अगर एन.आर.आई. होते हैं – नॉन रेजिडेण्ट इण्डियन तो वे लोग जो गांव छोड़ कर लम्बे अर्से से मेट्रो शहरों में रहने लग गये हों और जिनकी अगली पीढ़ी वहीं पली-बढ़ी हो; वहीं के सपने देखती हो; वहीं के आचार-विचार-व्यवहार जीती हो; उन लोगों को एन.आर.वी. – नॉन रेजिडेण्ट विलेजर (Non Resident Villager) कहा जा सकता है। इस गांव के श्री रवींद्रनाथ दुबे जी को उस श्रेणी में रखा जा सकता है।

आज रवींद्रनाथ जी गांव (विक्रमपुर) से लसमणा की प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क पर सवेरे की सैर करते मिल गये। मैँ साइकिल से वापस लौट रहा था और वे आगे जा रहे थे। बोले कि बड़े डरते डरते घर से निकले हैं। हाइवे पर उन्हे आशंका थी कि कोरोनावायरस सम्बंधी लॉकडाउन में कहीं कोई पुलीस वाला न मिले और अपनी लाठी के जोर पर अभद्रता न कर बैठे। उनके पास एक बढ़िया चमकती बेंत वाली छड़ी थी। पैण्ट और बंडी पहने थे। साफ और सुरुचिपूर्ण वेश। उनका चेहरा सवेरे की सूरज की रोशनी में चमक रहा था। वे अत्यंत शरीफ और सरल लगते हैं। बहुत ही प्रिय और मोहक व्यक्तित्व है उनका।
सोशल डिस्टेंसिंग, लॉकडाउन और कोविड19 का समय। सड़क खाली थी। हम दो ही थे सड़क के बीचोबीच। पर दोनो को सवेरे के भ्रमण का अनुष्ठान पूरा कर अपने अपने दड़बों में लौटने की जल्दी थी। थोड़ी बातचीत कर अपने अपने रास्ते हो लिये हम।
रवींद्रनाथ (गांव में उन्हें सुभाष कहते हैं, पता नहीं क्यों। उनसे कभी पूछूंगा) अपने दम पर अपना भाग्य लिखने वाले व्यक्ति हैं। सेल्फ़-मेड आदमी। गांव और उसके आसपास से उन्होने कॉमर्स की पढ़ाई की थी। बहुत समय तक जब ठीकठाक नौकरी नहीं लगी तो पिताजी ने कहा कि गाय गोरू पाल कर जीविका चलाओ (ऐसा मुझे लोगों ने बताया)। रवींद्रनाथ के आत्मसम्मान को ठेस लगी और वे बम्बई चले गये। वहां एक कॉलेज में अकाउण्टटेण्ट की नौकरी की। उसके साथ पत्नी के सहयोग से अन्य व्यवसाय भी किये। कड़ी मेहनत, पत्नी के सहयोग और भागीदारी से वह सब पा सके वे, जो यहाँ गांव में रहते न हो पाता। अब गांव के लोगों के लिये वे एक रोल मॉडल हैं। और कुछ के लिये ईर्ष्या का कारण भी (शायद)।
उनकी अगली पीढ़ी बम्बई की है, पर आती जाती रहती है गांव में भी। उससे अगली वाली पीढ़ी शायद पूर्णत: मेट्रो शहरी हो। या शायद एक पैर परदेस में भी रखती हो। पर जैसा मैं देखता हूं, रवींद्रनाथ जी और उनकी पत्नी अपनी सीनियर सिटीजन वाली जिंदगी – वानप्रस्थाश्रम काटने के लिये उहापोह में हैं। वे बहुधा गांव और शहर के बीच फ्लिप-फ्लॉप करते रहते हैं। मेरे लिये यह जिज्ञासा का विषय है कि अंतत: वे किसको अपना दूसरी ईनिंग का बेस बनाते हैं।
वे गांव आते हैं तो उनके लिये यहां छोटी-मोटी असुविधाओं के अलावा कोई बड़ी अड़चन नहीं है। पट्टीदारी में अगली पीढ़ी उनकी भक्त है। उनके कहे अनुसार उनकी आवश्यकताओंं का ख्याल रखती है। आने पर बंद घर की साफ सफाई, बिजली की समस्या, गैजेट्स का खराब मिलना आदि कुछ झन्झट होते हैं, पर उन्हे लोग भी मिल जाते हैं समाधान करने के लिये। इस तरह वे गांव में अपना दूसरी ईनिंग बिताने का निर्णय लें तो वस्तुओं और सुविधाओं की समस्या तो नहीं होगी।
