अलाव के इर्द गिर्द चर्चा

कल टुन्नू पण्डित (मेरे साले साहब – शैलेंद्र कुमार दुबे) संझा में अलाव जलाये अपने बरामदे में बैठे थे। पास में थे उनके भाजपाई सहकर्मी राकेश और सूरज। मेरी पत्नीजी और मैं भी चले गये कऊड़ा तापने और कऊड़ा-चर्चा करने के लिये।

दो प्रमुख मुद्दे थे। मोदी का सिक्यूरिटी ब्रीच – जिसपर देश उद्वेलित है और जो बैठे बिठाये भाजपाईयों को एक चुनावी मुद्दा मिल गया है; और दूसरा कोरोना के ओमाइक्रॉन वेरियेण्ट का जबरदस्त उछाल। आसपास भी मोदी जी को ले कर महामृत्युंजय पाठ किये जाने की चर्चायें हैं। यह भी नोट किया गया कि अभी किसी सपाई ने कोई मुंह नहीं खोला। अखिलेश सिंह यादव ने इस अवसर पर जरा भी आंय बांय बोला नहीं कि वह उत्तर प्रदेश में चुनावी मुद्दा बन जायेगा। प्रधानमंत्री की सिक्यूरिटी ब्रीच को जनता हल्के से नहीं लेती है।

कउड़ा तापते राकेश (बांये)और सूरज

ओमाइक्रॉन को ले कर भी लम्बी चर्चा हुई। बम्बई-दिल्ली में ढेर सारे मैडीकल और पैरामेडिकल स्टाफ भी इसकी चपेट में हैं, उसपर बात हुई। पास में औराई के फलाने गांव में एक लड़की कोरोना संक्रमित पाई गयी, उसका भी जिक्र हुआ। आरोग्य सेतु एप्प अब फिर खुलने-इस्तेमाल करने का नम्बर आ गया है। पांच किलोमीटर की परिधि में भी अब कोरोना संक्रमित के केस होने लगे हैं – यह नोट किया गया।

पिछली कोरोना लहर की बात चली। बम्बई से आये एक आदमी की बात की राकेश ने। उसको उसके गांव वालों ने घर में नहीं घुसने दिया था। बाहर तम्बू तान कर उसमें रहने को कहा। घर के बर्तनों में नहीं महुआ के पत्तल दोना में भोजन दिया गया। अपमान समझ कर वह अपनी ससुराल चला गया। वहां भी उसे घर में नहीं, बर्दवारी (बैलों को बांधने की जगह – गोरुआर) में ठहराया गया। अपमान की हद हो गयी तो उसने गंगाजी में छलांग लगा दी।

आगे की बात राकेश ने नहीं की। पर मान कर चलते हैं कि उसे लोगों ने बचा ही लिया होगा। … यह तो हो गया कि कोरोना ने बम्बई की शान-चमक-कलई उधेड़ दी थी। अभी रीवर्स पलायन के किस्से तो नहीं आये हैं, पर जिस रेट से कोरोना बढ़ रहा है, लोग बिलबिला कर गांव का पुन: रुख कर सकते हैं।

प्रेमसागर का जिक्र भी हुआ। मुझसे टुन्नू पण्डित ने पूछा कि कहां तक पंहुचे प्रेमसागर? मैंने बताया – “नागेश्वर के आगे वे सूरत पंहुचे थे भावनगर-सूरत फेरी से। उसके आगे का पता नहीं। अब वे बाबाजी बन गये हैं। आगे पीछे पैर छूने वालों की फौज है। अब उन्हें मेरी जरूरत नहीं तो मुझसे सम्पर्क भी नहीं है।”

टुन्नू पण्डित का विचार था कि देर सबेर प्रेमसागर का बाबा बनना नियत था। शंकर भगवान आसानी से अपनी कृपा नहीं देते। पटक पटक कर परीक्षा लेते हैं। समय के पहले ही प्रेमसागर बाबा बन गये हैं। पूरी द्वादश ज्योतिर्लिंग यात्रा करने के बाद बनते तो झांकी जम जाती। अब तो यात्रा पूरी करने में ही झाम फंसेगा। … गांव के बद्री साधू अगर चुपचाप आश्रम की चेलाई करते रहते तो दो साल बाद ही मठ के महंत बन जाते। पुराने महंत की मौत हो गयी थी और उनके प्रिय शिष्य थे बद्री साधू। पर उनके मन में गांव के चार बीघे जमीन का लालच आ गया और उस लालच ने उनकी सारी साधना मिट्टी में मिला दी। सारा चौथापन बेकार हो गया। इसलिये बाबा बनने के समय के पहले के लालच से बचना चाहिये था प्रेमसागर को।

कऊड़ा/अलाव

खुले में हल्की हल्की बारिश हो रही थी। हवा तेज नहीं थी, पर इतनी थी कि कऊड़ा की आंच आनंददायक लग रही थी। टुन्नू पण्डित का कहीं दाल-बाटी का न्योता था, वर्ना कऊड़ा चर्चा लम्बी चलती और कई अन्य विषय आते-खुलते। फिलहाल यह जरूर मन में आया कि ऐसा कऊड़ा/अलाव जमना चाहिये। … आज एक लीटर चाय का थर्मस, अलाव और पर्याप्त लकड़ियां रखी जायेंगी। चार कुर्सियां भी आसपास रहेंगी। भूनी मूंगफली का भी जुगाड़ हो जाये तो और अच्छा!

देखें, आज क्या होता है! :lol:


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

4 thoughts on “अलाव के इर्द गिर्द चर्चा

  1. जाड़े में जब शरीर का अग्रभाग गरमाता है, विचार बहने लगते हैं। सबसे पहले वाक्य तो यही होते हैं कि इस बार ठंड बढ़ गयी है।

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    1. हाहाहा. रजाई में होने पर भी यही वाक्य निकलता है – इस बार ठंड बढ़ गई है.

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  2. ठंड का मजा अलाव सेंकने और मूंगफली खाने में है।
    प्रेमसागर जी की बात भी ठीक ही कही कि बाबा बनने का फेर बहुत गलत हो गया, जल्दी हो गया। भोले बाबा के भगत भोले तो होते हैं पर समय के साथ ही उतनी समझ भी दिखानी चाहिए कि कहीं परीक्षा में फेल न हो जाये। नहीं तो भोलेपन में ही भोगपन पनप जाता हैं और प्रयास व्यर्थ रह जाते हैं।

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