अशोक शुक्ल ने दैनिक पूजा का लाभ बताया, और वह बड़ा लाभ है!

अशोक कुमार शुक्ल जी के घर लड़की की शादी पड़ी है। शादी के दिन मैं नहीं जा सकता था, तो एक दिन पहले उनके घर जा कर शगुन दे कर आने की सोची। घर पर अशोक थे जरूर, पर पूजा में बैठे थे। विवाह सम्बंधित कोई पूजा नहीं थी; उनकी दैनिक पूजा थी। बताया गया कि नित्य एक घण्टा पूजा में लगता है।

पूजा के बाद अशोक आये और साथ में चाय भी। पीते हुये मैंने उनसे पूछा – मैं आपकी पूजा के धार्मिक पक्ष की बात नहीं कह रहा। जानना चाहता हूं कि आपके रोज के कामकाज में इसका कोई महत्व है? इससे कोई लाभ होता है आपकी दैनिक गतिविधि में?

पण्डित अशोक कुमार शुक्ल अपनी दैनिक पूजा के बाद मिले।

“हां, बहुत लाभ है। दिन में कई बार ऐसा होता है कि मानसिक व्यग्रता होती है। हर व्यक्ति को होती है। एक बार व्यग्र होने पर व्यक्ति उससे बहुत देर तक जूझता है। पर पूजा का लाभ यह है कि मैं पांच या दस मिनट तक ही व्यग्र होता हूं। उसके बाद सोचता हूं, स्मरण (ईश्वर का स्मरण) करता हूं और व्यग्रता उनको सरेण्डर कर देता हूं।… उस समर्पण के बाद वह समस्या उनकी हो जाती है। नित्य पूजा के प्रभाव से यह स्मरण और समर्पण बड़े सहज तरीके से होता है। आदत की तरह। किसी किसी दिन जब पूजा में विघ्न होता है तो बेचैनी होती है।”

अशोक जी की इस बात से मुझे श्री अरविंद की याद हो आयी। वे Letters on Yoga में लिखते हैं – Step back and remember The Mother:

It is more difficult to separate oneself from the mind when it is active than from the body. It is quite possible however for one part of the mind to stand back and remember the Mother and receive her presence and the force while the other is busy with the work.

Meanwhile what you are doing is the right way.

Remember always that whatever the difficulties the Mother’s love is with you and will lead you through.

Ref: Letters on Yoga – IV

[आपके मस्तिष्क का एक भाग काम में लगा हो सकता है पर दूसरा भाग रुक कर माँ का स्मरण करता है। ऐसा करने से माँ का प्यार आपकी समस्याओं से आपको पार लगाता है।]

दो दशक पहले वह समय था जब मैं श्री अरविंदो आश्रम के साधकों से सम्पर्क में रहता था। उस समय थोड़े थोड़े समय पर रुक कर स्मरण (और समर्पण) का अभ्यास किया करता था और उससे मेरी व्यग्रता में बहुत कमी हुआ करती थी। आज पण्डित अशोक कुमार शुक्ल ने वही बात एक अन्य प्रकार से मेरे सामने रखी। आजकल मैं कई प्रकार के दु:स्वप्नों को अचेतन में देखता हूं और मन के पार्श्व में कुछ व्यग्रतायें हैं, जिनका स्वरूप और आकार मुझे स्पष्ट नहीं है। अनिश्चित भविष्य की व्यग्रतायें। अशोक पण्डित ने सुझा दिया कि उन व्यग्रताओं को असीम सत्ता को समर्पित/सरेण्डर कर देना एक पुख्ता समाधान है।

मुझे लगता है कि “स्टेप बैक एण्ड रिमेम्बर” एक प्रकार से सतत ध्यान (meditation) की आदत है। अन्य ध्यान पद्धतियां भी यह लाभ न्यूनाधिक मात्रा में देती होंगी।

उदाहरण के लिये मैंने पाया कि सेपियंस के प्रख्यात लेखक युवाल नोवा हरारी ने अपनी एकाग्रता और लेखन की उत्कृष्टता के लिये विपस्सना को बड़ा सहायक बताया है। दुनियां में जिन लोगों से वे प्रभावित हैं, उनमें विपस्सना गुरु एस जी गोयनका प्रमुख हैं। हरारी अपने जीवन में नित्य कार्यों की लिस्ट बनाने और उसके अनुसार चलने पर बहुुत जोर देते हैं और बताते हैं कि लिस्ट में सबसे महत्वपूर्ण आइटम दो घण्टे की विपस्सना होता है। उसी का परिणाम है कि वे अपने लेखन और अपने व्याख्यानों के लिये गहन चिंतन कर पाते हैं। सेपियंस उन्होने अपने हिब्रू विश्वविद्यालय में पहले साल के विद्यार्थियों के लिये दिये नोट्स के आधार पर लिखी थी। उसके पहले रूप की 2000 प्रतियां बिकीं। हरारी ने सोचा कि शायद यही सीमा है उनके लेखन की। पर उनके पति (वे समलैंगिक हैं) ने उन्हे विपस्सना के लिये प्रेरित किया। और उसका परिणाम है कि उनकी पुस्तकें कालजयी हो गयी हैं। आप उनके टिम फेरिस शो के इस पौने दो घण्टे के इण्टरव्यू का श्रवण करें।