मैंंअपने से उनकी तुलना करता हूं। मैंने दूसरी पारी गांव में बिताने का निर्णय किया और अकस्मात अपनी रहन सहन की शैली को बदल डाला। झटके से अपने को चबीस घण्टे वातानुकूलित वातावरण से निकाल कर शून्य घण्टे वातानुकूलित परिवेश में ढाला। रवींद्रनाथ जी के साथ वह क्वाण्टम परिवर्तन की समस्या नहीं होगी। वे अपने रूट्स – अपने गांव से हर समय किसी न किसी प्रकार जुड़े रहे हैं। वे मेरी तरह “बाहरी” नहीं हैं।
फिर भी, रवींद्रनाथ जी को कुछ समस्यायें दो-चार होंगी गांव में रहने का निर्णय कर लेने पर। गांव में अनेक परजीवी होते हैं। उनको चिन्हित कर जब आप उनका पोषण बंद करते हैं – और अपने शारीरिक, मानसिक, आर्थिक स्वास्थ्य के लिये कभी न कभी वह करना ही होता है; तब वे परजीवी विघ्नकारक हो जाते हैं। उस परिस्थिति से निपटने के लिये अपनी पर्याप्त सोशल डिस्टेंसिंग करनी पड़ती है। गांव में आने वाला व्यक्ति जब सद्भाव और सामाजिकता की तलाश में आता है तो यह द्वंद्व कष्टदायक हो जाता है।
इसके अलावा गांव देहात की मीडियॉक्रिटी (mediocrity) के अपने खलीफा होते हैं। अपने द्वीप। अगर आप उस भदेसपन को माइनर इर्रीटेण्ट मान कर चल सकते हैं, तब तो ठीक; पर जब आपको यदा कदा मीडियॉक्रिटी से खुन्नस होती है तब ये द्वीप फैलना प्रारम्भ कर देते हैं। तब आपको लगता है कि आप बहुत बड़े चुगद थे जो यहाँ परमानेण्ट रिहायश का निर्णय कर लिये।
ऐसे तत्व सर्वव्यापी हैं। शहर में भी हैं पर गांव में उनका प्रभाव ज्यादा पीड़ादायक होता है। गांव का केनवास विस्तृत नहीं होता और आपकी चुनने की फ्रीडम उतनी नहीं होती कि आप बगल से निकल जाएं! 😆

ये कुछ मुद्दे हैं, जिनपर मेरी रवींद्र जी से कभी चर्चा नहीं हुई। शायद उसके लिये हमारी फ्रीक्वेंसी पूरी तरह सिंक्रोनाइज्ड नहीं है। कभी हुई तो विस्तार से समझने जानने का यत्न करूंगा। और यह भी जानना चाहूंगा कि रवींद्रनाथ जी ने (अपनी जवानी के दिनों में) किस तरह समस्याओं से जूझते हुये बम्बई जैसे (दानवीय) शहर में अपने लिये स्थान बनाया और सफल हुये। आखिर, सफलता की कहानी किसको आकर्षित नहीं करती?!
वह सब भविष्य के लिये…
रवीन्द्र जी से मिलकर अच्छा लगा। उनके संघर्ष की कहानी मैं भी जानना चाहूँगा। हाँ, अब देखना यह है कि वह गाँव में पूरी तरह आते हैं या नहीं। कभी कभी मुझे लगता है यहाँ मैं उपन्यास पढ़ रहा होऊँ। हर रोज नये नये रोचक किरदार मिल जाते हैं और उनकी ज़िन्दगी के विषय में जानने को मन उत्सुक हो जाता है। आभार।
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सही कहा। उस दिन सारा देश एक साथ खड़ा था। बस इसी तरह एकता से इस विपदा से लड़ना है। आभार।
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