाप रहने नहीं देगा। उनकी चली तो पता नहीं क्या करूंगा।
ग्रह चाल की तो नहीं कह सकता; अपनी चली तो यहां शान्ति से महराजगंज के बदलते स्वरूप पर अपनी साइकिल उठा, लोगों से मिल-बतिया कर अपनी जानकारी/सोच पुख्ता करूंगा। मैं चाहता हूं कि मेरी दूसरी पारी का दायरा 10-20 किलोमीटर में रहे, भौतिक रूप में और इसी दस-बीस किलोमीटर के माध्यम से वैश्विक परिवर्तन-जीवन को देख-समझ सकूं मैं!
इस स्थान के सुकून, पुस्तकों का सानिध्य और साइकिल से भ्रमण के माध्यम से वह सब देखना चाहता हूं जो दुनियां में चक्रवात की तरह नाचते लोग नहीं देख-समझ पाते।
अगर मेरे मन माफिक जिन्दगी चली तो महराजगंज कस्बे पर मानसिक हलचल लम्बी चलेगी। इन्शाअल्लाह!
One thought on “महराजगंज के कस्बाई बाजार पर फुटकर सोच”