अशोक जी का बड़ा कुटुम्ब है। वे छ भाइयों में सबसे बड़े हैं। पर शायद सबसे प्रतिभावान भी हैं। वे किसान भी हैं और संस्कृत के अध्यापक भी। जजमानी/पण्डिताई भी होगी। उनके बोलने का ढंग बहुत प्रभावी है। गांवदेहात में वैसी वक्तृता शक्ति कम ही मिलती है। उनके पिता बाला प्रसाद शुक्ल भी 84 वर्ष की उम्र में बहुत एक्टिव हैं। उनकी घनी शिखा जो उनके वक्ष तक आ रही थी, मुझे बहुत अकर्षक लगी। उनको मैंने चरण स्पर्श किया तो बहुत आत्मीयता से उन्होने आशीष दिया। लालचंद जी (जो मुझे उनके घर ले गये थे) ने बताया कि वे आस पास की जमीन में खुरपी ले कर लगे रहते हैं। शायद वही उनके स्वास्थ्य का राज है।

पण्डित बाला प्रसाद शुक्ल, अशोक कुमार जी के पिताजी।

अशोक जी ने अपनी व्यग्रता निवारण के लिये ही नहीं, अपने दु:ख और शोक से उबरने में भी दैनिक पूजा के महत्व को रेखांकित किया। उनके अनुसार अभावों के कारण दु:ख तो होते ही हैं। उनसे उबरने के लिये स्मरण और समर्पण बहुत काम आता है। उन्होने कहा कि शोक और दु:ख अलग अलग मानसिक अवस्थायें हैं। जहां दु:ख का मूल अभाव में है; वहीं शोक अज्ञान से उपजता है – अज्ञान प्रभवं शोक: (गरुड़ पुराण)।

शायद दु:ख तो कर्मठता और अपने जीवन के अभावों को दूर करने के यत्न से शमित हो सकते हैं; पर शोक के निवारण के लिये सत्य और मिथ्या के अंतर को समझना और अपने जीवन के मूलभूत दार्शनिक उत्तर पाने की जद्दोजहद से गुजरना होगा। दु:ख बाह्य प्रयत्नों के डोमेन में है। शोक की समझ के लिये अपने अंदर जाना होगा। ध्यान और पूजा (पूजा भी ध्यान की एक विधा है, नहीं? अशोक पण्डित के साथ बैठा तो इस पर चर्चा करूंगा) उसमें सहायक हो सकते हैं। या शायद वे ही औजार हों शोक की सर्जरी के।

सर्दी का मौसम, गुनगुनी धूप और अशोक कुमार शुक्ल जी से मुलाकात। मुझे लगा कि मेरा दिन बन गया। पिछले वर्ष मेरे पिताजी की मृत्यु हुई थी। माता के जाने के बाद वही मेरे माता-पिता थे। उनके जाने की रिक्तता अभी भी भरी नहीं है। शोक जब तब मौका पाता है, मेरे अंदर पसर जाता है। अशोक जी की मानूं तो वह मेरे अज्ञान में वास करता है।

ज्ञानी बनो, जीडी। केवल नाम भर ज्ञानदत्त होने से कोई समाधान नहीं होने वाला।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

2 thoughts on “अशोक शुक्ल ने दैनिक पूजा का लाभ बताया, और वह बड़ा लाभ है!

  1. १४ वर्ष पूर्व छोटी बहन की असामयिक मृत्यु ने मुझे ४१ वर्ष की उम्र में दुःख/शोक के बीच का बारीक अंतर समझाया, ये भी जाना की दुःख को शत्रु समझ कर उस से जूझा जा सकता है जीता भी जा सकता है पर शोक को उस किरायेदार की तरह सहन करना पड़ता है जो कभी आपका घर खाली नहीं करेगा! उसके साथ थोड़ी बहुत मित्रता कर लेने में ही भलाई है, कि कभी उसके हिस्से में जा कर चाय पानी पी कर मित्रता का नाटक किया जाये, कभी उसे इग्नोर किया जाए, कभी उसे ये मान कर स्वीकार कर लिया जाये कि घर का वो हिस्सा आपका था ही नहीं! रिक्तताएँ भरती नहीं, बस हम उनके ऊपर से कूद कर या बगल से हो कर गुजर जाना सीख जाते हैं!

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    1. शोक से पार पाना मैं सीख न पाया. कभी लगता है स्मृति लोप हो तो शायद काम बने. पर स्मृति न होना तो अस्तित्व न होना बराबर है. 😒

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