शांति, बद्री साधू और बंसी

तीन दिन वे नहीं दिखी थीं। और मेरे मन में कुछ होने लगा था। बुढ़िया, अशक्त और कोई पुख्ता सोशल सिक्यूरिटी नहीं। कहीं कुछ हो न गया हो।

परसों सड़क के दूसरी ओर के किराना दुकानदार से उनके बारे में रुक कर पूछा भी था।

दुकानदार से शांति बारे में रुक कर पूछा भी था।

उनका नाम है शांति, जैसा मैंने पिछली पोस्ट में लिखा भी था। उसके अलावा उनके बारे में विशेष जानकारी नहीं थी। अब कुछ जानकारी सुभाष (रवींद्रनाथ दुबे) जी ने दी है।

शांति को बंगाल से बंसी साथ ले कर आये थे। विवाह कर ही लाये थे। पर उनके गांव के ब्राह्मण समाज ने (शायद) विजातीय या विप्रांतीय महिला/किशोरी को ले कर आना स्वीकार नहीं किया। तब बंसी के मामा, बद्री साधू ने उन्हे अपने घर यहां इस गांव में आश्रय दिया। यहां भी शायद कुछ सामाजिक अनिच्छा रही हो; पर वे यहीं रम गयीं।

बद्री साधू

बद्री साधू के बारे में रवींद्रनाथ जी ने बताया कि वे बहुत आकर्षक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति थे। शुरुआत में वे साधू हो कर अयोध्या चले गये थे। शायद वैराग्य में कुछ मन नहीं रमा, या शायद उन्हे पता चला कि चकबंदी के बाद उन्हें जमीन मिलने वाली है, वे वापस गांव लौट आये। उनका लौटना कुछ लोगों को पसंद नहीं आया। विशेषकर उन लोगों को, जिन्हे उनके न रहने से जमीन मिल जाती। उन्होने बद्री को बद्री मानने से इनकार कर दिया। पर बद्री अपनी पहचान, और लोगों की गवाही से, स्थापित करने में सफल रहे। इस पूरे प्रकरण के बाद वे आजीवन अविवाहित रहे।

बद्री साधू – इसी नाम से वे जाने जाने लगे। वे रामचरित मानस के अच्छे पाठक थे। अन्य ग्रंथों पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी। नौजवान लोग, जिनमेंं रवींद्रनाथ भी थे, उनके पास समय व्यतीत करने में रस पाते थे। बद्री साधू अपना भोजन एक ही बार बनाते थे। सादा भोजन – भात, दाल, चोखा। भोजन बनाते जाते थे और नौजवान मण्डली का मानस उच्चारण भी सुनते जाते थे। बीच बीच में, गलत उच्चारण होने पर हस्तक्षेप भी करते थे।

बद्री साधू की धार्मिकता का उनकी वेश-भूषा से भी लेना देना था। चौड़ा ललाट था। शरीर भी स्वस्थ। साफ कपड़े पहनते थे और मेक-अप में भी उन्हे घण्टा भर लगता था। उनके आकर्षक व्यक्तित्व और वजनदार आवाज का लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ता था।

मेरी पत्नीजी की भी बद्री साधू के बारे में यादें हैं। उनके बचपन में बद्री के घर की ओर जाने की मनाही थी, पर वे बच्चे किसी प्रकार निकल कर पंहुच ही जाते थे। साफ सुथरा कमरा हुआ करता था बद्री साधू का। वहां गुड़-पानी और अन्य कुछ भी खाने को मिल जाता था। बद्री ने कुछ बाग-बगीचा भी लगाया था। कुल मिला कर बद्री साधू के घर जाना अच्छा लगता था उनको।

और, सब जगह से बहरियाये गये बंसी तथा उनकी पत्नी शांति को बद्री साधू ने ही शरण दी थी।

