गांव का आदमी जब शहराती बनता है तो उसका गांव खोने लगता है। यह समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय हो सकता है कि कितनी पीढ़ियाँ लगती हैं गांव को पूरी तरह भुलाने में। शायद दो पीढ़ियां। पर कुछ समुदाय ऐसे हैं, जो कई कई पीढ़ियोँ बाद भी अपनी जमीन से जुड़े हैं। शेखावाटी-मारवाड़ के कई परिवार अब भी अपने पर्व-संस्कारों के लिये अपने गांव की यात्रा करते हैं। पूर्वांचल के इस इलाके में भी कई परिवार आजीविका के लिये कलकत्ता, बम्बई आदि जगह गये। आज भी उनको यदा कदा इकठ्ठा होते मैं देखता हूं।
आज वही देखना हुआ सवेरे की साइकिल सैर के दौरान।
श्री रमाशंकर पाण्डेय; जो कलकत्ता में रहते हैं; ने प्रेमसागर की शक्तिपीठ यात्रा के कलकत्ता के आसपास के पीठों के दर्शन/पदयात्रा को सुलभ बनाया था। अपने घर पर एक सप्ताह प्रेमसागर को रखा भी था। आर्थिक सहायता भी की थी। वे आजकल गांव आये हुये हैं। विवाह शादी आदि के प्रयोजन हैं। व्यस्त रहते हैं उसमें। उनसे मिलना नहीं हो पाता। पर आज सवेरे वे लोग अपने घर के बाहर मिले। सवेरे की बैठकी चल रही थी पेड़ की छाया में।

वे सभी, या उनमें से अधिकांश, गांव में घर वाले हैं। एक या दो पीढ़ी से वे गांव के होने के साथ साथ महानगरीय भी हो गये हैं।
साइबेरियाई पक्षी, मसलन घेंटी यहां आते हैं तो उन्हें प्रवासी पक्षी कहा जाता है। उनका मूल साइबेरिया का है और वे सर्दियों के मौसम में यहां आते हैं। पर साइबेरिया में उन्हें क्या कहते होंगे? उनका तो होम एड्रेस वहीं का है। उसी तरह ये लोग भी यहां के हैं। कलकत्ता या बम्बई उनका व्यवसायिक प्रवास है।
मेरे लिये चाय आती है। लिप्टन की ग्रीन चाय। अच्छा स्वाद है। हमारे घर की टेटली वाली चाय से बेहतर है स्वाद। ग्रीन चाय महानगर और गांव के बीच एक लिंक सा लगती है। घर जा कर लिप्टन वाली खरीदने की सोचूंगा, यह विचार मन में आता है। पर यह भी सम्भव है कि इतने सारे लोग आपका सवेरे सवेरे स्वागत करें तो चाय का स्वाद अपने आप अच्छा हो जाता है।
रमाशंकर जी अपनी बहन, बिटिया और अपने जीजा जी से परिचय कराते हैं। बिटिया मेरा लिखा नियमित पढ़ती हैं। शायद इसी माध्यम से गांवदेहात से जुड़ना होता हो। बिटिया की मेरे लिखे की प्रशंसा मुझे वैसे ही अच्छी लगती है जैसे लिप्टन की हरी चाय। जब भी कोई लेखन की प्रशंसा करता है, तो एकबारगी अच्छा लगता है; पर फिर लिखने में बेहतर कण्टेण्ट परोसने का दबाव तो बनता ही है। पता नहीं, लोग प्रशंसा करके भूल जाते हों, पर अपनी प्रशंसा अपने को पछियाती रहती है। … ज्यादा मत फूलो, जीडी! :-)
राधेश्याम दुबे, गांव का नाम झगड़ू (किसी भी कोण से झगड़ालू नहीं लगते, गांव में निक-नेम रखने का तरीका बहुत सही नहीं है); से मैं करीब छ साल बाद मिल रहा हूं। अब उनके लड़के भी बम्बई-सूरत में काम पर लग गये हैं। रवींद्रनाथ जी तो अब भी गांव या बम्बई में कहां अपना रिटायर्ड जीवन गुजारें – यह तय नहीं कर पाये हैं। वे कभी यहां दिखते हैं, कभी बम्बई से फोन आता है उनका।
रिटायरमेण्ट के बाद कौन जगह रहने के लिये बेहतर है? मैं इस सवाल पर बहुधा सोचता हूं। अगर आप सुविधा के आदी हो गये हैं तो गांव में उसे खोजना-बनाना-जारी रखना कठिन काम है। पर अगर आपको नोश्टॉल्जिया सताता है तो आपके लिये गांव ही उचित है। लेकिन यहां भी नलिनीदलगतजलमतितरलम – कमल के पत्ते पर पानी की बूंद की तरह ही रहें। यहां की छुद्र राजनीति, छद्म दैन्य और कुछ लोगों की सामांती ऐंठ से पूर्णत: असम्पृक्त।

पर वैसे रहा जा सकता है क्या? हर एक के पास अपने अपने विचार होंगे और अपने अपने तर्क। सब शायद निर्भर करता है कि किस वैचारिक स्तर पर आप जीना चाहते हैं। … मैं उन लोगों के पास चाय पी कर और हल्की-फुल्की बात कर प्रसन्नमन वापस आते हुये यह सब सोचता हूं।
आज जिनसे मिला, उन सबकी प्रसन्नता और उसके पीछे कर्मक्षेत्र की जद्दोजहद; शहर और गांव की जिंदगी में कुशल बाजीगर की तरह तालमेल साधने की कला और उनके जीवन की ऊर्जा के स्रोतों के बारे में मुझे और जानकारी पानी चाहिये।
मिलने-जुलने पर एक जानदार तुकबंदी/पहेली बताई, दोहराई रवींद्रनाथ जी और रमाशंकर जी ने – चार मिले, चौंसठ खिले, बीस रहे कर जोरि (दो व्यक्ति मिले तो उनकी चार आंखें 2-4 हुईं। प्रसन्नता से दोनो की बत्तीसी खिल उठी (चौंसठ)। उसके बाद अनायास हाथ की उंगलियां नमन की मुद्रा में जुड़ गयीं (20 उंगलियां)। … कवित्त का समापन होता है “बिंहसे सात करोड़ (शरीर के रोम रोम आल्हादित होने से तात्पर्य)” से।
चार मिले चौंसठ खिले, बीस रहे कर जोड़।
प्रेमी सज्जन दो मिले, बिंहसे सात करोड़॥
दो लोगों के मैत्री भाव से अनंत (एक व्यक्ति में साढ़े तीन करोड़ रोमावलियों का अंदाज लिया है) रोमावलियां प्रसन्न हो जाती हैं! कुछ क्षणों के लिये मिलना, बोलना, बतियना बहुत मायने रखता है। सारी समाज संरचना मिलने पर ही आर्धारित है!
बात में आया यह कवित्त तो मैं भूल ही गया था। पोस्ट लिखने के बाद रमाशंकर जी ने याद दिलाया!
लोगों से और मिलो, उनके पास बैठो, और कुछ नहीं तो फोन पर बतियाओ; जीडी!

