उम्र बढ़ रही है और लगता है कि अस्पताल के चक्कर लगने की संभावनायें भी बढ़ जाएंगी। 😕
अपने जीवन की दूसरी पारी में, गांव में रहने का निर्णय लेने में यह द्वन्द्व था कि गांव में मैडीकल सुविधायें नहीं मिलेंगी। पर यह भी लग रहा था कि वहां अगर नैसर्गिक जीवन जिया गया, और तनाव कम रहा तो मैडीकल सुविधाओं की जरूरत भी कम रहेगी।
और, पहले चार साल बढ़िया कटे। शायद ही किसी दिन बीमार रहा। पर चार साल बीतते बीतते सारी अस्वस्थता की कसर पूरी हो गयी। मेरे पिताजी अस्पताल में भर्ती हुये और चल बसे। मेरी आशावादी सोच थी कि वे नब्बे की उम्र पायेंगे, पर वे पच्चासी ही पार कर पाये। उसके बाद उनके न रहने के अवसाद और कर्मकाण्डों के तनाव का परिणाम यह हुआ कि तीन सप्ताह के अंतराल में दो बार मुझे UTI – urinary tract infection की अधिकता के कारण अस्पताल मेँ भर्ती होना पड़ा।
अस्पताल में इंट्रा-वेनस नली से एण्टीबायोटिक दवाओं का सतत दिया जाना; लगभग रोज खून, पेशाब आदि की जांच, अल्ट्रासाउण्ड परीक्षण के गिलगिले जेल का लगाया और पोता जाना; जब तब आनेवाले बुखार और पेशाब में जलन … इन सब ने एक भय (?) मन में भर दिया कि जैसे पिताजी नब्बे को टच नहीं कर पाये, मैं शायद सत्तर भी टच न कर सकूं। वैसे भी लगभग अंजुरी भर दवाओं के टैबलेट और कैप्स्यूल रोज लेने होते हैं मुझे। उन सब का मानसिक बोझ, डायबिटीज और उच्च रक्त चाप का दैनिक नाप जोख और उसके ऊपर भारत के लोगों की औसत लॉन्गेविटी के आंकड़े – मन के जबरिया आशावाद पर पानी फेरते रहते हैं।
अस्पताल, बीमारी और मानसिक थकान ने मुझे किसी विशेषज्ञ की शरण में जाने को प्रेरित किया। वैसे भी, सूर्या ट्रॉमा सेण्टर के डाक्टर तपन मण्डल जी ने मुझे UTI से ठीक होने के बाद एक बार नेफ्रॉलॉजी के एक विशेषज्ञ से मिल कर बार बार होने वाले पेशाब के संक्रमण पर उनके विचार जानने की सलाह दी थी।

मेरे दामाद विवेक और बिटिया वाणी ने दो डाक्टरों से मेरा साक्षात्कार कराया। एक उनके अपने बोकारो के अस्पताल में आने वाले डाक्टर आलोक झा जी थे। डा. आलोक ने कहा कि समस्या किडनी में नहीं है, प्रोस्टेट ग्रंथि मेरे पेशाब की थैली को पूरी तरह खाली नहीं करने देती। बचे हुये मूत्र में संक्रमण होने की सम्भावना बढ़ जाती है और वह जब अधिक हो जाता है तो पड़ोस में रहने वाली किडनी को प्रभावित करता है। आवश्यकता है कि मैं अपनी प्रोस्ट्रेट ग्रंथि की दवा बदल दूं। उन्होने एक नयी दवा भी प्रेस्क्रॉइब की।
दो दिन बाद विवेक को रांची जाना था और वे मुझे अपने साथ ले कर गये। रांची में भगवान महावीर मेडिका सुपर स्पेश्यालिटी अस्पताल के प्रतिष्ठित किडनी रोग विशेषज्ञ डाक्टर अशोक कुमार बैद्य से एक अप्वाइण्टमेण्ट का इंतजाम भी विवेक ने कराया।

मेडिका के प्रमुख विशेषज्ञों के ग्लो साइन बोर्ड की कतार में जो बोर्ड डाक्टर बैद्य का है, उसमें जानकारी है कि डाक्टर बैद्य 50 से अधिक गुर्दों (किडनी) का प्रत्यारोपण कर चुके हैं और पांच लाख से ज्यादा डायलिसिस करने का अनुभव उनके पास है।

