जीटी रोड की सर्विस लेन और गांव के खड़ंजों या सड़कों पर साइकिल चलाते घूमने की तासीर अलग अलग है। अगर समतल रास्ते पर आराम आराम से चलना हो तो जीटी रोड का रुख करता हूं मैं। या जब महराजगंज के बाजार से सौदा-सुलफ लेना हो तो भी। पर जब गांव के घर, खेत, गंगाजी का किनारा, नावें या सूर्योदय-सूर्यास्त का आनंद लेना हो तो गांव की पगड़ण्डी-खड़ंजे या सड़कों का रुख करता हूं।
कल सुबह और शाम गांवदेहात का ही रुख किया।

बाजरे की बालें परिपक्व हो गयी हैं। इस महीने के अंत में कटाई होने लगेगी। जोन्हरी की फसल कुछ पीछे है, पर उसके पौधे ज्यादा ऊंचे हैं। पंद्रह फीट तक के भी हैं। एक मंजिला इमारत से भी ज्यादा ऊंचे। सड़क से गुजरते हुये साइकिल रोक बिना उतरे बाजरे और ज्वार (जोन्हरी) के चित्र लिये।
पास में ही कोलाहलपुर की दलित बस्ती थी। वहां की महिला आ रही थी। मेरे चित्र लेते देख रुक गयी। उससे बातचीत करने के हिसाब से मैं पूरी तरह शहरी बन गया। शहरी जिसे गांव और खेती के बारे में पता न हो। महिला मेरा ज्ञानवर्धन करने लगी – ई जोन्हरी अहई। … उसने बताया कि जोन्हरी के भुट्टे पीट कर दाना अलग किया जायेगा। दाना भुना कर ढूंढी, भूंजा बनता है। संक्रांति पर चढ़ाने और बांटने के काम आता है। आटा पिसा कर रोटी भी खाई जाती है।
उस महिला ने गांव के स्तर की सारी जानकारी मुझे दी। बाकी, जो कुछ गूगल देवी के स्तर के प्रश्न थे, वे मैंने बचा लिये। अगर मैं उससे पूछता कि जोन्हरी में फाइबर कितना होता है और प्यूरीन का स्तर कैसा रहता है; अथवा उसके सेवन से यूरिक एसिड के बनने में कमी आती है या नहीं – तो मैं बातचीत की धारा धड़ से अवरुद्ध कर देता। उतना भी मूर्ख नहीं हूं मैं कि बेबात अपना पाण्डित्य झाड़ता रहूंं।
मैंने उस महिला से यही पूछा कि जोन्हरी दुकानों पर मिलती है? उसका आटा भी आसानी से मिलता है आदमी के खाने के लिये या सारा ज्वार बाहर ही चला जाता है?
मुझे अपने रेलवे के दिन याद हो आये, जब कुछ स्टेशनों पर ज्वार के रेक के रेक लोड होते थे और वह पोल्ट्री फार्मों की फीड के लिये ले जाया जाता था। भारत में भी और विदेशों में भी जाता था ज्वार। इसे मुर्गियां खाती थीं और मुर्गियों को आदमी खाते थे। अब आदमी फाइबर तलाश रहा है। ग्लूटन कम करना चाहता है। किडनी को बचाने के लिये प्यूरीन बनने की सम्भावनायें कम करने के लिये ज्वार के सीधे सेवन पर लौटना चाह रहा है। … मैं खुद भी सोच रहा हूं कि आटे में एक तिहाई बाजरा-ज्वार का आटा मिलाया जाये। या दलिया भी इन्हीं मोटे अनाजों का प्रयोग किया जाये।
पर यह सब बात मैं उस महिला से क्या शेयर करता। उसे जानकारी के लिये धन्यवाद दे कर मैं अपने रास्ते चला और वह अपने।

कोलाहलपुर के गंगा घाट पर एक नाव खड़ी थी लंगर डाले। छोटी नाव थी, मछली पकड़ने वाली। सो लंगर की बजाय एक रस्सी से बांध कर किनारे खूंटा गाड़ कर उसे सिक्योर किया गया था। बगल में उमरहां के नित्य स्नान करने वाले विभूति नारायण पण्डिज्जी एक लंगोट पहने नहाने के बाद डुबकी लगा कर स्नानासन की परिणिति कर रहे थे। वे पांच-छ किलोमीटर दूर के अपने गांव से आते हैं। पचहत्तर पार के हैं। गंगा स्नान का एक मिशन पा गये हैं वे और वह मिशन उन्हें स्वस्थ भी बनाये हुये है।
दो महिलायें अपने कपड़े धो रही थीं। उनमें से एक ने अपनी कथरी धो कर ऊंचाई पर ला कर सूखने डाली। गंगा किनारे के गांव वालों के लिये गंगा सभी कुछ हैं। नहाना, धोना, नित्यकर्म, तीज त्यौहार सब गंगा तट पर। घर में भोजन का इंतजाम न हो तो गंगा माई दो चार मछलियाँ भी दे ही देती हैं। गंगा लोगों को आशावादी बनाती हैं और कोई अध्ययन किया जा सकता है कि किनारे के लोग, तुलनात्मक रूप से मानसिक स्वस्थ्य होते होंगे। उन्हें अवसाद कम ही घेरता होगा… मुझे अगर चाय की सतत सप्लाई मिलती रहे तो गंगा किनारे यूं ही घण्टों गुजार सकता हूं वहां बैठे बैठे।

