बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं। विषय की कमी हो, ऐसा तो कतई नहीं है। समय की कमी का तो प्रश्न ही नहीं है। बस, तारतम्य नहीं बना। पिछली पोस्ट 14 मई को लिखी थी, आज डेढ़ महीने बाद लिख रही हूं। इस बीच मेरे पति की पोस्टें (लगभग) आती रही हैं।
कोरोना संक्रमण गांव में चारों ओर से घेरने लगा है। आरोग्य सेतु पर पांच किलोमीटर के इलाके में तो कोरोना का कोई मरीज नहीं दिखता, पर पांच से दस किलोमीटर की परिधि में 4-5 मामले नजर में आते हैं। जो समस्या अभी बड़े शहरों में थी, और हम कहते थे कि यह बड़े जगहों की बीमारी है, वह अब गांव की तरफ न केवल आ रही है बल्कि तेजी से फैल रही है। इसके साथ साथ दिनचर्या भी, पहले की ही तरह सामान्य करने की कवायद भी चल रही है। बार बार, बहुत से लोग कह रहे हैं कि हमें इसके साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिये।

लॉकडाउन के समय एक ढर्रा बना था जीने का। उस तरीके के अभ्यस्त हो गये थे। अब उस तरीके से चलते चलते अचानक उसमें बदलाव लाना पड़ रहा है। संक्रमण काल में कोई भी सोच फूलप्रूफ नहीं लगती। घर में “हिट-एण्ड-ट्रॉयल” ही चल रहा है। पर अब लगता है कि जीवन जीना है तो बाहर निकलना ही होगा, सावधानी के साथ।
पिछले दिनों करीब तीन महीने बाद हम लोग बनारस गये। या यूं कहें कि गांव की सीमा से बाहर निकले। मास्क, सेनीटाइजर से लैस और भीड़ भाड़ से पूरी तरह बचते हुये। आधी दुकानें वहां बंद थीं; पर फिर भी डर लगता रहा कि कहीं कोरोना चिपक न जाये। वहां किराने का वह सामान खरीदा जो गांव देहात में उतनी अच्छी गुणवत्ता का नहीं मिलता। बारिश के मौसम में यहां गांव में मिलने वाला कुछ खुला सामान जल्दी ही घुन-फफूंद लगने से खराब हो जाता है। पर जहां तक हो सके, हम गांव की दुकान पर ही निर्भर रहने की आदत डाल चुके हैं। … यद्यपि अपनी जीवन शैली, लम्बे अर्से के लिये, कैसे बदली जाये, यह तय नहीं हो पा रहा है।

आषाढ़ के लगभग गुजर गये महीने ने हर साल की तरह इस बार भी मन को हरा भरा कर दिया है। नये पौधे लाने के लिये नर्सरी जाने की हुड़क रह रह कर उठ रही है। पिछली बार बनारस गये थे तो नर्सरी भी गये, डरते डरते। वहां मानसून के मौसम की खरीददारी की चहल-पहल थी। लोग बहुत थे, इस लिये ज्यादा समय लगाया नहीं। पर मन नहीं भरा। घर के आठ दस बिस्सा के परिसर में नये लगाये जाने हेतु बड़े पेड़-पौधों के लिये जगह बची नहीं है; फिर भी नये पौधे-गमले लाने लगाने की प्लानिंग की जो उमंग मन मेंं उठती है, उसका क्या किया जाये?

नर्सरी जा कर कुछ मोगरे के पौधे तो लाने ही हैं। यूं, बाहर निकलने का खतरा तो है। पूरे देश में हम कोरोना संक्रमण के भंवर में, अभी भी, हम सबसे सुरक्षित जगह पर हैं। जागरण में रोज आंकड़े छपते हैं संक्रमण के। उसके अनुसार दुनियाँ की तुलना में भारत चार गुना सुरक्षित है। और भारत की तुलना में उत्तर प्रदेश चार गुना से ज्यादा सुरक्षित है। उत्तर प्रदेश में भी पूर्वांचल समग्र उत्तर प्रदेश की तुलना में दुगना सुरक्षित है। इसलिये सावधानी से डर को किनारे करते चलना है।
नई पौध के लिये नर्सरी तो जाना ही है! 😆