रिटायर होने के पहले मैंने अपने लिये एक रुमाल भी नहीं खरीदा था। अब कस्बाई बाजार में मर्यादी वस्त्रालय में कपड़े की खरीददारी मैं खुद कर लिया करता हूं। बहुत मोलभाव न करते हुये भी कपड़े खरीदना एक मजेदार अनुभव है। … मसलन एक सुबह घर से निकलते समय हल्की सर्दी हो और लगे कि सिर पर टोपी होनी चाहिये थी, तो मर्यादी स्टोर पर रुक कर साठ सत्तर रुपये की टोपी खरीद और पहन कर आगे बढ़ जाना एक लिबरेटिंग एक्स्पीरियेंस है। टोपी, नैपकीन, रुमाल, गमछा, जुराब, तौलिया, दस्ताना आदि खरीदते खरीदते अब मैं अपने लिये वहां से पायजामा और पतलून का कपड़ा खरीदने-सिलवाने का आत्मविश्वास हासिल कर चुका हूं। सात साल की रिटायर्ड लाइफ की यह उपलब्धि है।
मर्यादी स्टोर से कपड़े खरीदने पर सिलवाने के लिये इधर उधर नहीं जाना पड़ता। विवेक चौबे – मर्यादी स्टोर के इस पीढ़ी के मालिक – ने दुकान के गलियारे में जगह दे कर एक टेलर के बैठने का इंतजाम कर रखा है। पहले वाले टेलर का तो दो साल पहले इंतकाल हो गया था। उसके बाद करिया अली ने मेरे पायजामे सिले। अब एक नये टेलर आ गये हैं – आजम इदरीसी।

आजम ने बताया कि इदरीसी उपनाम वाले पैदाइशी टेलर होते हैं। सिलाई उनका पुश्तैनी धंधा है। बहुत कुछ वैसे जैसे अंसारी बुनकर होते हैं।
आजम ने पॉकेट लगे पायजामे सिले मेरे लिये और वे इतने पसंद आये कि आज एक पैण्ट सिलने का काम दे दिया है उन्हे।
मैं 1980 के दशक में जूनियर स्केल का अधिकारी था और वे प्रशासनिक ग्रेड के प्रभावशाली व्यक्ति थे। पर उस समय की मध्यवर्गीय जिंदगी में कमीज को आल्टर करवाना या किसी खुचकर को रफू करवाना खराब नहीं माना जाता था।
आजकल ऑनलाइन कपड़े इतने बिकते हैं, सिले सिलाये, कि कपड़ा खरीद कर सिलवाने का जमाना रहा नहीं। थान से कपड़े खरीद कर सिलवाना शायद मंहगा पड़ता है। लोग कपड़े की सिलवाई उधड़ जाने पर भी उसे रिपेयर कराने की बजाय नया ही खरीदने में यकीन करते हैं। यूज एण्ड थ्रो का युग है यह।

आरएसएस के प्रचारक एक युग में अपने साथ अपने झोले में सूई धागा ले कर चला करते थे। अपने कपड़े वे खुद रिपेयर करना जानते थे। दो दशक पहले तक महिलायें घर में सिलाई की मशीन रखती थीं और ऊन के गोले ले कर सर्दियों में घर भर के लोगों के लिये स्वेटर बनाया करती थीं। कई कई आदमी भी ऊन के स्वेटर बनाना जानते थे। अब तो बने बनाये कपड़े आते हैं और खराब होने पर फैंक दिये जाते हैं।
मुझे याद आता है अपने रेल के प्रोबेशनरी पीरीयड का वह समय जब मेरे रेल स्टॉफ कॉलेज के प्रोफेसर और मैं दोनो अहमदाबाद में एक भोजनालय में दोसे-चाय पर फुटकर बातचीत कर रहे थे। हम दोनो में अच्छी ट्यूनिंग बन गयी थी यद्यपि हमारी उम्र में कम से कम दो दशक का अंतर रहा होगा। मैंने ध्यान से देखा था – उन प्रोफेसर साहब के कमीज का कॉलर और बांहों का आगे का हिस्सा जो कलाई के पास बटन लगाने के लिये इस्तेमाल होता है; घिसने के बाद उलट कर रिपेयर (ऑल्टर) किया हुआ था।
