भुंजईन – आकास की माई

सिर पर हरी पत्तियों का गठ्ठर लिये वह बंद रेलवे लेवल क्रासिंग के पास खड़ी थी। बनारस से आने वाली खलिया मालगाड़ी (Empty Covered Wagon Rake) पास होने वाली थी। अगर उसके सिर पर बोझ नहीं होता तो फाटक से निहुर कर (झुक कर) पास हो जाती। अब इंतजार कर रही थी फाटक के खुलने का।

सिर पर हरी पत्तियां ही थीं, लकड़ियां नहीं। कुछ पत्तियांं, मसलन नीम और सागौन की चौड़ी पत्तियां तो गाय गोरू खाते नहीं। उसका गठ्ठर ले कर जाने का ध्येय मुझे समझ नहीं आया। सो उसी से पूछ लिया।

“दाना भूंजई बरे अहई ई (दाना भूनने के लिये ले जा रही हूं। सुखा कर भरसांय जलाने के लिये इस्तेमाल होगा।)”, उसने मुझे उत्तर दिया।

आजकल बरसात के मौसम के बाद पेड़ हरे भरे हैं। उनकी डालियां लोग छंटवा रहे हैं। कुल्हाड़ी से छांटने वाला लकड़ियां तो बीन ले जाता है। वही उसका मेहनताना है। लकड़ियां उसकी सर्दियों की ईंधन और कऊड़ा के इंतजाम के लिये होती हैं। लोग जिनके पास अपने पेड़ नहीं हैं, वे भी दूसरों के पेड़ों की छंटाई को तत्पर रहते हैं। खुशी खुशी! टहनियां तो वे ले जाते हैं; पर पत्तियां बीनने के लिये इस भुंजईन जैसे लोग भी ताक में रहते हैं।

मैं शहर में रहता होता तो दो बीएचके के फ्लैट में सिमटा होता। गांव में तो घर में जगह है और उसमें बगीचे के साथ साथ दो दर्जन से ज्यादा ही वृक्ष हो गये हैं। बारिश के मौसम के बाद उन पेड़ों की छंटाई जरूरी हो जाती है।

गांव में ईंधन की जरूरतें इतनी सघन और व्यापक हैं कि घास, खरपतवार और पेड़ों की कोई भी चीज बेकार नहीं जाती। लोग उन्हें उठाने, काटने, बीनने के लिये सदैव तत्पर रहते हैं। इस मौसम में पत्ते नहीं झर रहे। पतझर नहीं आया है। तो यह भुंजईन जहां भी मिल रहा है, हरे पत्ते भी बीन कर संग्रह कर रही है।

भुंजईन ने बताया कि वह हमारे घर से भी पहले पत्तियां बीन कर ले जा चुकी है।

मैं शहर में रहता होता तो दो बीएचके के फ्लैट में सिमटा होता। गांव में तो घर में जगह है और उसमें बगीचे के साथ साथ दो दर्जन से ज्यादा ही वृक्ष हो गये हैं। बारिश के मौसम के बाद उन पेड़ों की छंटाई जरूरी हो जाती है।

मेरे वाहन चालक गुलाब ने हमारी ही टंगारी – कुल्हाड़ी का हमारे ही पैसे से बेंट लगवाया और पेड़ों की छंटाई की। छंटाई से सर्दियों में घर में धूप भी आयेगी और पेड़ भी व्यवस्थित तरीके से, तेजी से बढ़ेंगे।

मेरे वाहन चालक गुलाब ने हमारी ही टंगारी – कुल्हाड़ी का हमारे ही पैसे से बेंट लगवाया और पेड़ों की छंटाई की। लकड़ियां तो गुलाब ले जायेंगे, पत्तियां भुंजईन के काम आयेंगी।

छंटाई के बाद लकड़ियां तो गुलाब ले जायेंगे, पत्तियां भुंजईन के काम आयेंगी। एक खेप वह ले जा चुकी है। अभी और भी ले जाने को बची हैं। घर में आने के लिये वह मेरे घर में काम करने वाली महिलाओं से जानपहचान का इस्तेमाल करती है।