रांची में मेडिका अस्पताल का वातावरण देख कर मेरा देशज/Rustic व्यक्तित्व संकुचित सा हो गया। कुछ वैसा ही जैसा पांच सितारा होटल की लॉबी में किसी कस्बाई व्यक्ति का चकर पकर ताकने पर होने लगता है। मैं सोचने लगा कि मेरी सही जगह यह शहरी वातावरण है या गंगा किनारे साइकिल ले कर घूमने और अचानक आयी बारिश से बचाव के लिये मठल्ले की मड़ई में झिंलगी चारपायी पर शरण लेने वाले जीडी का पर्सोना ही मेरा मूल गुणसूत्र है।
अपनी जीवन की दूसरी पारी में अभी तक यह उलझन कभी कभी उभर आती है। भ्रमित पर्सनॉलिटी का मामला है। वह शायद तब तक रहेगा, जब तक गंवई जिंदगी में कोई आउटस्टैण्डिंग काम नहीं कर गुजरूंगा। पर वह कितना समय लेगा? थकते शरीर और मन के पास वह कर पाने का समय बचा भी है, या नहीं? क्या मेरी जिंदगी पर्याप्त लम्बी है? क्या दूसरी पारी की जिंदगी पहली की अपेक्षा और जानदार हो पायेगी या नहीं? फिलहाल तो बीमारी के बाद एक एक कदम रखना भारी पड़ रहा है।
जब मैं डाक्टर बैद्य से उनके चेम्बर में मिला तो यह सब आशंकायें व्यक्त करने का अवसर मुझे मिला। वे एक खुर्राट और रुक्ष विशेषज्ञ जैसे नहीं थे जो मेरा पुराना केस पेपर पढ़ कर एक दो काम की बात पूछ और दवाई का खर्रा लिख मुझे बाहर जाने का रास्ता दिखा देते।
डा. बैद्य ने पर्याप्त समय लिया मेरे केस पेपर्स को देखने और उसे (आम डाक्टरों की घटिया लिखावट के उलट स्पष्ट और सुंदर तरीके से) नोट्स के रूप में दर्ज किया। उन्होने मुझसे सटीक सवाल किये और उनका मैने इस प्रकार से जवाब देने का प्रयास किया जिससे लगे कि मैँ पढ़ा-लिखा और जागरूप टाइप मरीज हूं। अन्यथा, सुपर स्पेश्यालिटी अस्पताल में हैरान, परेशान मरीज या तो बहुत ज्यादा (अनर्गल) बोलता है, या फिर मोनोसेलेबल्स में जवाब देता है और बाकी सम्पुट उसके साथ गये सहायक को पूरा करना पड़ता है।
मैं डाक्टर बैद्य से काफी प्रभावित था और मैँ चाहता था कि मुलाकात में जितना समय है, उसमें उनसे वह सब पूछ लूं, जिसकी जिज्ञासा ले कर आया था।
मेरा केस देखने के बाद डाक्टर साहब ने पूछा – आप मुझसे जानना क्या चाहते हैँ?
“यही डाक्टर साहब, कि UTI इतने कम समय में, इतनी इण्टेंसिटी से बार बार कैसे हो गया? क्या मेरे गुर्दे और प्रोस्ट्रेट के साथ बहुत ज्यादा ही गड़बड़ है? और उस सब के साथ उच्च रक्तचाप, मधुमेह, थायराइड की समस्याओं के साथ मेरी लॉन्गेविटी के क्या ईश्यू बनते हैं? क्या संभावनाएं होती हैं? “

