दस दिवसीय दाह संस्कार क्वारेण्टाइन – शोक, परंपरा और रूढ़ियां


पिताजी का देहांत 11 अक्टूबर को हुआ था. अगले दिन रसूलाबाद, प्रयाग में दाह संस्कार. उसी दिन से यहां शिव कुटी में घण्ट स्थापना की. सुबह शाम वहां जल देने और दीपक जलाने का कर्म कर रहा हूं मैं.

शिव कुटी में गंगा किनारे इस पीपल पर बंधे घण्ट में जल देने और दीपक जलाने का नित्य कर्म कर रहा हूं मैं.

शोक है. रीति पालन की भावना भी है; पर कर्म कांड का रूढ़ निर्वहन नहीं हो रहा.

अपने बाबा का दाह संस्कार मैंने किया था तीन दशक पहले. उस समय गांव में रहना था और उस (कठिन) स्तर पर रूढ़ियों और परंपराओं का निर्वहन किया था. तब उम्र कम थी और आज की अपेक्षा शारीरिक क्षमता कहीं अधिक थी. फिर भी स्वास्थ्य खराब हो गया था माघ महीने की सर्दी में वह सब निपटाने में. और उसके बाद रेल सेवा में वापस लौटने पर मुझे एक सप्ताह अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था.

पिताजी पिछले पांच साल से मेरे रूम पार्टनर थे घर में. बगल के बिस्तर पर लेटे रहते थे…

अब अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान रखना पड़ रहा है और बढ़ी उम्र की शिथिलता को भी अकॉमोडेट करना पड़ रहा है. अपना रक्तचाप और मधुमेह का टेस्ट भी करना और उसे नियंत्रण में रखने का प्रयास चल रहा है. इस लिए भोजन पर परंपराओं और रूढ़ियों की दखल उतनी अधिक स्वीकार नहीं कर रहा हूं.

शुरू के एक दो दिन तो उबले आलू और भुनी, तली मूंगफली पर काम चला. पर आलू के कारण रक्त की शर्करा बढ़ने की आशंका थी. रोटी बनाने के लिए तवा का प्रयोग वर्जित था सो हाथ से बने टिक्कड़ या लिट्टी और सब्जी (बिना मसाला और हल्दी) का प्रयोग किया. तीन बार के भोजन में एक एक केले को भी शामिल कर लिया. बाद में अंकुरित अन्न को भी भोजन में स्थान मिला.

चाय बनाने में आत्मनिर्भरता का जुगाड़

नमक और काली मिर्च के अलावा सभी मसाले वर्जित बने हुए हैं. जब और कोई पास न हो तो एक बिजली की केतली में पानी गर्म कर दूध पाउडर और टी बैग का प्रयोग कर मन मुताबिक चाय बनाना अपनी दिनचर्या में जोड़ लिया है.

कड़ाही का प्रयोग तवा के रूप में हो रहा है सूजी का चिल्ला बनाने के लिए

आज पत्नीजी ने सूजी का चिल्ला बना कर दिया. साथ में उबला आलू. चिल्ला बनाने के लिए तवा प्रयोग नहीं करना था, तो कड़ाही में चिल्ला बनाया. मोटा सा बना – जैसे हाथी को मोटा गोदा या टिक्कड़ बना कर दिया जाता है, कुछ वैसा ही.

यह था नाश्ता. साथ में एक कप दूध और एक केला.

इतने प्रयोगों का लाभ यह हुआ कि हर समय भूखे होने की जो अनुभूति होती थी, वह नहीं हो रही और मन बार बार भोजन की नहीं सोच रहा.

वजन कुछ कम हुआ है. वह पिताजी के अस्पताल में भर्ती होने के दौरान से ही हो रहा है. गालों पर खलरी लटक गई है. पत्नीजी कहती हैं कि यह फेज खत्म होने पर एक बार मुंह का फेशियल कर चेहरा ठीक करना जरूरी है. अभी तो बढ़ी दाढ़ी के कारण खुद को अजनबी लग रहा है अपना चेहरा.

पर स्वास्थ्य उतना खराब नहीं लग रहा, जितनी आशंका थी.

लोग कह रहे थे कि हम गरुड़ पुराण सुनें. हमने पंड़िज्जी को उसके लिए बुलाया भी. पर लगा कि वह सुनने की बजाय धर्म और दर्शन का थोड़ा बहुत अध्ययन – स्वाध्याय किया जाए. जितना समय पुराण सुनने में लगता, वह पुस्तक और स्वाध्याय सामग्री पठन में लगाने का प्रयास किया जा रहा है. गरुड़ पुराण हमे life beyond के उत्तर सुझाता. वैसा ही काम ये अध्ययन कर रहा है. यह बेहतर होगा या नहीं कह नहीं सकते. पर लोक व्यावहार के हिसाब से तो हम गलत ही कर रहे हैं… जीवन प्रक्रिया के सत्य, नैतिकता और शरीर/जीव/आत्मा के लक्ष्य/ध्येय जैसे विषयों पर फुटकर तरीके से सोचना चल रहा है. वह आगे भी चलता रहे और नित्य की स्टडी का सहज अंग बन जाए तो सही श्रद्धांजलि होगी पिताजी को.

तेरही 23.10.2019 को 47/2 सुन्दर बाग, शिवकुटी, प्रयागराज में है. कार्ड छपवाया नहीं. कार्ड तो लोग मिलते ही फाड़ देते हैं और फिर फटे टुकड़े सटा कर दिन स्थान और मरने वाले का नाम तलाशते हैं. एसएमएस, ह्वात्सेप्प और ब्लॉग या मोबाइल फोन के माध्यम से ही लोगों को सूचित करने की सोची है.

प्रदर्शन का टिटिम्मा नहीं करना है. परंपरा का निर्वाह ही करना है.

कई लोग टोक चुके हैं कि यह ठीक नहीं कर रहे हैं हम.

पिताजी की याद में कई बार रिक्तता लगती है. कई बार मन खिन्न होता है. पर उनके साथ उनकी बीमारी में भी जो मेरा परिवार और मैं लगे रहे, उसका सार्थक पक्ष यह है कि मन पर कोई अपराध बोध नहीं हावी हो रहा.

कुल मिलाकर सिर पर से माता पिता का साया उठ जाने के निर्वात को भरने के लिए जो कर पा रहे हैं मैं और मेरी पत्नीजी, वह चाहे बहुत परफेक्ट न हो, पर बहुत खराब भी नहीं है. पहले की अपेक्षा बेहतर ही है.

जीवन के साथ बहो, जीवन के साथ परिष्कृत होओ. जो आवश्यक है, उसे अपनाओ और अनावश्यक की सतत पहचान करो – यही मंत्र है. यह समझो जीडी.

बस.


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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