जिंदगी का यह एडहॉकिज्म; सुकूनदायक दूसरी पारी का आनंद है। जब आप रीजनेबल तरीके से स्वस्थ हों, मानसिक रूप से उर्वर हों, लिखने पढ़ने में मनलायक ठेल सकते हों और किसी को ‘सर, सर’ करने की बाध्यता न हो! और कहीं भी कुछ भी एक्स्प्लोर करने की मनमौजियत पाल सकते हों।
कुनबी का खेत था सड़क किनारे। कोई काम करता दिख नहीं रहा था। बेल जमीन से ऊपर उठा कर एक परत के रूप में चढ़ाई हुई थीं। कुछ कुछ वैसे लग रहा था मानो अंगूर की खेती हो। मैंने उसमें अनाधिकृत प्रवेश कर लिया।
बांस और अन्य लकड़ी जमीन में गाड़ कर बल्लियों के प्रयोग से धरती से करीब पांच छ फुट ऊपर एक स्तर बनाया गया था खेत के बड़े भाग में। उसपर करेले की बेलें बिछी हुई थीं।

दिन का समय था। करीब साढ़े इग्यारह बजे। धूप टनटना रही थी। पर बेलोंंके कारण वहां ठण्डक थी। एक रखवाला मड़ई में बने मचान पर सो रहा था।

मैंने उसे आवाज लगाई – पपीता होगा क्या तुम्हारे पास। कुछ कच्चा भी हो तो चलेगा। ऐसा हो जो तीन चार दिन में पक जाये।
उसने लेटे लेटे जवाब दिया कि है नहीं। एक पेड़ में है वो कच्चा है, पकने में पंद्रह दिन लगेंगे। और वह बेचने के लिये लगाया नहीं है। घर के खाने के लिये लगाया है।
अरे, जो बड़ा हो गया हो, वही दे दो। एक भी मिल जाये तो काम चलेगा।

मेरे कहने पर वह अनिच्छा से उठा। पपीता का पेड़ दिखा कर बोला कि कोई भी फल दो हफ्ते से कम में खाने लायक नहीं बनेगा। और बेचने के हिसाब से लगाया भी नहीं है। बेचने के लिये तो अभी करेला और नेनुआ है।
तब वही दे दो। करेला ही दे दो। क्या भाव?

उसने अपने मचान के नीचे रखी एक बोरी में से करेला निकाला। बताया बीस रुपये किलो का भाव है। जो ढेरी मुझे दी वह किलो भर से ज्यादा ही रही होगी। बीस रुपये मांगे। मैंने पचास का नोट दिया तो वह आस पड़ोस में नोट भंजाने निकला।
मेरा वाहन चालक अभिनंदन और वह साथ गये। दुकानदार ने उन्हे दो दो रुपये के पचीस सिक्के निकाल कर दिये। वापस दोनो पैसे गिनते लौटे। पंद्रह सिक्के अभिनंदन ने गिने और मैंने वैसे ही जेब में रख लिये। मेरे लिये तीस रुपये की ज्यादा वैल्यू नहीं थी; वह अनुभव ज्यादा महत्वपूर्ण था – पूरी तरह एड-हॉक तरीके से गांव की सड़क पर चलते चले जाना। किसी कुनबी के खेत में यूंही हिल जाना। मचान से सोते किसान को उठाना और पपीता खरीदने की मंशा रखते हुये करेला खरीद लेना। …ऐसा कम ही लोग अनुभव करते होंगे! 😆

उस किसान से नाम पूछा। बताया देवनाथ। फिर बोला भाई का नाम कैलाश है। कुछ इस अंदाज में कि भाई महत्वपूर्ण है। मालिकाना हक उसके भाई का हो! 🙂
जिंदगी का यह एडहॉकिज्म; सुकूनदायक दूसरी पारी का आनंद है। जब आप रीजनेबल तरीके से स्वस्थ हों, मानसिक रूप से उर्वर हों, लिखने पढ़ने में मनलायक ठेल सकते हों और किसी को ‘सर, सर’ करने की बाध्यता न हो! और कहीं भी कुछ भी एक्स्प्लोर करने की मनमौजियत पाल सकते हों। साइकिल ले कर निकलें तो अगले क्षण उसका हैण्डल किस ओर मुड़ेगा, इसकी कोई प्लानिंग न हो। कार में हों तो चालक महोदय को कहीं भी रुकने को कह सकते हों। पपीता खरीदने निकले हों और करेला खरीद कर लौटें तो पत्नीजी कुड़बुड़ाने की बजाय उसका स्वागत ही करें!
पता नहीं, लोगों को यह आनंद चाहिये या नहीं; मुझे बहुत भाता है। देवनाथ-भाई-कैलाश से फिर मिलना चाहूंगा। कोशिश करूंगा कि वह पपीता मुझे बेच ही दे हफ्ता दस दिन बाद! 🙂

यही आनन्द है जीवन का, पपीता खरीदने निकलते हैं और करेला ले आते हैं, साथ में ढेर सारे फुटकर। पर उन सबसे अधिक रोचक होता है अनुभव।
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जीवन वास्तव में संतृप्त लगता है ऐसे अनुभव पर.
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