बंसी और शांति

बंसी कलकत्ता में सम्भवत: ड्राइवर थे। बंगाल में कहीं वे शांति के सम्पर्क में आये होंगे और उनसे विवाह कर अपने गांव वापस लौटे। गांव में उन्हे स्वीकार नहीं किया गया। तब बंसी के मामा, बद्री साधू ने उन्हें अपने यहां आश्रय दिया। पर्सनालिटी बंसी की भी आकर्षक थी और शांति भी सुंदर थीं। बंगला किशोरी पूर्वी उत्तर प्रदेश के वातावरण को समझती नहीं थी।

मेरी पत्नी जी अपने बचपन की शान्ति के बारे में उस समय के अपने एक हम उम्र बालक का कहा याद करती हैं। उसने बताया था – “अरे वह कछाड़ मार कर (अपनी साड़ी कमर तक लपेट कर) पोखरा (तालाब) में झम्म से छलांग लगाती है और हम लोगों से कहती है – आओ, तुम भी आओ, तैरो!” निश्चय ही, गांव के बच्चों के लिये किसी विवाहित महिला का ताल में यूं नहाने के लिये कूदना और तैरना एक अजूबा था।

शांति गांव की सामाजिक व्यवस्था के लिये एक बड़ा विघटक तत्व थीं! और शायद अब भी हैं।

कालांतर और वर्तमान

शांति बैठी थीं आज अपनी जगह पर

रवींद्रनाथ जी बताते हैं कि उसके बाद वे गांव में नहीं रहे। अपनी आजीविका के सम्बंध में बम्बई शिफ्ट हो गये। गांव में उनका आना जाना कम होता गया। उसके बाद बद्री साधू भी चल बसे। अब रवींद्रनाथ मेरी तरह रिटायर हो कर गांव में रमने – रहने आये हैं। उनके पास बहुत यादें हैं #गांवदेहात की। मीठी-खट्टी सब प्रकार की!

अपने बगीचे में सवेरे श्रम करते रवींद्रनाथ दुबे और उनकी पत्नी जी।

जितना आकर्षक उनका यौवन और अधेड़ावस्था थी, उतना ही दारुण उनका बुढ़ापा था। मैले कुचैले वस्त्रों में बैठे रहते थे। शांतिं जबान की तेज थीं। बंगला-हिंदी-भोजपुरी के बीच अच्छा तालमेल भी नहीं था। बद्री साधू को सधुय्या – सधुय्या कह कर सम्बोधित करती थीं, जो शायद उनका आशय नहीं था, पर वृद्ध बद्री के प्रति हिकारत दर्शाता सा प्रतीत होता था। फिर बंसी भी नहीं रहे। शांति के लड़के विरासत सम्भालने के बारे में कच्चे साबित हुये। … कुल मिला कर शांति का वर्तमान जो है, वह सामने दीखता है।

चार दिन पहले शांति देवी बैठी थीं उसी स्थान पर। उनकी गोद में एक जलेबी का प्लास्टिक का थैला था। कोई दे गया होगा। वह जलेबी खा रही थीं। उसके बाद तीन दिन वे दिखी नहीं। पड़ोस के दुकानदार ने बताया था कि घर में ही हैं। अब पौरुख नहीं है उनमें। बहत्तर-पचहत्तर की उम्र होगी। सुन लेती हैं पर आवाज बहुत कम निकलती है। अंग लकवा मारने के कारण शिथिल हैं। बुढापा दबोच रहा है। बुढापे के समय आर्थिक पुख्तापन कुछ सहायता करता है। शांति के पास वह भी नहीं है। रवींद्रनाथ बताते हैं कि उनका बेटा शांति की दशकों तक मदद करता रहा है। अब भी करता ही होगा। रवींद्रनाथ स्वयम उनके लिये हृदय में कोमलता रखते हैं।

पर अपनी जरावस्था तो शांति देवी को स्वयम ही काटनी है। … स्वर्गारोहण में तो अंतत: श्वान (स्वधर्म) ही साथ बचता है।

खैर, आज शांति देवी अपने स्थान पर बैठे दिखीं और उन्होने धीरे धीरे हाथ उठा कर मुझे नमस्कार किया। उनका उत्तर देते समय मुझे सुकून हुआ। … शांति का जीवन शांतिमय हो और हम उनके लिये, जो यथायोग्य सम्भव हो, कर सकें; यही सोचता हूं!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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