“जीजा आपऊ के दाना भुंजावई के होये त मीना से भेजवाई देंई (जीजा जी, आपको अगर दाना भुनवाना हो तो अपने घर में काम करने वाली मीना से भिजवा दीजियेगा।” – उसने ऑफर दिया। बताया कि मीना उसे जानती है। मीना को बता दिया जाये कि “आकास की माई” के यहां ले कर आना है तो वह दाना – मूंगफली आदि भुनवा ले आयेगी। … वह आकाश की माई है – आकाश की मां। स्त्रियों को इसी तरह से जाना जाता है – फलाने की पत्नी या ढिमाके की मां के रूप में!

भुंजईन – आकास की माई

पता चला कि “आकास की माई” कंहारिन है। गांव में करीब आधा दर्जन परिवार कंहारों के हैं। इनका पुश्तैनी काम कुओं से पानी निकालना और पालकी ढोना था। वह काम खत्म हो गया है समय के साथ। एक काम बचा है दाना भूनने की भरसांय जलाने का। अभी भी लोग लाई, चिवड़ा, बाजरा, ज्वार, चना और मूंगफली आदि भुनवाते हैं। तीज त्यौहारों पर और सर्दियों में भुने अन्न की जरूरत होती है। उसका स्थान भी अब रेडीमेड खाद्य पदार्थ – पुपली, बिस्कुट, चिप्स आदि लेते जा रहे हैं। पर तब भी एक स्वस्थ्य खाद्य के रूप में भुना चना चबैना अभी भी इस्तेमाल होता है। महराजगंज बाजार में ही भुंजवों के आठ दस ठेले हैं। हर एक गांव में एक दो भरसांय नियमित – सप्ताह में एक दो दिन जलती ही हैं।

आकास की माई का भुंजईन का काम धाम अभी जारी है। आगे आने वाले एक दो दशक तो चलेगा ही – ऐसी मेरी अपेक्षा है।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

5 thoughts on “भुंजईन – आकास की माई

  1. छुट्टी के बाद पटना से लौटते समय एक विचार मंथन होता है कि क्या वापस ले जाना है। और अब जान गया हूं की लाने की सबसे अच्छी चीज भूंजा और सत्तू ही है। इस शहर में अब भी भुने अनाज और चने आसानी से मिल जाते हैं, अच्छी गुणवत्ता वाले। मगर आपके सामने भुने गरमा गरम भूंजे की क्या बात है

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    1. अच्छा याद दिलाया आपने. मेरे साथी अधिकारी की पत्नी पटना से आती थी तो पांच सात पैकेट सत्तू के लाया करती थीं हमारे लिए. पिस्तौल ब्रांड सत्तू!

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  2. शहरों मे भड़भूँजों के भाड़ खतम हो गए है/बचपन और किशोरावस्था तक भुने चने लाइया मक्का आदि खूब खाया गया है/बुजुर्ग लोग कहते थे की शनिवार की शाम को भूना चना हर हफ्ते नियमित खाने से कब्ज नहीं रहता है और पेट साफ होता है ,दांतों की कसरत होती है और चेहरे पर झुररिया नहीं पड़ती है/पिता जी खुद खाते थे और हम सब भाई बहनों को भी खिलाते थे/आज हाल यह है की भाड़ शहरों से नदारत हो गए है/भुने खाद्यान्न कही देखने को नहीं मिलते/अब गावों मे भी भाड़ नहीं है क्योंकि जिनको यह काम आता था उनके परिवार ने यह काम अपनाया ही नहीं/लगता है धीरे धीरे कोई नई टेक्नॉलाजी आ जाएगी और तब फिर कोई आधुनिक भड़भूजा नए कलेवर और नाम के साथ यह सब बेचने लगेगा /

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    1. जी हां, नए कलेवर के साथ और चौगुना दाम के साथ. उसमें ज्यादा नमक भी होगा और पामोलीन के तेल का तड़का भी. अर्थ व्यवस्था यही सब करती है. 😁

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