सर्दी में ठिठुरता देहात ऊष्मा की तलाश में बहुत सा समय लगाता है। आदमी, औरत, बच्चे – सभी अपने दिन का महत्वपूर्ण समय लकड़ी, टहनी, सूखे पत्ते आदि बीनने में लगाते हैं। उस समय का उपयोग किसी और अर्थपूर्ण कार्य में लग सकता था। मसलन बच्चे पढ़ाई कर सकते थे, महिलायें और पुरुष कोई ऐसा काम कर सकते थे जिससे आमदनी हो या घर बेहतर बन सके। पर उस सब की बजाय अलाव के लिये ईंधन बटोरने में लगी है गंवई आबादी।

मेरे घर के बगल में टुन्नू (शैलेंद्र दुबे) का अहाता निर्बाध खुला है पास के गांव वालों के लिये। टुन्नू ने चारदीवारी तो बनवाई है पर उसमें (शायद जानबूझ कर) गेट नहीं लगवाया। आसपास के पसियान, चमरऊट, केवट बस्ती के लोग उनके परिसर के पेड़, पौधों, वस्तुओं (मसलन हैण्ड पम्प) को अपना मान कर इस्तेमाल करते हैं। इतना उदात्त मैं कभी नहीं बन सका। और शायद बन भी नहीं सकूंगा। … मैं अपने व्यक्तिगत स्पेस में कोई अतिक्रमण सह नहीं सकता।

टुन्नू के अहाता में दो दर्जन से ज्यादा पेड़ हैं। ज्यादातर उनके दिवंगत पिताजी (मेरे श्वसुर जी) ने लगाये थे। उनमें कई सागौन के वृक्ष हैं। आजकल उनके पत्ते झरते हैं। हवा चलती है तो ज्यादा ही झरे मिलते हैं। गांव भर के बच्चे आ आ कर उन पत्तों को बीनते हैं।
एक सागौन की सूखी पत्ती कितने कैलोरी या जूल एनर्जी देती होगी? यह खोजने के लिये मैं गूगल सर्च करता हूं। बदल बदल कर सवाल पूछने पर भी इण्टरनेट कोई सही जवाब नहीं देता। इण्टरनेट शहराती लोगों का झुनझुना है। उसे गांवदेहात की पत्ता बीनती सर्दी से कोई लेना देना नहीं हुआ होगा।
उस दिन हवा तेज थी और पत्ते खूब झर रहे थे। दो बच्चे दौड़ दौड़ कर उन्हें बीन रहे थे। इकठ्ठा करने के लिये उन्होने कपड़े के चादर नुमा टुकड़े बिछा रखे थे। एक बोरी भी थी उनके पास। एक जगह के सभी पत्ते बीन कर वे कपड़े की पोटली उठा कर दूसरी जगह बिछा कर वहां के आसपास बीनते थे। बीनने को खूब था।

सूखे पत्ते जैसी तुच्छ वस्तु, जिसका कोई मोल नहीं लगाता और जो कूड़ा-करकट की श्रेणी में आती है, किसी को इतनी प्रसन्नता दे सकती है?! गरीबी की प्रसन्नता!
बच्चे नंगे पैर हैं पर शरीर पर कपड़े पर्याप्त हैं। उनमें से एक की पैण्ट (या लोअर) ढीली है। वह बार बार उसे ऊपर सरकाता है। पत्तों की पोटली बनाने के लिये वह झुकता है तो पैण्ट नीचे सरक जाती है। वह तो अच्छा है कि उसके अण्डरवीयर जैसा कुछ पहन रखा है। आखिर अब इतनी कम उम्र का भी नहीं है वह कि शरीर दिखाता घूमे।
उनमें गरीबी है, पर वैसी विकट गरीबी नहीं जो मैंने अपने बचपन में देखी है। फिर भी सर्दी उन्हें सूखे पत्ते और टहनियां जैसी निर्मोल चीजें बीनने में दिन के तीन चार घण्टे बिताने को बाध्य करती है। मेरा ड्राइवर बताता है कि इनके घर के आसपास जो भी जमीन है, उसमें पत्ते जमा कर रखे हैं परिवारों ने। सुबह शाम कऊड़ा जलाने के लिये पत्तियां निकालते जाते हैं। पत्तियाँ ऊष्मा बहुत देती हैं पर जल्दी से बुझ भी जाती हैं। एक सागौन की सूखी पत्ती कितने कैलोरी या जूल एनर्जी देती होगी? यह खोजने के लिये मैं गूगल सर्च करता हूं। बदल बदल कर सवाल पूछने पर भी इण्टरनेट कोई सही जवाब नहीं देता। इण्टरनेट शहराती लोगों का झुनझुना है। उसे गांवदेहात की पत्ता बीनती सर्दी से कोई लेना देना नहीं हुआ होगा।

सूखा पत्ता बीनता बचपन; पत्ता समेटता गांव … यह वह अनुभव है जो यहां होने वाला ही देख, जान सकता है!
ज्ञानदत्त पाण्डेय – मैं भदोही, उत्तरप्रदेश के एक गांव विक्रमपुर में अपनी पत्नी रीता के साथ रहता हूं। आधे बीघे के घर-परिसर में बगीचा हमारे माली रामसेवक और मेरी पत्नीजी ने लगाया है और मैं केवल चित्र भर खींचता हूं। मुझे इस ब्लॉग के अलावा निम्न पतों पर पाया जा सकता है। |
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