ये ढोल है और वो ताशा। उसने मुझे इस प्रकार से उत्तर दिया मानो उम्रदराज होने पर भी जनरल नॉलेज में हाँथ तंग होने वाले व्यक्ति पर उसे आश्चर्य/तरस हो।
हाईवे – एनएच19 – ग्राण्ड ट्रंक रोड। यह स्थान दिल्ली और कलकत्ता के मध्य में है। बजनिया आदमी और एक असिस्टेण्ट लड़का बैरियर कूद कर सर्विस लेन पर आये। जब कूद लिये तो मैंने अपना फीचर फोन का कैमरा क्लिक किया।
यह तीन दिन पहले की बात है।
उस आदमी से पूछा – शादी व्याह का लगन तो नहीं चल रहा? काहे के लिये निकले हो सवेरे सवेरे?
वह सर्विस लेन क्रॉस कर मेरे सामने आया और बोला – आज ललही छठ है। औरतें पूजा करेंगी। साथ में बाजा बजना चाहिये। उसके लिये हमें काम मिलेगा।

उसके कांधे पर ढोल था। कमीज के दो बटन खुले। लड़का टीशर्ट पहने था और गोल नगाड़े नुमा नाद करने वाला उपकरण लिये था। मैंने पूछा – इन्हे क्या कहते हैं?
ये ढोल है और वो ताशा। उसने मुझे इस प्रकार से उत्तर दिया मानो उम्रदराज होने पर भी जनरल नॉलेज में हाँथ तंग होने वाले व्यक्ति पर उसे आश्चर्य/तरस हो।

बहुत से लोग, बहुत सी चीजें नहीं जानते। मसलन सच्चिदानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी के पास गये एक कवि जी अपनी कालजयी कविता ठेल रहे थे। उसमें कई शानदार बिम्ब थे। “खंजन नयन” जैसी उपमाओं का प्रयोग था। अज्ञेय जी ने उनसे पूछा – सामने जो चिड़िया बैठी है; वह कौनसी है? आप जानते हैं?
कवि महोदय बता न पाये। तब अज्ञेय जी ने बताया – वह खंजन है!
मैंने भी ढोल-ताशा खूब सुना था। शायद लिखने में प्रयोग भी किया हो। देखा भी हो। पर ताशा क्या होता है, वह तीन दिन पहले पता चला।
बाई द वे; खंजन आपने देखा है न? 🙂
ललही छठ को महिलायें शीतला माता की पूजा करती हैं अपने पुत्र की वृद्धि और रक्षा के लिये। उसके लिये एक देशज कथा भी प्रचलित है। उस कथा में किसान के हल से नवजात शिशु को चोट लगने और शीतला माता की कृपा से शिशु का ठीक हो जाना होता है। कथाओं में सत्यनारायण कथा की तरह कर्म और फल का चटपट सम्बंध निहित होता है। कथायें तो हमारे देशज व्रत-पूजन-त्यौहार का अभिन्न अंग होती ही है!
व्रत करना भी अधिकतर महिलाओं के डोमेन में आता है। तो ललही छठ के दिन यूंही उगने वाला तिन्नी का चावल और महुआ का लाटा प्रयोग में लाती हैं वे। शीतला माता के थान पर पूजा करने जाती हैं – अकेले और समूह में भी। आते जाते मैंने देखा है, पूजन करते नहीं देखा। देशज व्रत-पूजन बहुत कुछ देखना अभी शेष है।
और ललही छठ, बलराम जयंती है। हल की पूजा होती है। अब हल तो बचे कहां। उसकी जगह ट्रेक्टर पूजा का विधान तो शायद ही बना हो! कैसे पूजन होता है, उस बारे में मेरा जी.के. तंग है! 😆
श्रद्धा, अखण्ड विश्वास और मान्यताओं पर आधारित इन त्योहारों के अलिखित नियम तो देखिए। बलराम षष्टी के इस त्यौहार में पूजा के निमित्त जो चावल प्रयोग किया जाता है उसे हल के माध्यम से नहीं उगाया होना आवश्यक है क्योंकि बलराम हलधर हैं।
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जी, वही अन्न उपयोग किया जाता है जिसे हल से नहीं उपजाया गया है.
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व्रत करके सारे देवताओं को कार्य में लगा दिया है। यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता। पर लगता है कि देवताओं को जबरिया रोक रखा है।
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पितृ सत्तात्मक समाज में नारी की दशा, वह भी गांव में और सवर्ण समाज में तो सारे देवी देवताओं के बावजूद खराब ही है. 😒
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