अशोक (मेरा वाहन चालक) बताता है कि उनका नाम शांति है। वे रोज सवेरे मुझे सड़क के किनारे यूं एक कुर्सी पर बैठे नजर आती हैं। मेरी पत्नीजी का कहना है कि उन्हें शायद लकवा का अटैक हुआ था। अब बेहतर हैं पर बोल नहीं पातीं। सुन लेती हैं। इशारों से बात करती हैं। गली की सड़क के किनारे बैठने पर आते जाते लोगों को देखना शायद अच्छा लगता हो।
गांव की ब्राह्मण बस्ती में शायद अगर किसी को मदद की सख्त जरूरत है तो उन्हें है। गांव मदद करता है, या नहीं, मैं नहीं कह सकता। इस प्रकार के वृद्ध लोगों की सहायता के लिये एक सामुहिक फण्ड होना चाहिये। सभी परिवार उसमें मासिक योगदान दें और उससे एक समिति तय करे कि किन व्यक्तियों को मासिक सहायता दी जाये। लोग भोज और समारोह में अनाप शनाप खर्च कर देते हैं, पर इस तरह के काम के लिए नहीं।
ब्राह्मणों में वृद्धों और उनमें विशेषत: महिलाओं की दशा दयनीय है। वृद्ध अशक्त होते ही उपेक्षित होने लगते हैं। महिलायें तो और भी। शांति, या जो भी नाम है उनका, और भी अशक्त, और भी उपेक्षित नजर आती हैं मुझे।

मैं उन्हे रोज सवेरे साढ़े सात बजे इस तरह बैठे देखता हूं। आजकल मेरी नित्य की क्रिया में पण्डित देवेंद्रनाथ जी के अहाता में गाय का दूध लेने जाना होता है। और हर दिन वे मुझे इसी मुद्रा में बैठी दिखती हैं। पूर्व की ओर से मुंह पर आती रोशनी से उनके मुंह का दांया भाग चमकता है। मुंह पूरी तरह सममित है – well proportioned. यौवनावस्था में सुंदर रही होंगी। अब तो देख कर करुणा का भाव ही आता है।
वे अपने हाथ जोड़ कर मुझे नमस्कार करती हैं। मैं उसका उत्तर देता हूं। और उत्तर देते समय हमेशा मेरे मन में आता है कि उनकी सहायता करनी चाहिये। मेरी पत्नी जी कहती हैं कि उनके घर में मुख्य कमरा – बद्री साधू का कमरा – तो खण्डहर हो गया है। इनके पति बंसी के मामा थे बद्री। बंसी अपने मामा के यहां आ कर रहे। अब बद्री नहीं हैं, बंसी भी नहीं हैं। बंसी के दो बेटे विरासत ठीक से संभाल-संवर्धन नहीं कर पाये।
इस गांव में पंचायती प्रधानी कम से कम पच्चीस साल से सवर्णों के पास रही। जाने कितनी योजनायें आयीं। आवास की योजना, शौचालय की योजना, सोलर लाइट की योजना। उन सब योजनाओं ने भी इस महिला को नहीं छुआ। … मेरी पत्नीजी उस सब को सवर्ण वर्ग की सामान्य उपेक्षा का उदाहरण मानती हैं। सवर्ण अपनी गरीबी और बदहाली को भुनाने में संकोच करता है तो उसे योजनाओं का लाभ कम ही मिलता है।
मेरे पास उनके बारे में बहुत जानकारी नहीं है। हमारी ओर से कोई विशेष पहल भी नहीं है। मैं अपनी पेंशन में अपने परिवार को पालते हुये थोड़ी बहुत सहायता, जो कर सकता हूं, उससे आगे नहीं सोचता। या सोचता भी हूं तो वह मात्र मानसिक मंथन भर है। मैं पूरी तरह अपने को सामाजिक ताने बाने में उलझाने से या गांव की जिंदगी में परिवर्तन की कोई कोशिश नहीं करता। मुझे लगता है रिटायरमेंट मेरे व्यक्तिगत सुकून से जीने और अपनी जिंदगी को अपनी सीमित रचनात्मकता में रमाने का अवसर है। और मुझे पुन: राजसिक वृत्तियों में नहीं उलझाना चाहिये।
पर तब, रोज सवेरे यह महिला दिखती है। उनकी धीरे से हाथ उठा कर नमस्कार करने की मुद्रा सामने आ ही जाती है। मैं उसका उत्तर देते हुये चलता चला जाता हूं। सोचने जरूर लगता हूं मैं।
किसी स्थानीय जनसेवक या आर एस एस के स्वयंसेवक से इस महिला के बारे मे जानकारी दे तो योजनाओ का लाभ मिलने लगेगा/ शासन तक बात जब तक नहीं पहुचेगी तब तक सहायता संभव नहीं होगी/ सरकार की योजनाओ का लाभ लेने के लिए कुछ न कुछ करना होता है / यहां आसपास होता तो मैं आपकी मदद करता /
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विकास के मानक उनको सक्षम मानकर बैठे हैं। गाँव में तो फिर भी एक दूसरे के बारे में जागरूकता है, शहरों में क्या स्थिति होगी?
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