कल सवेरे समाचारपत्र में था कि मुख्यमंत्री ने हिदायत दी है प्रदेश में आते ही प्रवासी श्रमिकों को पानी और भोजन दिया जाये। उनकी स्क्रीनिंग की जाये और उनको उनके गंतव्य तक पंहुचाने का इंतजाम किया जाये।

यह तो उन्होने परसों कहा होगा। कल इस कथन का असर नहीं था। मेरे सामने साइकिल से आये कई लोग अक्षयपात्र समूह द्वारा चलाये जा रहे भण्डारे में भोजन-विश्राम करते दिखे। दो पैदल चलते श्रमिकों को भी धीरज-राहुल ने बुलाया भोजन के लिये। कई ट्रकों में ठुंसे हुये लोग तो थे ही। कल जिला प्रशासन के अधीनस्थ अधिकारी और पुलीस की गाड़ियां आसपास से आये-गुजरे। कल तक तो मुख्यमंत्री के कथन का असर नजर नहीं आया था।
यह कल के भोजन वितरण का चित्र है –

आज, जरूर अंतर नजर आया। सवेरे साइकिल भ्रमण के दौरान मेरे आठ किलोमीटर हाईवे पर आते जाते एक भी कोरोना-प्रवासी नजर नहीं आया – न पैदल, न साइकिल पर और न ट्रकों में। एक ट्रेलर पर कुछ लोग दिखे, पर वे शायद किसी जगह के निर्माण कर्मी थे।

सवेरे शिवाला (जहां अक्षयपात्र समूह द्वारा कोरोनापलायन करते श्रमिकों के लिये भण्डारा चलता है) पर हो कर भी आया। वहां मोहित का बड्डी (डोबरमैन का क्रॉसब्रीड कुकुर) भर था। मोहित को आने में आधा घण्टे की देर थी। बाद में दस बजे मोहित से बात हुई। उसने बताया – “भोजन बन गया है। तैयारी है, पर आज कोई प्रवासी श्रमिक दिख नहीं रहे हैं। आज देख लेते हैं, अगर भीड़ पर प्रशासन ने चेक लगाया है तो कल से यह कार्यक्रम बंद कर देंगे।”
अत: मुख्यमंत्री के कड़े उद्गारों का असर हुआ है नौकरशाही पर। लेकिन वह असर होने में भी छत्तीस घण्टे का समय लगा। Fair enough. Not bad!

नौकरशाही का नाम आया है तो मैं चीन और भारत की तुलना करना चाहूंगा। फैंग फैंग की पुस्तक वूहान डायरी में लेखिका वूहान के सिविल प्रशासन के अधिकारियों के टीवी पर कठिन प्रेस कॉन्फ्रेंस का जिक्र है, जिसमें उनकी उनकी गलतियों के लिये उन्हें ग्रिल किया जा रहा था। मैं सोचता था कि चीन में सिविल प्रशासन तानाशाही वाला होता होगा जहां उसकी कोई जवाबदेही नहीं होती। पर यह साक्षात्कार स्पष्ट करता है कि मामला वैसा नहीं है।
उसके उलट भारत में सिविल प्रशासन ज्यादा बिगड़ैल नवाब की तरह पेश आता है। यहां किसी जिलाधीश या एसपी की गलती होने पर ज्यादा से ज्यादा उसका तबादला कर दिया जाता है। कभी उसे जनता को फेस करने या माफी मांगते नहीं देखा। कभी प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनकी ग्रिलिंग नहीं दिखी। हमारी सिविल सेवा ब्रिटिश कालीन है – माई-बाप की तरह। ये जनता के प्रति असंवेदनशील हैं। इन्हें प्रवासी मजदूरों की व्यापक पलायन की त्रासदी का अंदाज ही नहीं था। और उस अंदाज के न होने को क्षम्य माना जा सकता है। पर पिछले डेढ़ महीने से सड़कों पर आती भीड़ नहीं दिखी जिलाधीशों को? मानवता की “न भूतो न भविष्यति” वाली त्रासदी सड़कों पर लटपटाती डोलती रही और इन मित्रों को नजर नहीं आया? इनमें से कई अधीनस्थ छाप कर्मी तो अपनी हफ्ता उगाही की चहल पहल में ही व्यस्त दिखे। कृपया, उन्हे कोरोना योद्धा छाप विशेषण न दें! ये एक्शन में तब आये, आज, जब मुख्यमंत्री ने इन्हें कड़े शब्दों में ठोंका। पोलिटिकल लीडरशिप से भी (बड़ी) चूक हुई। पर अंतत: एक्शन पोलिटिकल लीडरशिप ने लिया, सिविल प्रशासन तो आंच से बचने के लिये हरकत में आया।
आज प्रवासी मजदूर नहीं दिख रहे सड़कों पर। इंतजाम किये होंगे उसी प्रशासन ने जो कल तक कानों में तेल डाले था। मशीनरी काम करती है; पर मशीनरी खड़खड़िया है। एक लात मारने पर चलती है।
मोहित से फीडबैक लेता हूं। इक्कादुक्का लोग आये हैं भण्डारे में एक दो साइकिल वाले और कुछ (चार पहिया) गाड़ियों से। ज्यादा नहीं। खाली बैठे हैं। “फूफा जी, कुछ लिखा हो तो पोस्ट कर दें न। खाली बैठे हैं; पोस्ट ही पढ़ लें!” 😆

ज्यादा मानसिक व्यथा उंड़ेलने की बजाय यह पोस्ट कर ही देता हूं। आशा है आगे यह पलायन त्रासदी का दौर खत्म होगा। कोरोना संक्रमण के मामले पूर्वांचल में बढ़ रहे हैं। उसपर और अपने बचाव पर आगे ध्यान देना होगा।
मेरी बिटिया और मेरी पत्नीजी बार बार आगाह करती हैं – ज्यादा लपर लपर बाहर घूमना बंद करो!
इक्का दुक्का को छोड़ दें तो सब आई ए एस ही भोकाल मारने के लिए बनना चाहते हैं। फिर आश्चर्य क्या कि अधिकांश भ्रष्ट हैं और भ्रष्ट लोगों में संवेदना नहीं होती, होती तो वे भ्रष्ट न होते।
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केवल अच्छी बात यह है कि अधिकांश भोकाली बन नहीं पाते। Many of them are highly competent. Not individually corrupt. But system has become degenerate and they are not able to change it.
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ज्यादा लपर लपर 😀😀😀
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