मैं 1980 के दशक में जूनियर स्केल का अधिकारी था और वे प्रशासनिक ग्रेड के प्रभावशाली व्यक्ति थे। पर उस समय की मध्यवर्गीय जिंदगी में कमीज को आल्टर करवाना या किसी खुचकर को रफू करवाना खराब नहीं माना जाता था।
अब वह सोच शहरी मध्यवर्ग तो क्या, ग्रामीण जीवन से भी गायब होती दीखती है।
आजम की मेज पर उसकी फ्लैसी शीट में लिखा है – बनारसी टेलर्स – लेडीज एण्ड जेण्ट्स अल्ट्रेशन। अर्थात पुराने कपड़ों में काट छांट कर उन्हे ठीक करने का काम आजम करते हैं।
मुझे याद आया कि मेरे कितने कपड़ों की तुरपाई-बखिया कहीं कहीं उधड़ गयी है। कितनी पतलूनों की जेबों के कपड़े घिस गये हैं। कई जिपें खराब हो गयी हैं और कई वेल्क्रो काम लायक नहीं रहे। आजम की कारीगरी में मुझे उन सब का इलाज नजर आने लगा है। अन्यथा मध्यवर्गीय सोच में वे कपड़े रिटायर कर दिये जाने चाहियें।
कल मैंने आजम को एक नई पैण्ट का कपड़ा ले कर सिलने को दिया है और साथ ही आज से पच्चीस साल पहले रतलाम के ‘फाइनेस्ट’ टेलर की सिली पैण्ट की जेबें रिपेयर करने का काम भी सहेजा है। पच्चीस साल पहले की पैण्ट से एण्टीक पीस सहेज कर रखने/पहनने का मोह है (आखिर उसकी फिटिंग आजकल की रेडीमेड पतलूनों से कहीं ज्यादा आराअम्दायक है)। आजम इदरीसी को नयी पैण्ट भी फाइनेस्ट वाली पैण्ट के नाप की सिलने की हिदायत दी है। बार बार ताकीद की है कि पैण्ट की मोरी उतनी ही ढीली रहे। आजकल के फैशन की नकल में चूड़ीदार पायजामा नुमा पतलून बनाने का कोई दुस्साहस वह न करे। 😆
गांवदेहात में रहते हुये मुझे बहुत खुशी तब होती है जब मुझे अपने जीवन की जरूरतें, वस्तुयें और सुविधायें लोकल तौर पर मिलने लगें। वे सब मेरी साइकिल चलाने की दूरी भर में उपलब्ध हों। उनके लिये मुझे वाहन ले कर शहर न जाना पड़े। … अगर कोई काम शहर में भी होने वाला हो तो उसका कोई ऑनलाइन विकल्प हो, जिसे अमेजन का कुरियर घर पर सप्लाई कर दे। मैं चाहता हूं कि मेरे जीवन की जरूरतें बारह पंद्रह किमी के दायरे में ही पूरी हो सकें। और धीरे धीर सुविधायें इस सीमा में आती भी जा रही हैं। मर्यादी वस्त्रालाय और आजम इदरीसी की सिलाई की मेज उसी का अंग हैं।
मर्यादी के विवेक चौबे तथा आजम इदरीसी मेरी प्रसन्नता को बढ़ाते हैं। वैसी प्रसन्नता जो शायद बहुत से आधुनिक लोगों को समझ न आ पाये।
पुराने कपड़ों का मोह जाता नहीं है। जितना पहनते हैं, उतना ही प्रेम बढ़ता है। रफू, सिलाई तो उन कपड़ों से प्रेम का अभिव्यक्ति है।
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इस कोण से सोचा जाए तो पुराने से लगाव का एक अनूठा आयाम बन जाता है. पुरातन का प्रेम! 😊
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