गांव में सात लोगों का समूह बना हमारा, जो नगरों से घरों की ओर पलायन करते हारे, थके, विपन्न और विदग्ध श्रमिकों को भोजन कराने की सोच रखते हैं। नेशनल हाईवे 19 पर बने शिवाला परिसर में हम लोगों का अड्डा जमता है।

एक बड़े से भगौने में तहरी बनती है। उसी में सब तरह की सब्जियां डाल कर पौष्टिकता का स्तर बढ़ाया जाता है। राहुल मुझे बताते हैं कि एक बार भगौने में इतना तहरी तैयार हो जाती है कि पांच सौ लोग खाना खा लें। वह भगौना मुझे अक्षय पात्र सा प्रतीत होता है। मैं गांव के इस समूह को नाम भी देता हूं – अक्षयपात्र।
अक्षयपात्र और शिवाला – एक सशक्त युग्म है जो कोरोना-भय-ग्रस्त व्युत्क्रमित पलायन करते लोगों सुकून प्रदान करता है।
कल वहां देखा – रास्ते जाते पलायन करते लोग पानी में नहा रहे थे। बेचारों को न जाने कितने दिन बाद यह पानी मिला होगा। नहाते हुये उनकी प्रसन्नता देखते ही बनती थी!
स्नान ले बाद या पहले पेड़ों की छाया में बैठना भी एक आनंददायक अनुभव है। वे जो आ रहे हैं, या तो पैदल गर्मी में चलते आ रहे हैं, या ट्रकों में भूसे की तरह लदे हुये हैं। दोनो ही दशा में पेड़ की छाया ऐसी होती है जिसमें शरीर, मन, आत्मा – सब जुड़ा जाये!
एक राउण्ड अक्षयपात्र का भोजन कर लोग जा चुके हैं। दूसरे बार के लिये अक्षयपात्र में भोजन बन रहा है। लोग पेड़ों की छाया में भोजन बनने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। परोसने वालों को भी लगता है कि जितनी जल्दी हो सके, पथिकों की क्षुधा तृप्त कराई जाये। अक्षयपात्र समूह का भोजन कराने का उत्साह महसूस करने के लिये वहां जाना बहुत जरूरी है। मैं वहां बैठा यही अनुभव करता हूं।

मेरे अलावा समूह के सभी हास-परिहास में पारंगत हैं। शायद गांव की आबोहवा में कुछ है जो लोगों को सहज स्वच्छंद बनाता है। वे सभी शिष्ट हैं, पर काम करते करते परिहास भी करते जाते हैं। उन्हे सुनना आनंद देता है। उनकी हंसी, उनका आमोद-प्रमोद भी संक्रामक है। मुझे अपनी उम्र दस साल कम होती प्रतीत होती है।
भोजन बनते ही परोसने का क्रम प्रारम्भ हो जाता है। लोग झुण्ड में बैठ खाते हैं। वे लोग झुण्ड में आ रहे हैं। ट्रकों में सार्डीन मछलियों की तरह ससक कर बैठे, लेटे यात्रा करते लोग। उनके सोशल डिस्टेंसिंग की मुझे ज्यादा फिक्र नहीं है। पर मुझे हमारे अपने समूह की कोरोना संक्रमण से बचाव की फिक्र होती है। मैं ह्वाट्सएप्प ग्रुप पर सुझाव देता हूं कि पंगत में जा कर पत्तल में भोजन परोसने की बजाय एक टेबल पर एक और खड़े हो, दूसरी ओर में लाइन में अपनी अपनी थाली ले कर आते लोगों को दूरी बनाते हुये पथिक भोजन लें और अपनी सहूलियत अनुसार परिसर मेंं बैठने को स्वतंत्र हों। अक्षयपात्र-समूह के बंधुओं ने सुझाव स्वीकार कर लिया है। साधुवाद!

भोजन कराने की विधि, या उसमें बदलाव महत्वपूर्ण उतना नहीं, जितना इस समूह की निस्वार्थ सेवा भावना की कद्र और प्रशंसा। और, प्रशंसा करने वाले बहुत से हैं। भोजन करने के बाद एक व्यक्ति स्वत: धन्यवाद ज्ञापन करने लगता है। वह नागपुर के पास किसी मेट्रो-रेल प्रॉजेक्ट में काम करने वाला है। वह अपना नाम बताता है – मोहम्मद जहीरुद्दीन। जहीरुद्दीन और उसके साथी खगड़िया, बिहार जा रहे हैं।

जहीरुद्दीन की एमएसएमई कम्पनी ने काम न चलने पर बिहार के लोगों को घर लौटने के लिये एक ट्रक का इंतजाम कर दिया है। उनका ट्रक और एक अन्य ट्रक, जिनमें पथिक चले आ रहे हैं, शिवाला के पास हाईवे पर खड़े हैं।

जहीरुद्दीन के बाद एक अन्य सज्जन – कुलदीप साव भी कुछ शुभ बोलते हैं। वे झारखण्ड के हैं। गोड्डा जिले के। सुशील मिश्र और उनके अक्षयपात्र समूह के साथी उनसे मोबाइल नम्बर भी आदान प्रदान करते हैं। कुलदीप और जहीरुद्दीन जी से अनुरोध करते हैं कि वे घर पंहुचने पर एक फोन कर सकुशल पंहुचने की सूचना देंगे तो अच्छा लगेगा।

कुछ लोग पैदल हैं। अक्षयपात्र समूह के कार्यकर्ता लोग जहीरुद्दीन से अनुरोध करते हैं कि आगे कुछ दूर तक इन पैदल लोगों को भी अपने ट्रक में जगह दे दें। शायद वे ऐसा करें। इस समय सारा वातावरण परस्पर करुणा, स्नेह और भाईचारे का है। धार्मिक भेदभाव भी गायब है। अन्यथा शिवाला और मोहम्मद जहीरुद्दीन – mutually exclusive नाम हैं! शायद जहीरुद्दीन उन पैदल लोगों को साथ ले लें। शायद!
मेरी पत्नीजी और मैं शिवाला से लौटते हैं। मन में एक भाव गहरे से है – अक्षयपात्र के समूह के मेरे सहयोगी लोगों को भोजन देने का पुनीत कार्य जरूर करते रहें, पर बदले में कोरोना संक्रमण न ले लें। बचाव करें अपना। ईश्वर उनके साथ रहें। हर हर महादेव!
आशा है, वैसा ही होगा।

अगर कुछ आर्थिक योगदान की जरुरत हो तो जरूर बताएं।
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धन्यवाद। आवश्यकता हुई तो सूचित करूंगा।
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एक सकारात्मक पोस्ट। भले ही हमे लोग बांटने की कोशिश करें लेकिन हम यह समझ लें कि हम इनसान पहले हैं और किसी धर्म में जन्मे व्यक्ति बाद में तो दुनिया बहुत खूबसूरत हो जाएगी। मुझे हमेशा से लगता है मानवता का धर्म ही एक मात्र धर्म होना चाहिए बाकी धर्मों की अब जरूरत नहीं रह गयी है। आभार।
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मैंने कई बार महसूस किया है की जैसे “vicious cycle ” एक सत्य है (बुराई से बुराई का जन्म लेना) वैसे ही “virtuous cycle” भी एक सत्य है. भलाई होते देख भलाई करने को प्रेरित होना! अपने blog के माध्यम से आप यही कर रहे हैं! साधुवाद!
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आपकी टिप्पणी भी वर्चुअस संक्रमण दे रही है, आरती जी! जय हो!
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