ईंटवाँ के बऊ यादव

मडैयाँ डेयरी के कलेक्शन सेण्टर पर मैं सवेरे नौ बजे के आसपास दूध लेने जाता हूं। बहुत कुछ उस तरह जैसे सवेरे अपने बंसी-कांटा लिये लोग गंगा किनारे जाते हैं। वे वहां त्राटक साध कर मछली पकड़ते हैं और मैं डेयरी की गहमागहमी, लोगों की चेंचामेची में ब्लॉग लिखने के विषय और चरित्र तलाशता हूं। मेरे लिये मेरे स्मार्ट फोन और फीचर फोन मेरे बंसी-कांटा हैं। वहां के चरित्र और उनकी बातचीत मेरे लिये मछलियाँ हैं। उन्हें दर्ज करने के लिये जेब में एक नोटबुक और कलम भी होती है।

लोग जान गये हैं कि मैं वहां “मछली पकड़ने” आता हूं। दूध लेना तो निमित्त भर है।

आज के चरित्र थे बऊ यादव। पास के गांव इंटवाँ के हैं। साथ में पांच छ डिब्बे, प्लास्टिक के बर्तन आदि ले कर आये थे।

बऊ यादव

तीन चार बर्तन एक प्लास्टिक के रीसाइकिल्ड झोले में रख साइकिल के हैण्डल में लटका कर और पीछे दोनो ओर पांच सात किलो के बाल्टे कैरीयर से बांध कर लाने की तकनीक मझोले आकार के बाल्टा वालों की है। पहले ये हैण्डल से छोटे डिब्बों के झोले ले कर नहीं चलते थे। तब वे सारा दूध बाल्टे में उंडेल लेते थे। रास्ते में पानी के साथ भी दूध मिश्रण के प्रयोग करते थे। अब तकनीक में परिवर्तन आया है। अब वे हर गोरू का दूध अलाग अलग डिब्बों में लाते हैं। और बीच में पानी के साथ दूध की छेड़छाड़ बंद हो गयी है। डेयरी के कलेक्शन सेण्टर पर लैक्टो-स्कैनर को धता बताने की कोई तकनीक अभी विकसित नहीं हुई। सो दूध शुद्ध ही आ रहा है कलेक्शन सेण्टर पर।

बांये से चौथे बऊ यादव। बाकी लोग उनसे ठिठोली करने वाले।

अधेड़ हैं बऊ यादव। शायद उनकी सिधाई के कारण नौजवान उनसे ठिठोली करते हैं – “आ गये हैं असल धनी दूध ले कर। इनका फोटो खींचिये।” बऊ ने बताया कि उनके पास एक ही गाय है। बाकी दूध आसपास वालों से संग्रहित कर यहां ले कर आते हैं। कुल 15 लोगों का परिवार है। उसमें से एक बम्बई में और एक यहां नौकरी करते हैं। बाकी सब इधर उधर खेती-किसानी में लगे हैं। कुल बारह बिस्वा अपनी जमीन है। अंदाज है कि लोगों की जमीन ले कर खेती करते होंगे। … सुबह शाम इस कलेक्शन सेण्टर पर आते हैं वे।

“एन्हने सब आईसई कहथिं (ये नौजवान ऐसे ही कहते हैं)। मरता मनई हई हम (गरीब आदमी हूं मैं)।” – बऊ यादव ने कहा।

मेरे बार बार उनके चित्र लेने पर बऊ यादव ने जोड़ा – “हम निछौंछे (फालतू, गरीब) क का फोटो लेत हयअ। एनकर (इनका; हाथ से डेयरी के मालिक अजय पटेल को दिखा कर) फोटो खींचअ। मारि एतना बड़ा खोले हयें। सगरौं अरररर होत बा एनकर। [मुझ निरीह का क्या चित्र खींच रहे हैं बार बार। इस डेयरी के मालिक का खींचिये। इतनी बड़ी डेयरी लगाई है इन्होने कि पूरे इलाके में वाह वाह – अरररर – हो रही है।]”

बऊ यादव के द्वारा अपने बारे में अरररर सुन कर डेयरी के मालिक ने धीरे से जोड़ा – “ऐसे ही कहते हैं बऊ। महीना में चालीस हजार बचाते हैं!” हो भी सकता है। यहां यादव लोग बहुत फ्रूगल जिंदगी जीते हैं। और पैसा बचाने, खेत लिखाने में महारत है उनको। बाभन ठाकुर जमीन बेच-खा रहे हैं; यादव खरीद रहे हैं।

गांव का आदमी बऊ! एक छोटी सी वार्ता में मुझे कई शब्द सिखा दिये – मरता, निछौंछे, अरररर!

खांटी देसी जीव। बहुत माई-डीयर आदमी निकले बऊ यादव। उनके पास सट कर एक फोटो खुद अपने फीचर फोन से ‘हईंच लिहा हम!’ 😆

बहुत माई-डीयर आदमी निकले बऊ यादव। उनके पास सट कर एक फोटो खुद अपने फीचर फोन से ‘हईंच लिहा हम!’ 😆

आज तो परिचय हुआ है। आगे मिलते रहेंगे बऊ यादव से। वे मेरी प्राइज-कैच हैं डेयरी पर! गंगा तट पर जाना नहीं हो रहा तो डेयरी ही सही! 😆

बऊ यादव की जय हो!


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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

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