रिटायरमेण्ट@45

कुलदीप मिश्र (उर्फ कुलदीप सरदार) तीस साल के जवान हैं। पत्रकारिता के इलाके में हैं। उनकी प्रोफाइल बताती है कि डेढ़ पौने दो साल से इण्डिया टुडे समूह में एसोशियेट एडीटर हैं। मुझे अंदाज नहीं कि एसोसियेट एडीटर किस औकात का पद होता है, पर देखने में बड़ा प्रभावशाली लगता है; वह भी तीस साल के नौजवान के लिये। उदाहरण के लिये अगर मैंने रेलवे यातायात सेवा की राजपत्रित नौकरी ज्वाइन न की होती और अपनी रुचि के अनुसार विश्वविद्यालय में प्रवक्ता बना होता, तो पैंतालीस पचास की उम्र में (कुलदीप जी की उम्र से 15-20 साल बाद) असिस्टेण्ट या एसोसियेट प्रोफेसर ही बना होता।

कुलदीप मिश्र

सो कल जब कुलदीप जी का फोन आया और उनके बारे में कुछ पता चला तो मैं प्रभावित ही नहीं हुआ, मैं अतीत के तीस साल की उम्र के ज्ञानदत्त पाण्डेय से उनकी तुलना के मोड में आ गया। ऐसा नहीं कि कुलदीप की तुलना में अपनी मेधा या अपनी उपलब्धियों को कम या अधिक कर आंकने का प्रयास करने लगा – हम दोनो के रास्ते, प्रोफेशन और (सम्भवत:) रुचियां अलग अलग प्रकार की हों, या रही हों; पर जो बात मुझे चमत्कृत करने लगी वह तब के और आज के तीस साला युवा की जिंदगी में आये अपने भविष्य के स्वप्नों में (व्यापक) बदलाव को ले कर है।

कुलदीप जी ने बताया कि उनकी शादी हाल ही में हुई है। उनकी पत्नी भी पत्रकार हैं। वे भी इण्डिया टुडे समूह के ‘लल्लनटॉप’ में जुड़ी हैं। वे दोनो एक ही फील्ड में एक ही प्रकार के काम में हैं – यह बड़ा ही अच्छा है। दोनों में उत्कृष्टता को ले कर स्वस्थ प्रतिद्वन्द्विता भी हो सकती है और दोनो एक दूसरे को प्रोफेशनली परिपुष्ट भी कर सकते हैं। दोनो अपनी योग्यताओं से भविष्य की योजनायें कहीं अधिक सार्थक तरीके से बना सकते हैं।

कुलदीप जी ने एक बात कही, जो मेरे मन में गहरे से पैठ गयी वह थी उनकी पैंतालीस की उम्र से पहले शीर्ष को प्राप्त कर लेने की इच्छा और उसके बाद रिटायरमेण्ट की सुकून भरी जिंदगी का स्वप्न! कमाने और प्रभुता पाने की जो रैट रेस है – जो मेरे समय में भी थी, पर इतनी नहीं थी – अब बहुत भीषण हो गयी है। हम लोग जो पचपन की उम्र में ‘बर्न-आउट’ महसूस करते थे, वह शायद अब लोग पैंतीस-चालीस की उम्र में करने लग गये हैं। फिर भी, अर्जन के अवसर इतने अधिक हो गये हैं कि एक व्यक्ति 28-30 साल की उम्र में पंद्रह साल बाद रिटायरमेण्ट की सोचने लगा है। इस संदर्भ में काफी साहित्य और सेल्फ-हेल्प पुस्तकें, ब्लॉग, व्लॉग, पॉडकास्ट आदि भी उपलब्ध हैं।

पैंतालीस की उम्र में जूते टांग देना अब महज शेखचिल्लियत नहीं रही; वह मनुष्य की मुठ्ठी में आने वाली चीज हो गयी है। यद्यपि, मेरा सोचना है कि वह सरल नहीं है। और पैंतालीस के बाद का कुलदीप जी का पोस्ट-रिटायरमेण्ट मेरी तरह साइकिल ले कर घूमना तथा ब्लॉग या सोशल मीडिया पर दो चार पोस्ट ठेल देना भर नहीं हो सकता है। वह काफी कुछ एक्टिव या हाइपर एक्टिव होगा। यह उपभोक्तावाद की बुनियाद पर चल रही दुनियाँ चैन लेने नहीं देगी – ऐसा मेरा मानना है!