डाक्टर बैद्य सम्भवत: मेरी मानसिक व्यग्रता समझ गये। उन्हें लग गया कि यह व्यक्ति (मरीज) इलाज कम, अपनी व्यग्रताओं पर विशेषज्ञ राय और समाधान का ज्यादा इच्छुक है। उन्होने मेरी उसी व्यग्रता को एड्रेस किया। उन्होने बताया कि प्रोस्ट्रेट की समस्या जैसी है, उसके साथ बिना सर्जरी के पांच सात साल, दवाओं के बदलाव के साथ सरलता से निकाले जा सकते हैं। और सर्जरी कर प्रोस्ट्रेट ग्रंथि निकाल देना कोई शत प्रतिशत समाधान नहीं है। UTI उसके बाद भी हो सकता है। दवायें मूत्र के प्रवाह को बेहतर बना सकें तो संक्रमण की समस्या कम हो जायेगी। शरीर के बाकी भागों में प्रभाव उसी संक्रमण के कारण है और (उसके अलावा) उनके खराब होने के ईश्यू नहीं हैं। … जहां तक लॉगेविटी का सवाल है, अगर आप अपना डायबिटीज और रक्तचाप अपनी दिनचर्या से नियंत्रण में रख सकें तो लॉगेविटी अपने आप बढ़ जायेगी। शरीर को पर्याप्त व्यायाम भी करना चाहिये – आप नियमित टहलें और (या) जितना साइकिल अपनी क्षमता के अनुसार चला सकते हैं, चलायें।
डाक्टर साहब का कहा मैने अपने शब्दों में लिखा है। मेरा ख्याल है कि उनके कहे का आशय ठीक ठीक समझा मैने।
“डाक्टर साहब, आपने मेरी एंग्जाइटी को लगभग खत्म कर दिया यह सब बता कर। मेरा आपके पास आने का मकसद पूरा हो गया। जैसा आपने कहा है, और जैसी दवायें आपने प्रेस्क्राइब की हैं; उसके अनुसार अपनी दिनचर्या रेग्युलेट करूंगा। मुझमें यह तो ठीक है कि अपने भोजन, डाइबिटीज और रक्तचाप की रीडिंग नियमित ले कर उसके अनुसार एक्टिव तरीके से जीवन चलाने का यत्न कर सकता हूं। उस सन्दर्भ में मैं लापरवाह नहीं हूँ।”
डाक्टर बैद्य को मेरा कहना शायद अच्छा लगा। उन्होने कहा कि उनका मूल काम ही मरीज की व्यग्रता कम करना है।
मेरे अनुरोध पर उन्होने मेरे साथ फोटो भी खिंचाया। यह कृत्य, जैसा मैं समझा, उनके साथ एक आत्मीयता का सूत्र स्थापित कर गया।

मैडीका सुपर स्पेश्यालिटी अस्पताल, वहां घुसते समय मुझे जितना अटपटा लग रहा था और जितनी उसके एम्बियेंस से अपनी गंवई जिंदगी की तुलना कर रहा था, डाक्टर बैद्य से मुलाकात के बाद काफी हद तक सहज हो गया था मैं। उसे सहज बनाने में मेरा तो कोई योगदान सम्भव था ही नहीं। डाक्टर बैद्य का सौम्य व्यक्तित्व ही वह कर गया था। बहुत कम ही लोग वैसे होते हैं वैसे व्यक्तित्व वाले। और डाक्टर बिरादरी के लोग तो उससे भी कम!
मैडिका से लौटते समय, डाक्टर बैद्य की मुलाकात के कारण, मैँ अपने अवसाद से उबर चुका था और काफी अर्से बाद अपने में प्रसन्नता महसूस कर रहा था!
अतुल गवाण्डे की पुस्तक Being Mortal शहरी और मूलतः अमरीकी पृष्ठ भूमि पर है। यहां हमारा गंवई परिदृश्य भी बहुत बदल रहा है। इस पृष्ठ भूमि में भी बढ़ती उम्र के प्रबंधन पर एक पुस्तक की आवश्यकता है।

एक पुस्तक लिखने के लिए एक डा. अशोक कुमार वैद्य जी जैसे सेन्सीटिव डाक्टर के इनपुट चाहिएं।
मुझे एक वीडियो मिला जो कि आपकी समस्या में उपयोगी जान पड़ा। उसकी लिंक निम्न है
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आपने जो अनुभव साझा किया वह अच्छा लगा । इसी तरह शेयर करते रहें।
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जैसी व्यग्रता आपको हुई, वैसी ही मुझे भी हुई थी जब 69 वर्ष की उम्र में पिताजी को अरोटा का ऑपरेशन बताया और भी बहुत कुछ, तो हमने सोचा कि हमें स्वस्थ्य रहना है, हमने अपनी लाइफस्टाइल बदल ली, पका हुआ खाना कम और कच्चा खाना याने की सलाद फल आदि की मात्रा बढ़ा दी, शुरू के दो महीने दोनों समय एनिमा लिया और अपने पेट की सफाई की, तो जीवनशैली की बीमारियों से छुटकारा मिल गया, कोलोस्ट्रोल और उच्चरक्तचाप। 16 घन्टे की रोज फास्टिंग करते हैं, जिसमें पानी भी नहीं पीते, हर सोमवार को निर्जला रहते हैं, अब वजन 79 है 65 तक लेकर जाने का लक्ष्य है, फिर से दौड़ने की शुरुआत करनी है। बस अब हम इसी जीवनशैली को निरंतर रखेंगे। उम्मीद है कि कम से कम शतक तो पूरा कर पायेंगे।
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