गांव में रहते हुये मेरे भ्रमण का दायरा उतना ही है, जितनी दूर मेरी साइकिल मुझे ले जाये। लगभग 30वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र। नेशनल हाईवे के उत्तर की ओर तो घनी आबादी है। दक्षिण में गंगा के आसपास की दो किलोमीटर की पट्टी में जमीन समतल नहीं है। कहीं सेवार है – जो पहले गंगा की डूब में आ जाता रहा होगा। कहीं करार। मिट्टी भी कहीं उपजाऊ है, कहीं कंकरीली। ज्यादातर लोगों को मोटा अनाज और अरहर बोते देखा है। जहां समतल है और जमीन अच्छी है, वहां धान और गेंहू भी बोते हैं।
गंगा किनारे ज्यादातर बबूल के वृक्ष हैं। वनस्पति के नाम पर झाड़ियां, सरपत और कुशा, भटकैय्या, वन तुलसी आदि हैं।
गंगा उस पार बालू है। समतल इलाका और बालू से भरा क्षेत्र – नदी से दो-तीन किलोमीटर तक फैला।
आबादी का घनत्व इस गांगेय क्षेत्र में अपेक्षाकृत कम है। आबादी का घनत्व कम है तो प्रकृति ज्यादा है।

पर मैं आदमी द्वारा प्रकृति का अंधाधुंध दोहन होते देखता हूं। बबूल के पेड़, जिसका मन आता है काट लेता है। उसमें भी गांव के दादा-दबंग लोग दखल रखते होंगे। एक दिन बबूल के पेड़ पर ढेरों बया के घोंसले दिखते हैं। मन प्रसन्न होता है उनको निहार कर। दूसरे ही दिन देखता हूं कि पेड़ किसी ने काट दिया है। टहनियां छंट गयी हैं। तना भी आरे से चीर कर ढुलाई करने वाले लोग उपस्थित हैं। बया के घोंसलों का तहस नहस होना किसी को कष्ट नहीं देता। मुझे ही दुख होता है।
पेड़ काटने वाले निश्चय ही अनाधिकृत कटाई करने वाले हैं। उन्हें मेरा चित्र लेना पसंद नहीं आता। मुझे भी लगता है कि इस तरह के मामले से दूर ही रहना चाहिये। क्या पता कोई असुर उग्रता दिखाये?!
पूर्वांचल में प्रवासी आये हैं बड़ी संख्या में साइकिल/ऑटो/ट्रकों से। उनके साथ आया है वायरस भी, बिना टिकट। यहां गांव में भी संक्रमण के मामले परिचित लोगों में सुनाई पड़ने लगे हैं। इस बढ़ी हलचल पर नियमित ब्लॉग लेखन है – गांवकाचिठ्ठा https://gyandutt.com/category/villagediary/ |
गंगा करार की मिट्टी जहां तहां लोग खन पर बेच डाल रहे हैं। इसमें भी दबंगई काम आती होगी। बहुत सारा इलाका खनन किया लगता है। अगियाबीर का टीला, जहां चार हजार साल पहले की सभ्यता और प्राचीन उत्तरापथ-दक्षिणापथ का जुडाव बिंदु है; वहां भी बहुत से लोगों ने खनन कर टीला बेच डालने का प्रयास भूत काल में किया था। आगे नहीं करेंगे, इसकी कोई निश्चितता नहीं। वर्तमान सरकार राष्ट्रवाद को बहुत सहारा देती है, पर वह सहारा मौखिक ज्यादा है। धरोहर की रक्षा के लिये वह सतर्क हो, ऐसा नहीं नजर आता।

उर्वरा मृदा खनन का तो यह हाल है कि आने वाले समय में पीने के पानी की तो समस्या होगी ही, उपजाऊ मिट्टी की भी किल्लत से सामना होगा। नदी बचानी है, पेड़ बचाने हैं, उसी प्रकार मिट्टी भी बचानी है।
लोग सार्वजनिक जमीन खोद कर बेच रहे हों, वैसा भर नहीं है। किसान अपने खेत में फसल उपजाने की बजाय मिट्टी बेच कर त्वरित पैसा कमा रहा है। अपनी वर्तमान की जरूरतों के लिये भविष्य की पीढ़ी की उर्वरा जमीन को बेच डाल रहा है। मृदा केवल रासायनिक खाद और कीटनाशक से ही क्षरित नहीं हो रही; मृदा लूट ली जा रही है।
एक खेत में खनन उपकरण और ढेरों ट्रेक्टर ट्रॉलिया खड़ी देखता हूं। अभी सूरज की पहली किरण भी नहीं आयी है। जल्दी ही यहां बड़े खेत में मृदा-खनन-यज्ञ शुरू होने जा रहा है। बकौल एक बुढ़िया – “मनई खेत क माटी बेचि के पईसा हलोरत बा। (आदमी खेत की मिट्टी बेच कर पैसा हिलोर रहा है।)”

दिन भर, और रात में भी, मिट्टी की ढुलाई चलती रहती है। पूरा वातावरण धूल से पट रहा है। इस बारे में मैंने पहले भी लिखा है।

शहरों का जो स्वरूप है, सो है। गांवदेहात में पैसा कम है, प्रकृति प्रचुर है। तो प्रकृति को ही बेच कर पैसा बनाने की कवायद (जोरशोर से) हो रही है। 😦