मंगोलियन भोजन खोजी Photo by Julia Volk on Pexels.com

मैं युवाल नोवा हरारी की पुस्तक से उद्धरण देता हूं। हरारी के अनुसार भोजन-खोजी मानव जब खेती करने लगा तो उसे बहुत अच्छा लगा होगा। उसके जीवन में स्थायित्व आया होगा। वह घुमंतू जिंदगी छोड़ घर बसाने, खेती करने, गुड़ाई निराई में लगा रहने वाला हो गया। पर तब वह अपनी खेती पर इतना आश्रित हो गया था कि खेती बिगड़ने पर अकाल और भुखमरी का सामना भी उसे ज्यादा ही होने लगा। उसे खेती पर काम करने के लिये लोगों की जरूरत पड़ने लगी तो बच्चे भी पैदा करने की ज्यादा से ज्यादा जरूरत हुई। उनके लिये खाने के लिये ज्यादा अनाज भी चाहिये था। … वह रैट-रेस में धंसता गया। इतना धंसा कि वह अपने आप को खेती ईजाद कर, हल चला कर अभूतपूर्व प्रोडक्टिविटी बढ़ाने वाला तीसमारखाँ समझने लगा। पर वास्तव में वह गेंहू जैसी एक जंगली घास का दास ही बना।

“वास्तव में मानव गेंहू जैसी एक जंगली घास का दास ही बना”
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आज भी कृषि युग वाली जैसी ही दशा है। सेपियंस पुस्तक के निम्न उद्धरण को देखें –

‘सेपियंस’ से एक उद्धरण। अध्याय 5 – इतिहास का सबसे बड़ा धोखा

आज से आधा शताब्दी बाद अगर कोई सेपियंस का आधुनिक सीक्वेल लिखेगा तो मोबाइल, इण्टर्नेट, डिजिटल गैजेट्स और आर्टीफीशियल इण्टैलिजेंस के चक्र (दुश्चक्र?) में लिप्त आज के नौजवान की तुलना भोजन-खोजी से खेती के व्यवसाय में आये आदिमानव से कर यह निष्कर्ष निकालेगा कि यह डिजिटल क्रांति भी ‘इतिहास का सबसे बड़ा धोखा’ ही थी! एक ऐसी क्रांति, जिसे हम अनिवार्य या अवश्यम्भावी मानने के सिवाय कुछ और सोच या कर नहीं सकते।

और, मुझे यह विश्वास नहीं होता कि जब लॉगेविटी 100 साल की हो जायेगी तो पैंतालीस की उम्र में रिटायर हो कर लोग बाकी के पांच दशक सशक्त और रचनात्मक तरीके से विलासिता की हाय हाय में न फंसते हुये, हर साल नये बनते गैजेट्स को लेते बदलते रहने या नये मॉडल की सेल्फ ड्रिवन कार लिये बिना बिता सकेंगे। वे कैसे हर साल अपनी पत्नी को नये ब्राण्ड के डिजिटल गहने की गिफ्ट देने की चिंता से मुक्त रह सकेंगे, जब उनके जीवन की बुनियाद में ही उपभोक्तावाद का अर्थशास्त्र है। कैसे वे सुकूनात्मक तरीके से जी सकेंगे?

मैं यह भ्रम नहीं पाले हूं कि मेरे निष्कर्ष सही हैं। मैं यह भी नहीं कहना चाहता कि कुलदीप मिश्र और उनकी युवा पत्नीजी “रिटायरमेण्ट@45” का लक्ष्य नहीं पा सकते। मेरे ख्याल से एक ठीकठाक मध्यवर्गीय जीवन जीने के लिये (आजकी कीमतों पर) 8 करोड़ का कॉर्पस पर्याप्त है। और वह वे दोनो अपने अर्जन से 45 की उम्र तक यह लक्ष्य पा सकते हैं। लेकिन मितव्ययता, संतोष और अपनी चाहतों (wants) के पीछे भागने का दमन एक घोर अनुशासन है। यह घोर अनुशासन मैं तो नहीं कर पाया। पर यह मान कर चला जाये कि मिश्र दम्पति में वह संकल्प शक्ति होगी और खूब होगी!

