जून 01, 20, विक्रमपुर भदोही।
उस लम्बी जटाओं वाले साधू के विषय में जिज्ञासा बनी हुई थी। अगले दिन सवेरेे मैं गंगा किनारे कुछ जल्दी ही चला गया था। द्वारिकापुर तट पर चहलकदमी कर रहा था कि वह साधू दूर से आता दिखा। जिस स्थान पर वह जा रहा था – पहले दिन की स्नान वाली जगह – उसी ओर मैं चल पड़ा। साधू चित्र खींचने का मेरा ध्येय समझ गया। घाट पर उसकी सामान्य गतिविधियां जारी रहीं पर मेरे विषय में भी वह सजग रहा।

गंगा तट पर उसके तीन चार चित्र लिये। वह अपना कमण्डल मांजने लगा था। चित्र लेते लेते मैंने पूछा – ये बाल कितने साल से बढ़ा रखे हैं आपने ?
“चालीस साल भये। जब इस लाइन में आये तो तभी से बालों पर कैंची-उस्तरा नहीं चला।” लाइन से साधू का आशय वैराज्ञ और दीक्षा लेने से था। “यहीं घोरबरकी (वाराणसी की ओर, कपसेटी के पास) निवास है। यहां आता जाता रहता हूं।”
नाम बताया अंगद दास त्यागी। थोड़ा झिझकते हुए ही बताया। साधू अपना परिचय देने में ज्यादा तत्पर नहीं थे। त्यागी इस लिये लगाया है कि त्यागी अखाड़े के साधू हैं अंगद दास जी। त्यागी अखाड़ा अयोध्या में है, ऐसा उन्होने बताया।

चालीस साल, अयोध्या का मठ, वैराज्ञ … यही जानकारी मुझे आत्मसात करने के लिये पहले दिन पर्याप्त थी। कभी इन साधू जी के साथ बैठा तो पूछूंगा उससे पहले की जिंदगी, अखाड़े की दिनचर्या, स्वास्थ्य का राज, जीवन के ध्येय आदि के बारे में। मैंने ज्यादा जानकारी नहीं ली अंगद दास जी से। उन्होने खुद ही बताया कि वे यहीं अगियाबीर के टीले पर कुटिया बनाना चाहते हैं। “हनुमान जी (वहां टीले पर हनुमान जी की एक बड़ी प्रतिमा है) जंगल में अकेले बैठे हैं। उनकी सेवा करना चाहता हूं। अगर उसमें आप कोई मदद कर सकें।”
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। यह स्थानीय प्रशासन और द्वारिकापुर तथा अगियाबीर के ग्राम प्रधानों का मामला है। उसमें न मेरा कोई दखल है, और न जान पहचान। टीले पर वैसे भी बनारस विश्वविद्यालय के पुरातत्व वाले विद्वान लोग नियोलिथिक मानव के पदचिन्ह तलाश रहे हैं। उनमें और इन साधू जी के उपक्रम में कोई विग्रह अगर होता है तो मैं निश्चय ही पुरातत्वविदों के पाले में खड़ा रहूंगा।
वैसे भी, मुझे समझ नहीं आता कि हनुमान जी की बड़ी प्रतिमा को किसने किस ध्येय से उस टीले पर स्थापित किया। अंगद दास जी की सहायता स्वयम हनुमान जी करें। मैं तो शायद अपने रिटायरमेंट में बिना झंझट जीने के ध्येय के कारण, उनके इस कार्य में में कोई निमित्त नहीं बन सकता। गांव देहात में मेरे लिए जीना – “बाजार से गुजरा हूँ, खरीददार नहीं हूँ” वाली भावना के साथ जीने की चाह वाला है। बिना किसी स्पृहा के जीवन काटना अच्छा लगता है।

पर अंगद दास जी के घाट पर के क्रियाकलाप में मेरी रुचि बनी रही। उनका व्यक्तित्व ही मुझे आकर्षक लग रहा था।

वे नहा कर लौटने लगे तब और उनके गंगा किनारे चबूतरे पर बैठ पूजापाठ करने तक मैंने उनको अपने मोबाइल कैमरे से देखा। उसके बाद वहां से चला आया।

अंगद दास को इतनी देर इतनी बारीकी से मैंने देखा तो लगा कि उन्हे पहले कहीं देख रखा है। अपने दो-तीन साल के आसपास के खींचे चित्र खंगाले तो वास्तव में एक चित्र उनका और उनके मित्र जी का निकल आया। पास की सड़क पर उन्हे गंगा स्नान के बाद साइकिल से जाते देखा था। यह चित्र मार्च 2018 का है। आज से दो साल से कुछ ज्यादा पहले का। अलग प्रकार के चरित्र लगे होंगे तो अपनी साइकिल पर चलते हुए यह चित्र लिया था, बिना रुके।
द्वारिकापुर के एक बैंक कर्मी, जो मिलने पर मुझे नमस्कार करते हैं, से कल पूछा अंगद दास जी के बारे में। उन्होने बताया कि इस इलाके में घूमते रहते हैं। एक दो गांवों में लोग हैं, जिनके यहां ठहरते हैं। बाकी, रहते यहां नहीं हैं।

साइकिल पर चलता अपनी लम्बाई से ज्यादा लम्बे केश वाला जटाजूट धारी साधू। यह देश विचित्रताओं से भरा है। और वे विचित्रतायें कहीं दूर दराज जंगल-झाड़ी-खोह में नहीं हैं। हमारे आसपास हैं। मुझे आशा है अंगददास जी से आगे भी मिलना होता रहेगा।
समय उनके और मेरे – हम दोनों के पास पर्याप्त है इस तरह की मुलाकात का। 😆