करुणा जब ज्यादा जोर मारती है तो मैं मुसहर बस्ती की ओर निकल लेता हूं। उनकी छोटी जरूरतें – कपड़ा, सर्दी में कम्बल, खाने को कुछ सामग्री – हम कुछ पूरी कर पाते हैं। वे भी लेने को तैयार रहते हैं। वहां पंहुचते ही पहले तो तोलते से दीखते हैं कि कोई उन्हें तंग करने तो नहीं चला आया। आश्वस्त होने पर आसपास आने लगते हैं।
करीब आठ-दस परिवार हैं। चेहरे मोहरे की बनावट से यह स्पष्ट लगता है कि वे पूरी तरह बनवासी नहीं रहे। आसपास की जनसंख्या ने उन्हे अवैध तरीके से ही सही, अपने गुणसूत्र दे दिये हैं। निशाचरीय सम्बंध तो बनाये होंगे, पर उनके प्रति हिकारत, उपेक्षा, शंका और उदासीनता का जो स्थायी भाव लोगों में है, उसमें कमी नहीं आयी है।

वे महुआ की पत्तियां सहेज रहे हैं। आसपास से पत्तियां तोड़ना और उसे दुकानदारों को पान की पैकिंग के लिये सप्लाई करना, यही उनका मुख्य काम रह गया है। कभी पेड़ों की छंटाई करानी हो, तो उनकी याद करते हैं हम लोग। आजकल कोविड19 लॉकडाउन के कारण वे पत्तियां ले कर शहर नहीं जा पा रहे। यहीं स्थानीय खपत के लिये फीड देते हैं। ट्वीट –
उनकी कुछ बड़ी जरूरतें हैं। उनपर ध्यान देना जरूरी है। पर उस बारे में मैं कुछ नहीं कर पाता। अगर अपनी रिटायरमेण्ट की जिंदगी जीने की बजाय समाज कल्याण के लिये जूझने का भाव मन में होता तो शायद कुछ करता। या न कर पाने की दशा में गांव से पलायन कर गया होता। पर दोनो ही नहीं हैं।
मुसहरों पर कुछ पोस्टें –
मैं थोड़ा बहुत, जो मेरी रिटायरमेण्ट की पेंशन के दान-अंश से हो सकेगा; वही भर करूंगा। बाकी, कोई बड़े परिवर्तन के लिये उन्हे खुद कुछ करना होगा या किसी ईमानदार तारणहार का इंतजार करना होगा।
वे हमारे आसपास आते हैं। हम कोरोनावायरस के समय दूरी बनाये रखने का प्रयास करते हैं। उनकी जमीन पर बनाई गयी झोंपड़ियों पर तिरपाल/पॉलीथीन की शीट लग गयी है। बारिश के मौसम की कुछ तैयारी हो गयी है। एक छोटा सा घर मिट्टी से बना दिखता है जिसमें रेंग कर अंदर जाया जा सकता है। उसमें जो व्यक्ति निकलता है, उसे वे परधान कहते हैं। शायद वह अधेड़ व्यक्ति उनका नेता हो। वह भी कुपोषित लगता है। आंखों में कीचट भरा है। नहाया तो कई दिन से नहीं होगा। शायद कुछ नशा भी करता हो। पर अस्वच्छता, कुपोषण या नशा – इन सब के लिये उन्हे दोष देना समस्या को डक करना ही है।
हमारे पास समाधान नहीं है, और वहां ज्यादा रुकने का धैर्य भी नहीं है। करीब दस मिनट वहां रुकता हूं और अपनी दानवीरता के अहसास को पुष्ट कर वापस हो लेता हूं।
तुम वहां जाते ही क्यों हो, जीडी? पीएम-केयर्स फण्ड में अपनी छोटी राशि दे कर मस्त रहा करो। वह क्यों नहीं करते?
उनकी स्वयं सहायता पी एम केयर फंड में दान से बेहतर है। फंड का कुछ हिस्सा तो बाबूलोग भी खाएंगे।
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