इस रिटायरमेण्ट@45 के ध्येय की सफल प्राप्ति के लिये कुलदीप मिश्र दम्पति को ढेरों शुभकामनायें!


इस मुद्दे पर मैंने धीरेंद्र कुमार दुबे, अपने बड़े साले साहब को भी सोचने और अपने निष्कर्ष बताने को कहा है। धीरेंद्र मेरी तरह अपने को गांव की सीमाओं में ‘कूर्मोंगानीव’ समेटे नहीं हैं। वे बेंगलुरु में रहते हैं और उन्हे देश परदेश के लोगों को ऑब्जर्व करने का व्यापक अनुभव है। वे जैसा बतायेंगे, उसके अनुसार मैं इस पोस्ट का दूसरा भाग प्रस्तुत करूंगा। आशा है, वे जल्दी ही अपने विचार प्रकटित करेंगे! 😀


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

10 thoughts on “रिटायरमेण्ट@45

  1. पिछले 3 साल से इसी विषय पर सोच रहा हूं किंतु जिस EMI , समाज और कथित स्तर को मेंटेन करने की प्रतिबद्धता के कारण किसी निर्णय पर पहुंचने में असमर्थता हो रही है वह एक दलदल ही है किसी स्वतंत्र मन युक्त मानव हेतु । बस, भेड़िया धसान चल रही है और उसी झुंड का एक अंग हैं hanging boots at 45 ya 50 वाले अधिकांश । वैसे इस विषय पर एक विस्तृत ब्लॉग आप पहले लिख चुके हैं अगर मैं गलत नहीं हूं तो🙏🏻

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  2. Early retirement is a fab in western countries. I know who are very high up in industry but have quit. They want to follow their passion like nursery teacher, writer etc where there is no pressure of time frame. I quit IAF at age of 43 due to combination of reason including lack of promotion due to medical issues. I got in business, job work but doing things on my pace. I enjoyed getting into welfare of ex-servicemen which gave me lot of mental satisfaction.

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    1. Yes Mr Sudhir, the thing which gives happiness, satisfaction and enjoyment is following the passion at the pace which you choose and sustain without any misery.
      Wish you all the happiness in future too.

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  3. रिटायरमेंट का अर्थ भी अब बदलना होगा। वास्‍तव में रैट रेस से बाहर आने क रिटायरमेंट मानना चाहिए। जब आय के पुख्‍ता स्रोत बन जाएं, कम से कम नियमित खर्च का आधार तैयार हो जाए, तो फिर दूसरे ऐसे काम किए जाएं जो मन की रुचि के हों, बजाय सब काम धंधा छोड़कर बैठने के।

    मैं खुद 40 में रिटायर होने का सपना देखता था, अभी 43 साल का हूं, अपना ऐसा सिस्‍टम बनाने में कामयाब हुआ हूं, जिसमें मुझे अब काम तो करना पड़ता है, लेकिन समय और तरीका खुद का है। रिटायर तो नहीं हुआ हूं, लेकिन अपने सिस्‍टम पर हूं, अगले दस साल में पूरी तरह रिटायर हो जाउंगा, तब मुझे नियमित खर्च के लिए काम करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। तब और दूसरे पचड़ों में माथा दुखाउंगा।

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  4. पैंतालीस की उम्र में जूते टांग देना अब महज शेखचिल्लियत नहीं रही; वह मनुष्य की मुठ्ठी में आने वाली चीज हो गयी है। >> मैंने लगभग इसी उम्र में अपने जूते टांगे थे, जब विद्युत मंडल में वीआरएस स्कीम आई थी. तब, मुझे मेरे वेतन का 75 प्रतिशत पेंशन के रूप में मिल रहा था. तो, मेरे जैसा व्यक्ति, मात्र 25 % के लिए नौकरी क्योंकर करने लगा? इस बीच, कई बार लगा कि क्या मेरा निर्णय सही था? पर, अब पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो लगता है कि अच्छा ही किया. आज मैं अपने उस निर्णय पर पछताता नहीं. कतई नहीं.

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