कूल्हे की हड्डी टूट गई है आत्माराम तिवारी जी की. उम्र भी चौरासी साल. सूर्या ट्रॉमा सेंटर के एमरजेंसी वार्ड में बिस्तर पर पड़े हैं. मेरे पिताजी के बगल में.
उनके साथ आए लोग तो उनकी उम्र 95 – 96 बताते हैं. पर उम्र इन्फ्लेट कर बताना तो इस इलाके की परम्परा है. वर्ना, उन्होंने खुद ही बताया कि सन 1995 में स्कूल मास्टरी से साठ साल की उम्र में रिटायर हुए थे. यूं चौरासी की उम्र भी कम नहीं होती. पर जो झांकी नब्बे पार का बताने में बनती है, वह ज्यादा सुकून दायक होती है. महिला की उम्र कम और वृद्ध की ज्यादा बताने की परम्परा शायद भारतीय ही नहीं, वैश्विक है.
खैर, उम्र की बात छोड़ आत्माराम जी के वर्तमान की बात की जाए. उनकी कूल्हे की हड्डी टूटी है पर वे पूरी तरह चैतन्य हैं. स्कूल मास्टर रह चुके हैं तो बोलने में उनका हाथ खुला है. पर्याप्त. लगभग अनवरत बोलते हैं.

मैं, इमर्जेंसी वार्ड में सवेरे घुसते ही पिताजी की ओर पंहुच पाऊँ, उससे पहले ही वे मुझसे जोर जोर से बोलने लगे. एक वृद्ध पर आकर्षक चेहरा. बड़ी बड़ी पूरी खुली आंखें. पड़े होने पर भी पर्याप्त कशमकश करता शरीर… बरबस मुझे “बाण भट्ट की आत्म कथा” के एक चरित्र की याद हो आई. अगर मेरी लेखनी में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की प्रतिभा होती तो आत्माराम जी पर एक जानदार लेख लिख ही मारता.
वे मुझसे चाहते हैं कि उनकी हांथ की बंधी उँगलियाँ खोल दूँ.
रेजिडेंट डाक्टर साहब से पूछा उनके बारे में. वे बोले – रात भर में माथा खा गए हैं वे. कहते हैं हाथ खोल दो. अगर खोल देते हैं तो सब कुछ नोच नाच कर फैंक देते हैं.

एक वार्ड ब्वाय को वे आवाज दे कर बुलाते हैं. वह आत्माराम जी के गांव (उगापुर) का ही है. वह उलाहने की भाषा में जवाब देता है – एतना उबियवाये हयअ. तोहरे लग्गे न आउब (इतना परेशान कर दिया है आपने कि आपके पास नहीं आऊंगा).
अपने तीमारदारी में लगे लोगों से भी वे पूछते रहते हैं – कहो, ऊ उरदिया देहेस कि नाहीं? (अरे बताओ उस अधियरे काश्तकार ने उड़द दी है कि नहीं)… एक गाय है उनके पास गांव में. उसकी भी चिंता उन्हें है और हर किसी गाँव वाले से पूछते हैं कि गाय बंधी है या छुट्टा घूम रही है. अशक्त, कूल्हे की हड्डी जोड़ने का ऑपरेशन कराए लेटे चौरासी वर्षीय पंडित आत्माराम तिवारी का मन गांव देहात, घर, उड़द और गाय में घूम रहा है. उन्हें एक बंधुआ श्रोता चाहिए पर लोग पगहा छुड़ा भागते हैं.
मैं पूछता हूँ – कितनी खेती है? बड़े मॉडेस्टी से वे बताते हैं कि ज्यादा नहीं है. आठ बीघा है.
आठ बीघा और रिटायर्ड मास्टरी की पेंशन! पंडित जी गांव के हिसाब से बहुत संपन्न हैं. मैं उनसे ऐसा कहता हूं, पर वे अपनी विनम्रता व्यक्त करने में लग जाते हैं. अचानक उन्हें याद आता है कि उनका हाथ बंधा है. वे मुझसे अनुरोध करते हैं – तनी हथवा खोलि द (जरा हाथ खोल दीजिए मेरा).
अपनी साफ सफाई को लेकर भी परेशान हैं आत्माराम जी. एक रिश्तेदार को कहते हैं – एक बाल्टी पानी होता तो नहा लेता.
मेरी पत्नी और मैं जितना समय अपने पिताजी को देखने में लगाते हैं एमरजेंसी वार्ड में, उतना या उससे ज्यादा समय पंडित आत्माराम जी के साथ व्यतीत करते हैं. रोचक चरित्र हैं पंडित जी!
