सत्ताइस जनवरी 2012 को प्रकाशित की थी कन्द मूल बेचने वाले पर पोस्ट. उस पोस्ट पर एक टिप्पणी है – “राजा पिएं गांजा, बीड़ी पिएं चोर. चू** खाएं तंबाखू, थूंके चहूं ओर.” उससे लगता है कि (कम से कम ग्रामीण समाज में) गांजा को एक सीमा तक रिस्पेक्ट प्राप्त है, जो बीड़ी, खैनी या तंबाखू को नहीं मिलती.
गांजा अवैध है पर गंजेड़ी व्यापक हैं. निश्चय ही उन्हें गांजा नित्य प्रति मिलता ही है. और मिलने का माध्यम इतना कठिन नहीं होता होगा, जितना हमें लगता है.
प्रयाग में तो मैंने गंजेड़ी देखे नहीं थे. यह जरूर सुना था कि शिव कुटी के पास गंगा किनारे सुन्दर बगिया में उनका अड्डा जमता है…. पर गांव में आने के बाद चिलम भी देखी और गांजे की पुड़िया भी.

मंगल गिरि ने उसे चिलम में लोड कर सुलगाने का डिमॉन्स्ट्रेशन भी मेरे सामने किया था. सिद्घिनाथ मंदिर पर एक गंजेड़ी मुझ से इस लिए उखड़ गया था कि मैंने उसका चित्र ले लिया था. वह उखड़ा ही रहा और मैंने चित्र अपने मोबाइल से हटाया नहीं. बाद में एक सज्जन ने मुझे ज्ञान दिया कि गंजेड़ी वैसे निरीह जीव होता है. डरपोक. वह हिंसा नहीं करता. पता नहीं यह सच है या नहीं, पर किसी गंजेड़ी को मार पीट करते नहीं पाया मैंने. शराबी वैसा करते हैं.
सिद्धिनाथ मंदिर के जोगी बाबा पर पोस्ट का अंश – चाय के अलावा लोगों के आने-जुटने का दूसरा आकर्षण है चिलम! गांजे का एक दो कश ही पर्याप्त हैं लोगों को सेवावृत्ति से जोड़ने के लिये। … मैं बाबा की चिलम की वृत्ति को अनदेखा करता हूं। मन में याद करता हूं शेगांव के गजानन महराज की चिलम से धुआं निकालती तस्वीर की। भोलेनाथ का प्रसाद है यह!
गांजा के विषय में सटीक या अनर्गल बहुत लिखा जा सकता है. खैर, आप 2012 की पोस्ट पढ़ें, जिसमें कन्द मूल फल भी है और गांजा भी. पोस्ट यथावत रीप्रोड्यूज की है नीचे –
वह लड़का बारह-तेरह साल का रहा होगा। एक जैकेट और रफू की गई जींस का पैण्ट पहने था। माघ मेला क्षेत्र में संगम के पास सड़क के किनारे अखबार बिछा कर बैठा था। खुद के बैठने के लिये अखबार पर अपना गमछा बिछाये था।
वह कन्दमूल फल बेच रहा था। सफेद रंग की विशालकय जड़ का भाग सामने रखे था और पांच रुपये में तीन पीस दे रहा था। बहुत ग्राहक नहीं थे, या मेरे सिवाय कोई ग्राहक नहीं था।
मैने कौतूहल से पूछा – क्या है यह?
कन्दमूल फल। उसके अन्दाज से यह लगता था कि मुझे रामायण की समझ होनी चाहिये और जानना चाहिये कि राम-सीता-लक्षमण यह मूल खाते रहे होंगे। कौतूहल के वशीभूत मैने पांच रुपये में तीन पतले पतले टुकड़े – मानो ब्रिटानिया के चीज-स्लाइस हों, खरीद लिये। पूछा – और क्या बेच रहे हो?
उसके सामने दो तीन और सामान रखे थे। छोटी छोटी खूबसूरत चिलम थीं, पीतल के लोटे थे और दो कटोरियों में कुछ पत्थर जैसी चीज।
वह बोला – चिलम है। फिर खुद ही स्पष्ट करता बोला – वह जिससे गांजा पीते हैं।
गांजा? तुम्हारे पास है?
लड़का बोला – हां। फिर शायद उसने मुझे तौला – मैं पर्याप्त गंजेड़ी नहीं लगता था। शायद उसे लगा कि मैं इस विधा का सही ग्राहक नहीं हूं। लपेटते हुये बोला – गांजा नहीं, उसको पीने वाली चिलम है मेरे पास।
मुझे समझ में आया कि सड़क के किनारे कन्दमूल फल ले कर बैठा बालक फसाड (मुखौटा) है गांजा बेचने के तंत्र का। पूरे सीनेरियो में कोई आपत्तिजनक नहीं लगेगा। पर पर्दे के पीछे बैठे गांजा-ऑपरेटर अपना काम करते होंगे।
मुझे जेम्स हेडली चेज़ या शरलक होम्स का कीड़ा नहीं काटे था। काटे होता तो चिलम खरीदने का उपक्रम कर उस लड़के से बात आगे बढ़ाता। वैसे भी मेला क्षेत्र में टहलने के ध्येय से गया था, गांजा व्यवसाय पर शोध करने नहीं! सो वहां से चल दिया। कन्दमूल फल की स्लाइसों की हल्की मिठास का स्वाद लेते हुये।
पर मुझे इतना समझ में आ गया था कि गांजा बेचना हो फुटकर में, तो कैसे बेचा जाये!
One thought on “कन्दमूल फल, चिलम और गांजा – 2012 की पोस्ट पर री विजिट”
Comments are closed.