मेरे किराने की सप्लाई करने वाले रविशंकर कहते हैं – सर जी, आप लोगों को मदद बांट नहीं पायेंगे। भीड़ लग जायेगी। गरीबी बहुत है इस इलाके में सर जी। थक जायेंगे आप।
रविशंकर ने जो कहा, वह महसूस हो रहा है।
आप साइकिल ले कर सवेरे फोटो क्लिक करते घूम आइये। गंगा किनारे जल की निर्मलता निहार लीजिये। घर आ कर लैपटॉप पर चित्र संजो लीजिये। कुछ ट्विटर पर, कुछ फेसबुक पर, कुछ वर्डप्रेस ब्लॉग पर डाल कर छुट्टी पाइये और पत्नीजी से पूछिये – आज ब्रेकफास्ट में क्या बना है? उसमें सब बढ़िया लगता है। रिटायरमेण्ट का आनंद आता है।
पर जब आप गरीबी देखें; उसकी परतें खोलने की कोशिश करें, तो जी घबराने लगता है। दशा इतनी ह्यूमंगस लगती है, इतनी विकराल कि आप को लगता है आप कुछ कर ही नहीं सकते। या जो कुछ करेंगे वह ऊंट के मुंंह में जीरा भी नहीं होगा।

एक-दो दिन पहले मैंने मनरेगा की गतिविधि की आलोचना जैसी ट्वीट की थी –
यह लगा था कि मनरेगा में जो कुछ हो रहा है, वह मात्र खानापूरी है काम के नाम पर। काम जो होगा वह अगली बारिश में बह जायेगा। उसकी कोई स्थायी अहमियत नहीं। पर अब लगता है कि स्थायी अहमियत का क्या करें, ले कर चाटें? तब, जब लोगों के पास सिवाय रोटी या भात के कोई जुगाड़ ही नहीं है। नमक और मिर्च का बमुश्किल इंतजाम होता है स्वाद के नाम पर। लोग भीख नहीं मांग रहे, पर अंदर ही अंदर तार तार हो रहे हैं। सब्जियों की कटौती कर रहे हैं। दालें बन ही नहीं रहीं या बन रही हैं तो उत्तरोत्तर अधिक पानी मिलाया जा रहा है।
विकास के नारे को मुंह चिढाता है मनरेगा। अर्थव्यवस्था की प्रगति के स्वप्नों को धूसर बना दे रहा है मनरेगा। पर लॉकडाउन के अर्थव्यवस्था संकुचन के युग में मनरेगा ही सहारा है।
सवेरे साइकिल भ्रमण से लौटानी में बड़ी गतिविधि नजर आती है सड़क के किनारे। आदमी-औरत-बच्चे इकठ्ठा हो चुके होते हैं। जिनके काम के एरिया बंट चुके हैं, वे फावड़े से मिट्टी खोदने और तसले भरने, मिट्टी सड़क की सेस पर फैंकने में लग चुके होते हैं। कहीं सड़क की नपाई चल रही होती है। कहीं प्रधान या उसके आदमी आकलन कर रहे होते हैं कि कितने तसले मिट्टी डालनी पड़ेगी। कहीं परिवार के बच्चे भी काम पर लगे दिखाई देते हैं। उनमें परिवार के बाकी लोगों की बजाय ज्यादा जोश रहता है। उनको पिकनिक सी लगती होगी यह पूरी गतिविधि।
सरकार मुफ्त राशन दे रही है। थोड़े से काम पर उनके खाते में मनरेगा का पैसा भी पंहुच जायेगा। मैं एक से पूछता हूं – क्या बच्चों को भी पेमेण्ट मिलता है?

“उनके काम का तो उनके मा-बाप को मिलता है उनके खाते में।”
कई बच्चे स्कूल की दी गयी यूनिफार्म में नजर आते हैं। स्कूल की वर्दी हमेशा पहने रहते हैं। आजकल स्कूल बंद हैं, पर अधिकतर बच्चे वर्दी में ही दिखते हैं। उनके पास कपड़े के नाम पर वही है।
रविशंकर जी की बात आजकल मन में उमड़ती-घुमड़ती रहती है – बड़ी गरीबी है इलाके में सर जी। आप मदद बांटते थक जायेंगे। भीड़ लग जायेगी।
दुख का भाव स्थायी जैसा हो रहा है। शायद सवेरे साइकिल सैर का रास्ता बदलने से मन उनपर से कुछ हटे। पर अभी तो पत्नीजी ने कहा है कि कल मुसहर बस्ती की ओर चलना है। गरीबी की निम्नतम छोर पर बसे उनको देखें कि क्या हालत है उनकी।

क्या कर पाओगे जीडी तुम? शायद कुछ ज्यादा नहीं कर पाओगे। आठ दस गरीब परिवारों पर कुछ मरहम लगा सको, वही भर कर पाओगे। वही करो, बस।

धन्यवाद शुक्ल जी!
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बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है।
बूंद-बूंद घट भरता है, जितना हमारी सामर्थ्य में है उतनी मदद हम कर सकते हैं, बाकी भली करेंगे राम जी।
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