मेरे सामने पण्डिज्जी ने गंगाजल चढ़ाया शीतला माई, शंकर जी और हनुमान जी को। वे अपनी साइकिल सम्भालने लगे लौटानी की यात्रा के लिये। मैं भी वहां से चल दिया।

गंगा तट का गांव है कोलाहलपुर। एक घर बाभन का है और शेष दलित। अम्बेडकर गांव है। गंगा तट से लौटते समय एक घर के पास रुक गया। उसकी दीवारें ईंट और मिट्टी की जुड़ाई से बनी थी। छत सरपत, ज्वार के डंंठल की थी जिसपर पॉलीथीन का तिरपाल चढ़ा दिया गया था बारिश का असर कम करने के लिये। मिट्टी से ही जोड़ कर चारदीवारी बनाई गयी थी। साधारण सा घर। पर फोटो में बढ़िया लग रहा था। उसकी चार दीवारी में एक खटिया भी बिछी थी। लोग उठ कर गंगा किनारे चले गये होंगे। गंगा पास में होने के कारण लोगों के नित्य कर्म और स्नान गंगा तट पर ही होते हैं।
कच्चा मकान शायद इसलिये था कि अभी प्रधानमंत्री आवास योजना में इस परिवार का नम्बर नहीं लगा होगा। वैसे आवास योजना के पक्के आवास और साथ में शौचालय सुविधाजनक होते तो हैं पर इतने सुंदर नहीं लगते। यूं इस घर वाले के पास जमीन ठीक ठाक है। पूरी जमीन लीप कर साफ कर रखी है, अन्यथा एक दो क्यारी सब्जी की लगाता तो शायद ज्यादा अच्छा रहता।
शाम के समय द्वारिकापुर के घाट पर था मैं। पच्चीस तीस लोग इधर उधर गोल बनाये बैठे थे। धन तेरस के दिन इतनी बड़ी संख्या में गंगा किनारे आना, वह भी ढेरों मोटर साइकिलोंं और एक ऑटो द्वारा; जरूर कोई दाह संस्कार का मामला होगा।

मैंने उन लोगों की बातचीत सुनने का प्रयास किया। सामान्य मसलों पर बातचीत। कोई श्मशान-वैराज्ञ का अंश नहीं था। वे लोग, अलबत्ता जो बतिया रहे थे, उसमें हंसी ठट्ठा या चुहुल का तत्व नहीं था। कोई जलती हुई चिता भी नहीं दिखी मुझे। पर हो सकता है बबूल के झुरमुट में आगे कोई दाह हो रहा हो। वैसे भी, चईलहवा घाट (वह घाट जहां लकड़ी से दाह संस्कार होता है) इस मुख्य घाट से थोड़ा हट कर ही है।
एक ही दिन में सुबह शाम की गांव की सड़कों की सैर ने मुझे अलग अलग बिम्ब दिखाये। यह ग्राट ट्रंक रोड़ के हाईवे पर नहीं ही होता। … जब कुछ लिखने की सामग्री टटोलने का मन हो, तो गांव देहात की सड़कों का ही रुख करना चाहिये। मानसिक हलचल वहां मजे से होती है।

सूर्यास्त होने को था। घर लौटने तक हो ही जायेगा। मैंने हिसाब लगाया कि द्वारिकापुर घाट पर ज्यादा समय न देते हुये वापस निकल ही लेना चाहिये।

BAHUT BADHIYA POST JAI SHRIRAM JAI HIND 🙏 ❤️
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धन्यवाद जी!
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GYAN DUTT PANDEY JI AAPNE BAHUT BADHIYA POST DALA BAHUT KHUSHI HUYI VARANASI AUR AAS PAAS GONW GALI CITY CHAURAHE KA BADHIYA PHOTO BHI HAI JAI SHRIRAM JAI HIND 🙏
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दिनेश कुमार शुक्ल, फेसबुक पेज पर –
कलंगी छरहरी बाजरे की, महाकवि अज्ञेय जी की कविता है।
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राजेंद्र सारस्वत, फेसबुक पेज पर –
आपके यूँ घूमते रहने की घुमक्कड़ी से मुझे भी नयी ऊर्जा और प्रोत्साहन मिलता हैं 🙏🙏
जिंदगी की हर एक बूंद को यूँ घूंट घूंट कर पीने का आपका ज़ज्बा काबिले तारीफ है..
ईश्वर आपको पैरों को यूँ ही कुब्बत और होठों को प्यास अता फरमाएं 👏👏
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